सतुइया रे

डा॰कमल किशोर सिंह

सतुइया रे ! तोर गुन गवलो ना जाला.
सस्ता, सुबिस्ता, स्वस्थ, स्वादिस्ट बुझाला.
सतुइया रे ! तोर गुन गवलो ना जाला.

जौ, बूंट, मटर अन्न अलगे भुँजाला,
सोन्ह गंध भावे एके संगे जब पिसाला,
चौका बरतन नाहीं चाहीं, गमछो में सनाला,
सतुइया रे ! तोर गुन गवलो ना जाला.

गाँव-शहर, हाट-बाट, तीर्थो में भेंटाला,
धरती बने तावा चाहे गगन गुड़गुड़ाला,
मजदूर किसान के कलेवा ई सोहाला,
सतुइया रे ! तोर गुन गवलो ना जाला.

खाए राजा भोज कभी, रोज गंगू तेली,
नून मिरचाई चाहे संगे शुद्ध भेली,
जेकरा जवन जूरे, सभकर जियरा जुडाला,
सतुइया रे ! तोर गुन गवलो ना जाला.

छुधा तृप्त होते तन में ताकत आ जाला,
काम के पहाड़ जइसे ढेला बनि जाला,
सात्विक ई राजसी कि तामसी कहाला,
सतुइया रे ! तोर गुन गवलो ना जाला.

तोहरे से देशवा के खेत लहराला,
कल-कारखाना, सड़क, बिल्डिंग पिटाला,
अन्न-धन भरे राजमुकुटो धराला,
सतुइया रे ! तोर गुन गवलो ना जाला.


रिवरहेड, न्यूयार्क