आवऽ लवटि चलीं जा! -2

डा॰ अशोक द्विवेदी के लिखल उपन्यास अँजोरिया में धारावाहिक रुप से प्रकाशित हो रहल बा.

दूसरका कड़ी

बरिस-बरिस के तिहुवार ह फगुवा. बेयार डोलत कहीं कि लइका-छेहर, बूढ़-जवान सभका पर फगुनहट चढ़ि जाला. दस दिन अगहीं से भरबितनो रँगे-रँगाए सुरु क दिहन स. ननद-भउजाई आ देवर तिनहुन के रोआँ-रोआँरंग बरिसावे लागी.लसोर तिरिछी नजरि डोले लगिहें स आ अब्बर-दुब्बर करेजा में गड़ि के करके लगिहें स. फेरु अस मीठ दरद ठी कि बुढ़वामंगर बितलो पर बेचैन करी. ई बेचैनी तब अउरी बढ़ि जाई जब पहिल प्रेम के दरियाव भीतर उमड़त होखे.

तेहू में ओह दिन फगुवा अपना पूरा रंग में बलुआ गाँव पर चढ़ि गइल रहे. घर-आँगन-दुआर, खेती-खरिहान चारु ओर रंग बरिसत रहे. किसिम-किसिम के रंग. छोलक झाल का संगे होहकार मचावत नवछेड़ियन के गोलि चउधुर का दुआरे पहुँचल त लम्मे भइल चउधर टोकलन, '‍बड़-बूढ़ देखि के रे बचवा!' फेरु लड़िकन के लकुराध से कुछु डेराइले उ ओसारा का ओर जाए लगलन. उनका हाथ में गुड़गुड़ी रहे. करीमन काका चउधुर के पुरान सँघतिया रहलन. चउधुर के घसकल देखि के, एगो लइका का हाथ से रंग के बल्टी झपटलन आ कल्ले-कल्ले धवरि के चउधुर का पीठी भभका दिहलन. हल्ला मचि गइल. चउधुर अनखाइले कुछु कढ़ावहीं के रहलन कि करीमन काका नौछेड़ियन के उसुकावत पिहिकारा छोड़ि दिहलन -

फागुन में,
फागुन में बूढ़ देवर लागे,
फागुन में....

ढोल धिनधिना उठल. झाल झनझनाए लगली स. करीमन के कर्हियांव लचकावल देखि के चउधुरी के खीसि बुता गइल. उ ठहाइ के हँसि दिहलन. ठेका टूटल देखि के करीमन काका नौछेड़ियन के ललकरलन, 'जवनिये में मुरचा लागि गइल का रे?' ई बाति बीरा अस नवहा के छाती में समा गइल. उ झपटि के आगा कूदल, 'अ र् र् र् कबीर ऽऽ....!' कवाँड़ी के पल्ला तर लुकाइल फँफरा मुहें झाँकत पनवा के हँसी छूटि गइल. अभिन त रेखियाउठान रहे बीरा के. गोर गठल सरीरि. सुन्नर सुरेख चेहरा. गाले ललका रंग. नवहन का गोल में उ लचकि-लचकि के गावे सुरू क देले रहलन .......

केकरा हाथ कनक पिचकारी
केकरा हाथे अबीर?
अरे केकरा हाथे अबीर!
राधा का हाथ कनक पिचकारी
मोहन का हाथे अबीर!

गावत-बजावत हुड़दंग मचावत नवहन के गोलि आगा बढ़ि गइल. बीरा के गवनई आ मस्त थिरकन पनवा का आँखी समा गइल. कल्पना का सनेहि से ओकर मन गुदुराए लागल. बाकि बाप के दुलरुई आ मुहलगुवी पनवा के गोड़ लाजि बान्ह लिहलस. बहुत देरी ले कँवाड़ी के पल्ला धइले ठाढ रहि गइल. बेहोसी में ऊ चलल चाहे बाकि ओकर डेग ना आगा जाव ना पाछा. अजब हालत हो गइल रहे पनवा के.

गाँव घुमरियावत दुपहर भइल. गोल फूटे लागल. बीरा सोचलन कि एही पड़े नहइले चलल जाव. गंगाजी नियरहीं रहली. उ अपना सँघतिया से सनमति कइलन. सहुवा किहाँ से उधारी साबुन किनाइल आ खोरी-खोरी, हँसत बतियावत चल दिहल लोग. बीच-बीच में बोलबजियो होत रहे.

चउधुरी के दुअरा, इनार पर मेहरारू ठकचल रहली स. बेदी के हेठा घोरदवर मचल रहे. निहुरि के कनई उठावत पनवा के नजरि बीरा पर गइल. दूनों जना के नजर मिलली स. पनवा लाजे कठुवा गइल. बीरा के आँखि कनई से होत-हवात पनवा के दहकत गाल पर ठहरि गइल. पनवा के थथमी टूटल. उ लजाते-लजात कनई उठवलसि आ छपाक से एगो मेहरारु पर दे मरलसि. मेहरारु पाँकि में पूरा सउनाइल रहे. उ हँसत झपटल त पनवा फट से फेरू निहुरि गइल. बीरा एह चंचल उफनत रुप के इन्द्रजाल निहारे में भुला गइलन. उनुका आँखि के तार टूटे के नांवें ना लेइत, अगर उनुकर सँघतिया ना टोकित, ' का हो, डेगे नइखे परत का?'

बीरा चिहुँकि के चाल त तेज क दिहलन, बाकिर उनका भितरी पनवा का ललछौंही गोराई के चंचल छवि किलोल करत रहे. रहि रहि बेचैन करत रहे पनवा के लसोरि मीठि चितवन.

रंग धोवाइल, रंग चढ़ल आ अइसन चढ़ल कि बीरा डगमगाए लगलन. भाँग के नसा में बारह बजे राति ले गवनई कइला के बाद जब ऊ घरे पहुँचलन त निखहरे खटिया पर फइलि गइलन. आँखि मुनाइल रहे बाकिर कनई उठावत, निहुरल पनवा के समूचा देंहि के उमड़त यौवन उनका सोझा देरी ले थरथरात रहे. बीरा हहाइल-पियासल आँखि का अँजुरी से ओह उमड़त सुघराई के पीए लगलन. पियते पियत कब दूनी भोर हो गइल आ कब उ नीनी गोता गइलन, पते ना चलल.

घाम भइला, जब भइजाई झकझोरलसि त नीनि टूटल. 'का हो बबुआ राति ढेर चढ़ि गइल रहुवे का? कब आके सूति गउवऽ? कुछु बोलबो ना करुवऽ. हम खाएक ध के राति ले अगोरत रहुवीं.' बीरा मुस्कियात बोललन, ' सांचो रे भउजी? केवाड़ी त बन्न रहुवे?' आ ठठाई के हँसि देहुवन. भउजाई लजा के भितरी भागि गउवी. बीरा देरी ले मुस्कियात रहुवन.