आवऽ लवटि चलीं जा! -8

डा॰ अशोक द्विवेदी के लिखल उपन्यास अँजोरिया में धारावाहिक रुप से प्रकाशित हो रहल बा.

अठवाँ कड़ी

सबेरे होखते सेठ का बइठका में बीरा के बोलाहट भइल. उहे पूछ ताछ, ऊहे जवाब. बाकि बीरा ए बेरा ना सकपकउवन. ऊ साफ साफ साँच कहि दिहुवन. सेठ पर ओह सफाई के कवनो असर ना भउवे. उ आपन दू टूक फैसला सुना दिहुववे. बीरा के ई उम्मेद ना रहुवे कि सेठ अतना कठोर होई. उ गिड़गिड़उवन बाकि सेठ टस से मस ना भउवे. "एक हप्ता के टाइम बा! तूँ जल्दी से जल्दी आपन बेवस्था क के ईहां से चल्ता बनऽ. तोहार हिसाब परसो मुनीब क दीही". ऊ भारी मन लेले अपना कोठारी का ओरी चल दिहुवन.

बीरा के अलम टूटल त सँघतिया कौलेसर किहां सरन लिहलन, फेरु जवन फिकिर कपारे चढ़ि के, भीतर का काँवर पिरीत के असमय झांवर क देले रहे ऊ मोका पावते अवरु चाँड़ हो गइल. सबेरे के निकलल डगडग मारल फिरसु बीरा. बाकिर नोकरी मिले त कवना सोर्स कवना विश्वास पर? बहुत कहला सुनला पर कौलेसर के मालिक साहब उनका के आपन दरबान बनावे पर राजी हो गइल. नोकरी पर जात खानी कौलेसर समझवलन, "सँघतिया, दुनिया देखावटी इमानदारी आ देखावती करतब खोजेले. एक जगो त भुगत चुकल बाड़ऽ, सोच समुझि के ेकान से रहिह." बीरा संघतिया के सीखि खूँटा गठिया लिहलन आ नवका सेठ के दरबार धइलन.

नवका सेठ बड़ा रंगीन तबियत वाला रहे. साहखरच आ फितरती. बड़े बड़े साहब सुबा ओकरा किहां जुटसु. अंगरेजी शराब के बोतल खुले आ किसिम किसिम के भोजन तइयार होखे. बीरा भड़कलन बाकि संघतिया के सीखि मन परि गइल. सेठ का सहर में कई गो माकन रहे. अदमियो जन के कमी ना रहे ओकरा. चाह के दू गो बगान ओकरा पस रहे आ चाह तइयार करे वाली फैक्ट्री. ओहि किहां बीरा काम करे लगलन.

सुरु-सुरु में सेठ के रंग-रोआब से बीरा भले कुछ भबतल होखसु, बाकि अब उनका एकर रपट परि गइल रहे. रोज खाइ-पी के संझिए खान अपना ड्यूटी पर हाजिर हो जासु. दिन का ड्यूटी पर दूसर दरबान रहे. बीरा के ड्यूटी सांझिए लागि जाव. ई बात दोसर रहे कि एइजा तनखाह अधिका मिले.

अपना चुस्ती आ फुर्ती से, बीरा के सेठ के विश्वासपात्र बने में देरी ना लागल. सेठ बाहर जाव त उनका उपर पूरा जिम्मेवारी डालि जाव.नतीजा ई भइल कि बीरा के कबो कबो दिनवो के मोका ना लागे कि कोठारी में जासु. कतने बेर ऊ आवे जाए वाला लोगन के मेहमाननवाजी आ सवाल के जवाब देत-देत अउँजा जासु. कबो-कबो उनके बख्शीश में पचीस पचास रुपयो भेंटा जाव. सेठ के दाई उनके पछिला-पछाड़ी बइठा के खिया पिया देस.

उनकर एह डयूटी से पनवा बहुत खुझे. अकेले ओकर मन ना लागे. बइठल-बइठल बीरा के बाट जोहल करे आ उनका बारे में सोचते सोचत ओकर मन रोवाइन हो जाव. परदेश में बीरा के छोड़ि के ओकर दूसर के रहे आपन? उदासी जब चँपलसि त ओकर रौनक उतरि गइल. नेह का संगे-संगे देंहि झँवाए लागल. उ बइठल बइठल सोचे..." हे गंगा माई! इ कइसन परिच्छा ले ताड़ू? गाँवे रहली त गांव-घर, कुल-परिवार आ समाज के भय से कुहुंकली आ जब एके लग्गे रहे के मोका आइल त बतियावहूं के मोका नइखे भेंटात."