आवऽ लवटि चलीं जा! -9

डा॰ अशोक द्विवेदी के लिखल उपन्यास अँजोरिया में धारावाहिक रुप से प्रकाशित हो रहल बा.

नउवाँ कड़ी

एक दिन, दुपहरिया में, जब बीरा अपना कोठरी का आगा परल बेंच पर ओठँघल सूति गइल रहलन, कौलेसर आ गइलन. पनवा दुआरी पर बइठल का जाने कवना सोच में डूबल रहे. कौलेसर का खँखरला पर जब ओकर नजर उठल त जइसे आँखी में खुशी के फुलझड़ी छूटे लागल. हड़बड़ाइ के उठल आ कोठारी में से एगो स्टूल लिया के बहरा ध दिहलस. कौलेसर बीरा के झँझोरि के जगा चुकल रहलन. बीरा का बगल में बईठत कहलन, "गाँवे गइल रहनीं हाँ. पूरा आठ-दस दिन रहि के आवत बानी!"

- "बाबू जी ठीक-ठाक बाड़न नऽ!", कटोरी में मिसिरी आ लोटा के पानी स्टूल प धरत, पनवाँ अकुताइल पुछलस.

- "ठीके बाड़न, आरे एघरी तोहरा काका आ भतीजा लोग उनका के देखत-भालत बा. ऊहे लोग खेत-बधार से लेले गोरु-बछरु कुल्ही सँभरले बा."

- "जवन सँभरले बा लोग, तवन भगवाने जानत होइहें. कइसन बाड़न बाबू? ढेर दुबराइल बाड़न?" पनवाँ के गला भरि आइल.

- "कहत न बानी कि ठीक बाड़न". कौलेसर पनवाँ के ढारस देबे खातिर अपना बात पर पूरा जोर देत कहलन.

- "आ हमरा भइया-भउजी से भेंट ना भइल हा? ऊ लोग जानत बा कि हमनी का एइजा बानी जा." बीरा जइसे कूल्हि समाचार एक्के बेर जान लिहल चाहत रहलन.

- "ठीके-ठाक बा लोग, तहन लोग के गाँव छोड़ देला से नाराज आ दुखी बूझाइल लोग. तोहार भइया जरुरे कुछ परेशान लउकलन. तोहन लोग के खिस्सा सुनाइ के बतावे लगुवन कि केंतरे उनका दुआर पर कई दिन ले बलुआ के लोग उपदरो कइले रहे. ई त अच्छा रहे कि उनका तोहन लोग के पता-ठेकाना मालूम ना रहे, ना त जेंतरे ऊ बतावत रहुवन, चउधरी गाँव-जवार के लोगन का सँगे एइजा चलि आइल रहतन."

बीरा के मुँह लटकि गइल रहे. मूड़ी नीचे कइले फिकिर में डूबे उतराए लगलन.

- "पहिले पानी पी लेबे दऽ इहाँ के, त फेर जवन बुझाय पूछिहऽ.", पनवाँ बोलल.

कौलेसर जब पानी पी चुकलन त मूड़ी लटकवले बीरा के बल देत कहलन, "लोगन के त काम बा कहल-सुनल. तोहन लोगन के आपन रस्ता अपने तय करे के बा. हँ हम अपना बाबू जी के जरुर बतउवीं कि तोहन लोग एइजा बाड़ऽ जा आ ठीकठाक बाड़ऽ जा."

- "का? तब त जुलुमे बा!" बीरा के बेचैनी अउरी बढ़ि गइल.

- " अरे मरदे, आखिर कबले केहू ना जानी? कबले भगोड़ा बन के रहबऽ एक न एक दिनत सब जनबे करी! आ हमार बाबू जी बहुत धीर गम्हीर आ समझदार आदमी हउवन. उनके असलियत के मरम खूब नीक से बूझाला!"

- "जनला का बाद हमहन का बारे में कुछ कहतो रहुवन?" पनवाँ निखोरत पुछलस.

- "हँ, इहे कि तोहन लोग कवनो पाप नइखऽ जा कइले. एक दोसरा के चाहल आ निबाहल कवनो पाप ना हऽ. अगर पनवाँ के बाबूजी दुनियाँ के परवाह ना क के तोहन लोग के बियाहे क देले रहतन त ई नौबते काहें आइत? तोहनो लोग के भलाई भइल रहित आ ऊहो आज ठीक ठाक रहितन. इनकर काका आ पितिआउत भाई लोग के जरुर घाटा होइत."

- "अब त फायदा होत बा नऽ! हवेखते बा लोग. पहिलहूँ ऊ लोग इहे चाहत रहे कि कइसे हमार बिदाई होखे आ कइसे बाबू का खेत पर ओह लोगन के कब्जा होखे." पनवाँ अपना मन के उदबेग खोलि दिहलस.

- "अउर सब घर पलिवार मजे में बा लोग नऽ?", बीरा पुछलन.

- "हँ भाई सभे मजे में बा. हमार पूरा घर-पलिवार तोहन लोग का सँगे बा. साँच के आँच का? बाबू कहत रहुवन कि धीरे धीरे सबका एक दिन तोहन लोग के कबूलहीं के पड़ी."

कई महीना से गांव-घर से उखड़ल, लांछित-अपमानित पनवाँ का हिरदया के कुछ शांति मिलल. परदेस में अकेल रहत रहत उदासी ओढ़े-बिछावे के लकम धरा गइल रहे. अपना अँगना-दुआर आ सिवान में चहकत-उड़त रहे वाली चिरई इहाँ पिजड़ा का भीतर छटपटाइ के रहि जाव. अइसन ना रहे कि ओके गाँव घर के इयाद ना आवे, बाकि इयाद आइये के का होइत?

कौलेसर घंटा भर रहलन. बहुत बतकही भइल. बहुत बादर छँटलन स. जात जात ऊ बीरा से कहलन, "गाँव मे लवटे आ रहे खातिर अपना के कूल्हि बिरोध, अपमान, तिरसकार, आ लड़ाई खातिर तइयार करे के परी. तोहके आजु से ई गँठियाइ लेबे के चाहीं." बीरा के उनका एह उछाह भरल सीख से बहुत अलम, बहुत बल भेंटाइल.