उदय शंकर “प्रसाद” के कविता – बखारी, मजबूरी

(1) बखारी

बास के चचरा गोल गोल मोडाईल
ऊपर से खरई सरिया के बंधाईल
माटी के लेप चचरा पे लेपाईल
बखारी के रूप लेके खड़ियाइल

फिर टीका लगल अगरबत्ती बाराईल
साल दू साल ला अनाज ठुसाईल
दुआर के शोभा सम्मान कहाईल
लोग के धन बखरी से गीनाईल

जेके दुआर पे जेतना बखारी
ओके इज्जत ओतने ओतना ठुमकारी
जमीन जायदाद के अंदाज बतावे
ज्यादा रखले पे लोग धनिक कहाये

आज ऊ बखारी कहवा भुलाइल
सऊसे दुआरी छोटे में समाईल
खेत के अनाज अब दोकान पे बेचाईल
बखारी के नाम जड़ से ओराईल l

(2) मजबुरी

आज ऊ फिर रोअत रहे
जाने ऊ कवन दुख ढोअत रहे
का समय ओके मरले रहे
या दुनिया से धोखा खइले रहे

आंख से आंसु झर झर बहे
चेहरा ओके बहुत कुछ कहे
का तन्हाई के गम खइले रहे
जाने ओके कवन दुख धइले रहे

का ऊ अपना से रहे मारल
या रहे ऊ भुख से हारल
का ओके कुछ रहे भुलाइल
आखिर काहे आसूं आइल
जाने कवन चीज ऊ खोजत रहे
आज ऊ फिर रोअत रहे

ना देह दिल से ऊ रहे आपहीज
कुछ जरूर भइल रहे नजाईज
फूट फूट के ऊ रोअत रहे
ना कुछ केहू से कहत रहे

आंसू गिरे जईसे होखे बरसात
ना बिजली न गर्जन के साथ
जाने कवन खुशी ओके रहे छिनाईल
आज ओके अईसन घड़ी रहे आईल l

– उदय शंकर “प्रसाद”
पूर्व सहायक प्रोफेसर (फ्रेंच विभाग),
हिंदुस्तान कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड साइंस, तमिलनाडु

 

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