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Tasveer Jindgi Ke

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A complete book : Tasveer Jindgi Ke

This collection of Gazals by Bhojpuri Poet Manoj Bhawuk was awarded the "Bhartiya Bhasha Parishad Samman 2006".

Anjoria is pleased to offer this book as a whole to it's readers.


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माटी की गंध में लिपटी कविता

- माहेश्वर तिवारी

उर्दू में गजल को शायरी का शऊर और आबरू कहा गया है. वहां गजल की पहचान ठीक वैसी ही है जैसी हिन्दी में गीत-कविता की. काव्यात्मकता के साथ उपस्थित संगीत इन काव्य रूपों का प्राण-तत्व है. जिस तरह हिन्दी गीत का उत्स वैदिक ऋचाऐँ हैं, उसी तरह उर्दू गजल का स्रोत फारसी कविता है. लेकिन यह स्थापना सर्वस्वीकृत नहीं है, कई विद्वानों का मत इससे सर्वथा भिन्न है और वे यह मानते हैं कि गजल मूलतः अरबी भाषा का काव्य-विधान है. उनके अनुसार गजल की उत्पत्ति आज से लगभग १४०० वर्ष पहले अरबी भाषा में हुई और उसके बाद फारसी में आई. लेकिन कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि भारतीय भाषाओं में गजल सबसे पहले हिन्दी में आई और बाद में उर्दू में. उनका मानना है कि उर्दू का जन्म मुगल शासन काल में हुआ और अमीर खुसरो ने तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और चौदहवीं सदी के पूर्वार्द्ध के बीच वाले काल खण्ड मे हिन्दी में गजलें लिखीं.

अरबी भाषा में गजल के उत्स को तलाशने वालों का मानना है कि अरबी भाषा में शायर जो तश्बीब लिखते रहे, वह गजल से मिलता-जुलता काव्य रूप है और कालान्तर में उसी से प्रेरित होकर फारसी में गजल-लेखन का आरम्भ हुआ. लेकिन फारसी भाषा में इस काव्य रूप का प्रस्थान-बिन्दु देखनेवालों का मानना है कि दसवीं शताब्दी में रौदकी नाम के एक फारसी कवि हुए, जिन्होंने गजल को अपनी शायरी का अंग बनाया. उनके अतिरिक्त फारसी के प्रमुख गजलकारों के रुप में वे लोग अमीर खुसरो, शेख सादी, फैजी तथा चन्द्रभान ब्राह्मण का नाम शामिल करते हैं. अब यह अलग बात है कि अमीर खुसरो को हिन्दी वाले अपना पितामह मानते हैं तथा उर्दू के लोग भी उन्हें बाबा-ए-उर्दू या बाबा-ए-गजल के रूप में तस्लीम करते हैं. बहरहाल, गजल का उत्स किस भाषा के साहित्य में है और उसके पहले शायर कौन हैं, यह अभी गेरे-बहस है लेकिन कविता का यह रूप धीरे धीरे इतना प्रभावी सिद्ध हुआ कि आज हिन्दी उर्दू के अतिरिक्त पंजाबी, गुजराती, और मराठी भाषा में प्रचुरता के साथ गजलें पढ़ी-लिखी जा रही हैं.

गजल का शाब्दिक अर्थ है माशूक से बातचीत या हुस्नो-इश्क का बखान. एक विद्वान कैस बिन राजी मानते हैं कि गजाला या हिरन को शिकारी द्वारा मार दिये जाने पर उसके वियोग में हिरनी के मुख से निकली हुई करुणापूर्ण आह या कराह भी गजल की केन्द्रीय संवेदना को व्यञ्जित करती है. इसका समर्थन स्व. रघुपति सहाय फिराक भी करते हैं. लेकिन सूक्ष्मता के साथ इस स्थापना का विश्लेषण किया जाय तो लगता है यह अवधारणा क्रौंञ्च-वध पर आदि कवि वाल्मीकि के कंठ से फूटे अनुष्टुप से अनुप्रेरित है. गजल के स्वरूप का विश्लेषण करते हुये उर्दू के एक अन्य विद्वान डा. माजदा हसन का मानना है - "साहित्य और समाज में गजल का वही स्थान है जो किसी भरे-पूरे घर में एक अलबेली सुन्दरी का होता है. उसके चाहने वालों में बड़े-बूढ़े, औरत-मर्द, सूफी, योग्य और अयोग्य, ज्ञानी और अज्ञानी सभी होते हैं. कुछ उसके अल्हड़पन के दिलदार हैं तो कुछ उसकी शोखियों पर मरते हैं."

हिन्दी गजल के इतिहास की छानबीन करने वालों को इसकी पहली झलक कबीर में मिलती है और स्थापना की पुष्टि में वे निम्नलिखित पंक्तियों को प्रस्तुत करते हैं -

हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या
रहे आजाद दुनिया में, हमन दुनिया से यारी क्या

कबीर के बाद हिन्दी में गजल की प्रवाहमान धारा गिरधर दास, प्यारेलाल शौकी, प्रेमघन, जयशंकर प्रसाद, लाला भगवान दीन, निराला, और आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री की रचनाओं में देखने को मिलती है. कालान्तर में यही परम्परा निराला से बढ़कर शम्भुनाथ शेष, बलवीर सिंह रंग, रूपनारायण त्रिपाठी, नीरज, त्रिलोचन शास्त्री, तथा शमशेर बहादुर सिंह के रचना-संसार से होती हुई दुष्यन्त कुमार तक आती है. लेकिन इस परम्परा के बावजूद सच्चाई यह है कि हिन्दी में गजल का विस्मयकारी विस्फोट दुष्यन्त कुमार तथा उनके कुछ समकालीन तथा परवर्ती रचनाकारों में देखने को मिलता है. इसी के प्रभाव से भोजपुरी में गजल लिखने के प्रति रचनाकारों की रुचि प्रेरित हुई. ऐसा कुछ हिन्दी वालों का मानना है जो सम्भवतः लोक-भाषाओं की सृजनात्मकता से परिचित नहीं हैं. भोजपुरी भाषा और साहित्य के गम्भीर अध्येता इससे भिन्न मत रखते हैं और उनका मानना है की भोजपुरी गजल का इतिहास वैसा नया नहीं है जैसा कुछ लोग स्थापित करते है. वास्तविकता यह है कि जिस समय भारतेन्दु हिन्दी में (हिन्दी-उर्दू मिश्रित) गजलें लिख रहे थे, लगभग उन्हीं के समकालीन भोजपुरी के कवि तेग अली तेग गजल के छन्द विधान को अपनाकर प्रभावी रचनायें प्रस्तुत कर रहे थे. उनकी कविताओं का संग्रह 'बदमाश दर्पण' इसका प्रमाण है. लेकिन, यह भी सच है कि तेग अली के समकालीन और उनके परवर्ती किसी अन्य भोजपुरी गजलकार को ढूँढ़ना मुश्किल है.

समकालीन भोजपुरी कविता में सर्वश्री पाण्डेय कपिल तथा जगन्नाथ दो ऐसे नाम हैं जिनकी कदकाठी, भोजपुरी ही नहीं, हिन्दी के किसी बड़े कवि के समानान्तर देखी जा सकती है. इनकी गजलों में गजल का परम्परागत कथ्य और आधुनिकता से लैस समकालीन एवं समसामयिक बोध विस्तार सूक्ष्मता से सुगुम्फित मिलते हैं. इसलिये मेरा मानना है कि ये दोनों प्रयोगधर्मी सृजनशील कवि संयुक्त रुप से आधुनिक भोजपुरी गजल के प्रथम पुरुष हैं, जिनका विकास डा. अशोक द्विवेदी की पीढ़ी के कवियों में देखा-परखा जा सकता है. भोजपुरी गजल साहित्य में मनोज 'भावुक' इसी परम्परा की नवध कड़ी हैं.

मनोज की गजलों की वस्तुचेतना को निजत्व से उपजी सामाजिकता के विस्तार के रुप में देखा जा सकता है. उनकी गजलों में आजादी के बाद मोह-भंग से उपजी भारतीय जनजीवन की त्रासदी और छटपटाहट को ही प्रमुखता से शब्दायित किया गया है. आजादी के बाद जो सत्ता का हस्तान्तरण हुआ, उससे केवल शासन-सत्ता का ही परिवर्तन नहीं हुआ वरन आम आदमी लोकतंत्र के तंत्र में ऐसा उलझा कि उसके पास सपनों से भरा जो एक कोमल अबोध मन था, वह चालाकियों, चाटुकारिता, छल-छद्म में बदल गया. मनुष्य के रुप में, जो अत्यन्त बहुमूल्य धरोहरें थीं, सम्बन्धों की सहलाव भरी उष्मा थी, वह सब की सब खो गई. गांव, घर, सीवान, सबने कुछ न कुछ खोया ही और यह खोना ही आजादी का हासिल बनता गया. शहर का कंकरीलापन पसरता हुआ उसके मन में समाता गया. 'तस्वीर जिन्दगी के' संग्रह की पहली गजल ही गहरी टीस और छटपटाहट को एक प्रश्नाकुलता के साथ प्रस्तुत करती है.

बचपन के हमरा याद के दरपन कहाँ गईल
माई रे, अपना घर के ऊ आँगन कहाँ गईल

आँगन को दर्पण कहना, शायद पहली बार कविता में प्रयुक्त हुआ है. झील का दर्पण, आँखों का दर्पण पहले भी प्रयुक्त हुआ है, लेकिन आँगन का ऐसा दर्पण बन जाना, जिसमें यादों के अक्स उभरते हों, पहली बार प्रयुक्त हुआ है. साथ ही साथ यह उस बदलाव की ओर भी इशारा करता है, जहाँ बढ़ता शहरातीपन, उसमें उगते सिमेन्ट और कंक्रीट के जंगल निरन्तर पसरते चले जा रहे हैं. इस जंगल के विस्तार में आँगन का खोना, अधुनातन भवन निर्माण और वास्तु को खारिज करता है. गाँव खो गये हैं, उसकी बगीचियाँ उजड़ गयी हैं, वहाँ का सहज आनन्द-उल्लास खो गया है. आत्मीयता से लबालब स्नेह की सरितायें सूख गयी हैं. तभी तो कवि लिखने को विवश होता है -

खूशबू-भरल सनेह के उपवन कहाँ गइल
भउजी हो तोहरा गाँव के मधुबन कहाँ गइल
(गजल संख्या ‍१)

आपसदारियाँ खत्म हो गयी हैं, राजनीति, धर्म, और जातीय विभाजनों ने ऐसी दरारें पैदा कर दी हैं जिन्हें लोग प्रयत्न करके ढँक तो लेते हैं, लेकिन नष्ट होने से बचाये भी रखना चाहते हैं. आवरणहीन खुल कर मिलने-जुलने की रवायतें गुम हो गयी हैं और उसका परिणाम सामने है -

खुलके मिले-जुले के लकम अब त ना रहल
विश्वास, नेह, प्यार भरल मन कहाँ गइल.
(गजल संख्या ‍१)

यही तो त्रासदी है विगत छप्पन वर्षों की 'सुराज यात्रा' की. लोगों का कद बढ़ा है लेकिन ऋणात्मक जीवन मूल्यों की दिशा में. शोषण की प्रवृत्ति ने उन्हें बरगद बना दिया है, जो उपरी तौर पर तो छाया देता है लेकिन अपने नीचे उगते किसी और बिरवे को वृक्ष बनने से रोकता है. इतना ही नहीं, वरन् आसपास के पेड़ों के हिस्से की खुराक और उनकी जीवनी-शक्ति भी छीन लेता है -

जे भी बा, बाटे बनल बरगद इहाँ
पास के सब पेड़ के रस चूस के
(गजल संख्या ‍१)

इसी का परिणाम है कि कुछ लोग अपने मूल्यों, आदर्शों और मानवीय सरोकारों के लिये आज भी अशरीरी होकर जीवित हैं. स्मृतियों में कौंधते हैं. जबकि तमाम सारे दूसरे लोग दैहिक वजूद रखते हुये भी स्मृतियों के विलोपन में चले गये है, यह स्मृतियों का विलोपन ही तो मृत्यु है -

बहुत बा लोग जे मरलो के बाद जीयत बा
बहुत बा लोग जे जियते में, यार, मर जाला

एक अच्छी कविता जितना कहती है, उससे कहीं अधिक गोपन रखकर संकेतों और व्यञ्जनों से अपने अर्थ-आशय को व्याख्यायित करती है. कविता की यह गोपन प्रक्रिया ही उसके आयाम को विस्तार देती है. मनोज 'भावुक' की रचनाशीलता, कविता के इस स्वभाव की कसौटी पर खरी उतरती है.

एक पोख्ता इमारत के लिये जरूरी है कि उसकी नींव ठोस हो, लेकिन यहाँ तो नींव ही रेत में रखी गयी है. लोग नदी में कागज की नाव पर बैठे हैं और अपने को सुरक्षित अनुभव करने का भ्रम पाले हुये हैं. यह आश्वस्ति कितनी भयावह है ! कागज की नाव की नियति है डूबना. योजनायें जो फाइलों में दब के रह गयी हैं, उनका पानी के गहरे तल में डूबना सुनिश्चित है. आम आदमी समकालीन समय के कैसे दबाव में पिस रहा है, इस त्रासदी को कवि ने बड़ी खूबसूरती से प्रस्तुत करते हुये लिखा है -

कान्हा प अपना बोझ उठवलो के बावजूद
हरदम रहल देवाल छते के दबाव में
(गजल संख्या ५)

यह दीवार कौन है भला - मेहनतकश आम आदमी. और छत हैं वे लोग जिनका रिश्ता जमीन से नहीं है लेकिन दीवार पर बोझ की तरह लदे हुये हैं.

गाँवों की जानी-पहचानी छवि बदल गयी है. उसका अस्तित्व ही खतरे में है. शहर अपनी सभी, सभ्य मुखौटों के भीतर छिपी, कुररूपताओं के साथ उसकी आत्मा को निगल गया है. वैसे लफ्फाजी भरे भाषणों में भारत अब भी गाँवों का ही देश है. देश का सत्तर प्रतिशत हिस्सा गाँव है लेकिन असलियत इसे नकारती है -

कहहीं के बाटे देश ई गाँवन के हऽ, मगर
खोजलो पर गाँव ना मिली अब कवनो भाव में
(गजल संख्या ‍ ५)

यह बात ध्यान देने की है कि कवि आधुनिकता का विरोधी नहीं है बल्कि वह आधुनिकता की खाल में इस खतरनाक आदमखोर यांत्रिकता का विरोध करता है जो आदमी को मशीन में तबदील करती जा रही है. मनुष्य की कोमल मानवीय संवेदनाओं का क्षरण कर रही है, उसे मार रही है.

लागत बा उ मशीन के साथे भईल मशीन
तब ही तऽ यार आज ले लवटल ना गाँव में.
(गजल संख्या ५)

हिन्दी नवगीत में 'घर' को प्रेम से भरी संवेदनशील ईकाई के रूप में चित्रित किया गया है. 'तस्वीर जिन्दगी के' की गजलों में ऐसे अशआर मिलते हैं जो घर की संवेदना को, पारिवारिक रिश्तों की गर्माहट को व्यञ्जना देते हैं -

होखे खपरैल भा महल होखे
नेह बाटे तबे ऊ घर बाटे
(गजल संख्या ५०)

परे जब डाँट बाबू के छिपीं माई के कोरा में
अजी, ई बात बचपन के मधुर संगीत लागेला
(गजल संख्या ८)

आधुनिकता ने मनुष्य के स्वभाव की ईमानदारी और सहजता को छीन लिया है. परस्पर संबंधों में एक कुरूप औपचारिकता का प्रवेश हो गया है. इसी स्थिति की ओर संकेत करते हुये उर्दू के एक शायर ने लिखा है -

दिल मिले या न मिले,
हाथ मिलाते रहिये.

'भावुक' का भी एक शेर है -

प्रीत के रीत गजब रउआ निभावत बानी
घात मन में बा, मगर हाथ मिलावत बानी
(गजल संख्या १०)

कविता क्या है? गीत क्या है? इसे लोगों ने तरह-तरह से परिभाषित किया है. लेकिन गीत की जो केन्द्रीय शर्त है वह है सौन्दर्य का आन्तरिक अनुगायन. फिर चाहे वह सुखद हो अथवा विषादपूर्ण. गीत के इसी स्वरूप को परिभाषित करते हुये कवि ने एक शेर में लिखा है -

रूप भा रंग के हम छंद में बान्हत बान्हत
साँस पर साध के अब गीत कढ़ावत बानी
(गजल संख्या १०)

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कई वर्षों पूर्व वाराणसी के एक कार्यक्रम में कविता की चर्चा करते हुए कहा था कि कविता रोटी नहीं देगी, कपड़ा नहीं देगी, मकान नहीं देगी - फिर उसका हमारे लिये क्या उपयोग हो सकता है? उन्होंने इन सवालों का उत्तर देते हुये कहा था कि यह ठीक है कि कविता हमें किसी तरह का भौतिक सुख नहीं दे सकती लेकिन वह उससे भी बड़ा और महत्वपूर्ण कार्य करती है - एक बेहतर इन्सान बनाने का काम. जीवन में वह सहचर भाव से हमारे साथ हमेशा रहेगी, संवेदनाओं को निरन्तर सम्प‍‍न्न बनाती हुई. कविता में निहित होती है सृजन की आकांक्षा. वह जीवन को कोमल, सहज तथा सुखद बनाये रखने का प्रयास करती है -

आज ले दे न सकल पेट के रोटी कविता
तबहूं हम गीत-गजल रोज बनावत बानी
पेट में आग तऽ सुनगल रहत बा ए 'भावुक'
खुद के लवना के तरे रोज जरावत बानी
(गजल संख्या १०)

यह कवि का लवना, जलावन की लकड़ी, की तरह खुद को जलाना ही तो कविता के सृजन कि प्रक्रिया का हिस्सा है. इसलिये कि कल किसी की आत्मा भूखी न रहे.

गजल की विशेषता है कि उसके शेरों के अर्थ इकहरे न होकर बहुआयामी, बहुकोणीय होते हैं. सामान्य मानवीय प्रेम के धरातल और आध्यात्मिक उर्ध्वगमन की प्रक्रिया उसमें एक साथ घुल-मिल जाती है -

देखाई आज ले हमरा ना ऊ पड़ल कबहूँ
हिया में सांस में धड़कन में जे समाइल बा
निकलके आईं कबो ख्वाब से हकीकत में
परान रउरे भरोसा प अब टंगाईल बा
(गजल संख्या ११)

अब ठीक इससे उलट बात एक शेर में देखें -

कहिये से जे बा बइठल, भीतर समा के हमरा
हहरत हिया के धड़कन ओकरे सुनात नइखे
(गजल संख्या १२)

परिवर्तनशीलता प्रगति का पर्याय है. समय के अनुरूप अपने को ढालना मानवीय विवेक का परिचायक है. लेकिन अंधे के हाथ में अपने आप को सौंप देना विवेक नहीं आत्महत्या है. बदलाव को ठीक-ठीक समझे बगैर लोग इसके ताल पर थिरकने लगते हैं. यह तर्कसम्मत नहीं है. आधुनिकता किंवा पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध से खींचकर उसकी ओर भागना एक अंधी दौड़ है जो जड़ों से विच्छिन्न करती है. कवि इसी ओर संकेत करते हुये लिखता है -

बदलाव के उठल बा अईसन ना तेज आन्ही
कहवाँ ई गोड़ जाता, कुछुओ बुझात नइखे
(गजल संख्या १२)

गजल की एक विशेषता यह भी है कि उसके शेरों में एक उद्धरणीयता होती है और वे व्यापक जीवन प्रसंगों में हमारे काम उसी तरह आते हैं जैसे कबीर-रहीम के दोहे. इस संग्रह में भी ऐसे कई शेर हैं जो इस कसौटी पर खरे उतरते हैं. कुछ शेर बतौर बानगी देखें -

जिन्दगी सवाल हऽ, जिन्दगी जवाब हऽ
जोड़ आ घटाव हऽ, साँस के हिसाब हऽ

धूप चल गइल त का, रूप ढल गइल त का
बूढ़ भइल आदमी, अनुभवी किताब हऽ
(गजल संख्या १३)

संवेदना के लाश प कुर्सी के गोड़ बा
मालूम ना, ई लोग के कइसे सहात बा
(गजल संख्या १४)

आईं अबहूँ रहे के मिल-जुल के
जिन्दगी मे आउर धइल का बा
(गजल संख्या १६)

सुख के एहसास नइखे हो पावत
सुख के सामान सब भरल बाटे
(गजल संख्या २२)

यह देखकर सुखद लगता है कि मनोज 'भावुक' ने परम्परा से सिर्फ शिल्प ही नहीं लिया है, वरन् विषयवस्तु भी वहाँ से ग्रहण की है. लेकिन कुछ इस तरह कि वह उनकी मौलिकता को आहत न करे. यह परम्परा तुलसी में भी रही है और अन्य कवियों में भी. कबीर की एक उक्ति -

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय
जो मुख देखूं आपना, मुझ सा बुरा न कोय

को किस खूबसूरती से अपने शब्दों में ढालकर वे कहते हैं -

छोड़ दिहले हँसल ऊ अनका पर
जब से खुद पर नजर पड़ल बाटे
(गजल संख्या २२)

इसी तरह नायिका के सौन्दर्य का चित्रण करने वाला बिहारी का एक दोहा है -

लिखन बैठि जाकि सभी गहि गहि गरब गरूर
भये न केते जगत में चतुर चितेरे कूर

इसी सन्दर्भ में 'भावुक' का शेर है -

बन्हाइल कहाँ ऊ कबो छन्द में
जे हमरा के हरदम लुभावत रहल
(गजल संख्या २७)

रहीम का एक दोहा है -

रहिमन देखि बड़ेन को लघु न दीजिये डारि
जहाँ काम आवे सूई, कहा करे तलवारि

इसी आशय को व्यंजित करता 'भावुक' का एक शेर है -

कबो कबो होला अइसन कि छोटको कामे आवेला
देखीं ना सागर, इनार में, इनरे प्यास बुझावेला
(गजल संख्या ३९)

पूंजीतंत्र को लेकर पूरब में एक लोक कहावत है - &qiot;रेलिया ना बैरी, जहजिया ना बैरी, पिया पइसवा बैरी ना, देसवा देसवा भरमावे इहे पइसवा बैरी ना. "

ध्यातव्य है कि यहाँ नायिका न रेल का विरोध करती है, न जहाज का, जो आधुनिक जीवन के लिये जरूरी हैं. वह सिर्फ पैसे पर, पूंजीतंत्र पर चोट करती है. 'तस्वीर जिन्दगी के' का रचनाकार भी पूंजीतंत्र पर चोट करते हुये कहता है -

पटना से दिल्ली, दिल्ली से बम्बे, बम्बे से पूना
'भावुक' हो आउर कुछुओ ना पइसे नाच नचावेला
(गजल संख्या ३९)

यह पूंजीतंत्र ही तो ऐसे दृश्य, ऐसी स्थितियाँ प्रस्तुत करता है -

चीन्ही कइसे केहू के
सौ चेहरा एक चेहरा में
(गजल संख्या ४१)

गाय कसाई के घर में
कुतिया ए.सी. कमरा में
(गजल संख्या ४१)

'तस्वीर जिन्दगी के' की गजलें व्यापक जीवन की तस्वीर प्रस्तुत करती हैं. इनमें जहां एक ओर निजत्व भरा गहरा राग बोध है, वहीं दूसरी ओर जीवन यथार्थ की बहुआयामी छवि भी. इस संग्रह की गजलों को भोजपुरी-गजल यात्रा के विकास की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में जाँचा-परखा जाना चाहिये. एक बात विशेष रूप से ध्यान देने की है कि जीवन यथार्थ पर भरपूर दृष्टि होते हुये भी कवि में हताशा का भाव नहीं है. कई गजलों में यह गहरा आश्वस्ति भरा आशावाद झलकता है, जो इस रचनाकार के सृजनकर्म को प्रासंगिक बनाता है. गजल संख्या ४०, ४४ इसके अर्थवान उद्धरण है.

इन गजलों को पढ़ते हुये एक अन्य पहलू ने , जिसने अपनी ओर ध्यान आकर्षित किया, वह यह कि उर्दू में गजल का हर एक शेर एक स्वतंत्र इकाई की तरह होता है. हिन्दी ने उसे एक अन्विति में पिरोया. इस संग्रह की गजलें भी उसका निर्वहन करती हैं.

'माँ' को लेकर विश्व में अनेक कवितायें लिखी गयी हैं. मनीषियों-चिन्तकों ने यह स्वीकार किया है कि इस जीवन में 'माँ' ईश्वर की प्रतिनिधि ही नहीं वरन पर्याय है. एक विचारक ने कहा कि चुँकि ईश्वर सबके पास नहीं पँहुच सकता, इसलिये उसने 'माँ' की रचना की. इस संग्रह में भी 'माँ' पर एक पूरी गजल है. इसमें 'माँ' अपनी सम्पूर्णता में अभिव्यक्त हुयी है और वह तो चरम है जब कवि यह लिखता है -

'मनोज' हमरा हिया में हरदम
खुदा के जइसन रहेले माई
(गजल संख्या ४७)

मुझे विश्वास है कि व्यापक भोजपुरी जगत में ही नहीं, हिन्दी जगत में भी इस संग्रह को पढ़ा, गुना और सराहा जायेगा. इस संग्रह की गजलों में गजल का छान्दिक अनुशासन भी है और कविता तथा अन्तर्निहित संगीत भी.

प्रस्तोता या भूमिका लेखक की सीमा यही है कि वह प्रस्तुत कर के अपने को अलग कर ले, नाटक के सूत्रधार की तरह. मैं उसी प्रक्रिया में इस संग्रह की गजलों और उसके सुधी पाठकों से अपने को अलग करता हूं, यह देखने के लिये कि अपनी लहरों, मछलियों तथा तल की गहराई से ये किन्हें अपने में उतर कर तैरने, डुबकी लगाने के लिये आमंत्रित करती हैं और कौन लोग सिर्फ किनारे बैठ कर सब कुछ पाने की लालसा पालते हैं. इन गजलों में भोजपुरी माटी की गंध है और कविता की मिठास भरी सुगन्ध भी. कविता का एक काम यह भी है - माटी के संस्कारों को उद्दीप्त करना, लोगों को उससे जोड़ना. इनमें यह सब है और सबसे प्रिय है भोजपुरी मानुख की संवेदना से लबालब, निष्कलुष मन, जो सबमें अपनत्व बाँटना चाहता है, जीवन को सौन्दर्यमण्डित करना चाहता है. ये बोलती बतियाती गजले हैं, आप इनका स्वर, इनका कोलाहल, क्रन्दन, हास-उल्लास सुन-देख रहे हैं न? इनके साथ-साथ जीवन की यात्रा बेहतर भविष्य की खोज में तब्दील हो सकती है.

शुभेस्तु पन्थानः.


"हरसिंगार", ब/एम-४८, नवीन नगर, मुरादाबाद ‍ २४४००१