उजियार

डा॰ अशोक द्विवेदी

एक

अलसाइल अन्हुवाइल
उनीने देखीले
कवनो ढीठ, मनसोख लइका अस
खिरिकी आ दरवाजा के
फँफरा से झाँकत
ढुकिये जाला अँजोर
घर में.

लाख झनकी, पटकी भा भुसुराई
कहाँ मानेला नटखट
छूवत फिरेला अलमारी पर धइल
किताब-कापी
मेज के कागज, कलम
जरूरी चिट्ठी
हेरत फिरेला कोना-अँतरा
बेमसरफ के चीझु.
तनिके देर बाद
छिटा जाला रोशनी के लावा
हमरा चाररू ओर!
बन्न कमरा खोलि के बहरा निकलला प
पता चलेला
कि दिन निकलि आइल.

दू

दलान में
खुशी के खरिका खरकावत
चोंच से सरिया-सरिया रोशनदान प बिछावत
गिहथिन चिरई के देखि के
थपरी बजावत
फुदुकत किरिन अस आवेले दबे पाँव
हमार नन्हकी
खटिया क पाटी ध के धीरे-धीरे घुसुकत
छाती पर चढ़ि जाले.
फेरू धीर-धीरे हमरा चेहरा पर
अँगुरी फिरावत
मोछी के बार खींचत हुनुकेले.....
'उठऽ ना पापा
सबेर हो गइल!'

जब कबो निराशा के
घन करिया बादर
घुमड़ेलन स हमरा आँखी में
उमेद के एगो हलुके लकीर खीँचत
उभरि आवेला उजियार
आँखि में हमरा नन्हकी के
जवन तोतलात, कथत
छीट देले अपना उज्जर दाँत के
खिलखिलात अँजोर
हमरा चारु ओर!