तन कातिक, मन अगहन

परिचय दास

बात में क्रमबद्धता होखे के चाहीं.
सो, भारतीय मनीषा के सम्मान करत
प्रारम्भ आषाढ़ से करीं.
तेलुगु के प्रसिद्ध कवि आचार्य रायप्रोलु सुब्बाराव के
एगो कविता के भावार्थः

"अकाश में करिया-करिया बादर
एन्नी-ओन्नी मड़रात हवें,
मानो असाढ़ कन्या के अलकजाल के
सुहावनी लट
झटका खा- खा के डोल रहल बाड़ीँ.
वोह लटन के आड़ में
परि जाए के कारन पूनम के चनरमा के
मुखमण्डल रहि-रहि के
छिप जाला.
तमाल के वृक्ष तऽ अइसन
लग रहल बाड़न
जइसे सगरो दिशांचल में बिखर गइल होखे नीलम के हार.
बादर घुमड़ रहल हवें
आ ओकर छाया
धरती पर पड़ रहल बा.
उनकर श्याम कलाप-समूह पर
आपन दीठ गड़वले मोर
भावविह्वल होके मानीं
केवनों अपूर्व सुख के
हिंड़ोला पर झूल रहल बाड़न.
लगेला, जइसे उन पर कवनो
उन्माद छा गइल बा.
मोरवन के कलाप
देखते-देखत स्वयमेव खुल गइलें.
उनकर ई नृत्योत्सव तऽ
आज हमनी के नेत्रोत्सव बन गइल बाड़न
आ सागर के गर्भ से
झुण्ड के झुण्ड निकरि के
अपना दुर्दान्त गर्जन-तर्जन से
दिशा के कँपावत
ये बादर उमड़ि-घुमड़ि के
एह तरह से चलत जात हवें
मानीं विप्रलंभ के फंदा में
फँसा खातिरे
कौनो नवयौवना की उमिरी में
खौलत दूध नियर
तेजी से उफान आ रहल होखे !"

विप्रलंभ के फंदा !
का खूब कहलें कवि !!
ई फंदा कातिक-अगहन आवत-आवत
आउर मारक बन जालाः

"प्रथम मास आसाढ़ ए सखि, घेरि अइले जलधार हो.
हमहूँ विरहिन दुःख में बूड़ी, केहू ना करे उपकार हो.
सावन ए सखि देव बरिसे, गरज के डरवावहिं,
चहुँ ओर पपिहा, मोर बोले, बेंग सबद सुनावहीं.
भादों गगन गम्भीर ए सखि ! घेरि अइलें जलधार हो,
बालम मोर विदेस गइले, केकरा सरन में जाइं हो.
कुवार ए सखि ! आस लागे, जोहीं पिया के बाट हो,
लोभी कंत विदेस गइले, भोर भइले भिनुसार हो.
कातिक कंत बिदेस ए सखि, पिया जे रहिते साथ में,
दुःखसुख सब संग कटितौं, दिया बरितौं अकास में.
अगहन ए सखि ! बेइल फूले, अवरू फूलेला धान हो,
चकवा चकई केलि करेला, सरवर मँझधार हो."

ई क्रम आगे बढ़ल जाता,
किन्तु हम तऽ विरहिनी से कहब
कि ऊ धीर धरे.
ऊ हऽ कि धीरे ना धरे.
बैसाख में "ओसे"
भेंट होला.
गर्मी में ऊ देंह पर
करेले चंदन लेप
कि ऊ लउक जाला.

नायक के अनुपस्थिति में
नायिका गाँव-जवार
प्रकृति‍परिवेश के देखि
करेले संतोष
आ योजना बनावेले बरिस भर के
कि "ऊ" होत तऽ का-का करित
ओकरा साथे ?
कातिक में प्रिय होइत
तऽ दिया जराइत अकास में.
अगहन में ओकर मन
फुला जात बेइल नियर
आ महक जात धान नियर.

भारतीय परंपरा में
दीया जरावल हऽ युग्म-संपृक्ति.
दीया में होली दुइ गो बाती.
आजु जब हम देखीले
लट्टू बलफ के तऽ
हमरा होला महसूस
कि ओकरा रोसनी चाहे जेतना तेज होखे
चुँधिया देले.
ओमे ऊ आत्मीयता कहाँ
जवन होले एगो अदना दीया में.
दीया के हल्लुक-हल्लुक, मद्धिम-मद्धिम
लौ में होला कौनो अनकहल गंध
जवन माटी के बरतन
आ तेल के कारन
उत्पन्न होला.

का कहल जाव बेइल का बारे में ?
ओकरा बारे में तऽ
प्रसिद्धे बा :
"बेला फूले आधी रात."
अब केहू पूछ सकेला केहू ललित ढंग से
कि ऊ काहें फूलेला आधि रतिए में ?
ई हमनी के संजोग के पल के
अउर सार्थक आ कोमल बनावे खातिरे
होई फूलत - अइसन सोचीलाँ.
बेइल एगो छोट, नान्ह-नान्ह पुष्प हवे.
ऊ शक्ति भर मँहकेला
आ हमनी के कइल जाला अभिसार.

हमनी के जिनिगी के कोमल-प्रसंग
सुलभ ना होलें अतना असानी से.
ऊ कठकरेजी दुनिया के
भालें ना बहुत.
आखिर कारन का हऽ
कि प्रेम कइल आसान ना.
यदि रउवाँ कर रहल हईं प्रेम केहू से
तऽ आज की दुनिया में
जरि रहल बानी एगो जरत भट्ठी में.

हमनी के आपन रागबोध
जी पावल जाला केतना -
ई अनुभूति से
लगावल जा सकल जाला पता.
प्रेम के सत्ता शब्द के अलावा भी होले.
कब्बों-कब्बों बिना कहले
कहि दिहल जाली सगरो बाति.
हमनी के जीवन में
जवन कुछ उद्दात, ललित आ शुभ हऽ
उतरि आवेला प्रेम में.

कातिक-अगहन में
हमनी के घर भरल होलें अन्न से.
लछिमी के वास होला.
गाँवन में कृषि-संस्कृति के रूप
बदल रहल बा अब.
कृषि अब इच्छापूर्वक कइल जाएवाला
ना रहल व्यवसाय.
खाद के दाम से लेके
अनाज तक के बिक्री में
जवन कठिन मार परेला कृषक पर -
ऊहे जानेला.
कठजङरई के भरोसे
जवन अन्न मिलेला
तवन मिलेला.
ईहे कारन हऽ
कि गाँव-जवार के लइको
भाग रहल बाड़न सहरी में.
तऽ सहर आ गाँव के बीच
चल रहल बा षगो अघोषित लड़ाई.
कौनो समाजशास्त्री कहले बाड़न
कि सहर अमूमन
माध्यम हवें शोषण के.

भारत माता
बाड़ी ग्रामवासिनी.
अब ऊ ब्लैक-मार्केटियरन के हाथ में
फसल बाड़ी सहर में.
एह कालाबाजारियन के बहुराष्ट्रीय कंपनियन से
चलेला आँख मिलउवरि.
हमरा अनुमान बा
कि यदि अइसहीं देस के धन
विदेसी कंपनियन के हाथ के खिलौना
बनल रहल
तऽ एगो नई आर्थिक संस्कृति पर
पुनर्विचार हो जाई आवश्यक.

एगो समूचि सजिश के तहत
देस के कातिक आ अगहन के बेचला के
हो चुकल बा तइयारी.

एगो जमाना रहे कि
लोग गर्व करे स्वदेशी चीज पर.
अब "फारेन" के नाम पर
चल सकेला कुछ भी.
भारतीय महीनन के नामे इयाद ना रहेला
न भारतीय संवत के वर्षांक.
लइकन के उपनाम अइसन धराला
जेम्में पुरहर ब्रिटिश संस्कृति के
आवेले चकाचौंध.

कातिक में कूटल जाला चिउरा महकउवा धान के
त लगेला बड़ा निम्मन.
कुछ लोग करेला ओकर पारन दही से.
चिउरा-दही में गुरओ होखे
तऽ का कहे के बा.

चिउरा कूटत
रउवाँ देखले होखब कुछ गाँव के नवहर लइकियन के.
जब ऊ कूटेलीं
तो लउकेले लयबद्धता उन्हनीं में.
ई लयबद्धता जइसे कातिक आ अगहन के
होखे जुगलबंदी.
बड़े भोरहीं अगहन
जइसे राग छेड़त होखे.

नायिका के मन
लागल बा प्रियतम में.
प्रियतम छली अबहीं लौटते नइखे.
नायिका के तन-मन रीत रहल बाड़न
जइसे कातिक आ अगहन बीत रहल बाड़न.

- परिचय दास