‘कथ’ आ शिल्प के तनाव में अर्थ के ‘लय
  • डॉ. उमाकान्त वर्मा

(अपना कवनो परिचित-अपरिचित, बोझिल स्थिति से उकेरल प्रभाव के मानसिक दबाव के महसूस करीले त हमार सृजन प्रक्रिया सुगबुगाले। ई दबाव कथ आ शिल्प दूनों में होला आ तबतक होत रहेला जबले ऊ मूर्त होके अभिव्यक्त होखे खातिर बेबस ना कर देव। दूनों के बीच के द्वंदे सायद हमरा मानसिक तनाव के जनम देला जेकरा के पूरा अभिव्यक्त करे का चेष्टा में हम अभिव्यक्ति के नया आयाम खोजत रहीले। एह खोज में ‘लय’ हमरा के सृजन पीड़ा से छुटकारा दियावेला।)

(एक)
हउवा के सीढ़ी से उतर
रोजे चाँदनी जइसन सरके
जन-जन के कंठ से बोले वाली
ए श्वेतवसना आवऽ
तू आवऽ.
आज हमरा मन के गाँव में
कउनो मीर कासिम के करिया चदरा
गिर गइल बा.
आज हमरा मन के मंडप में
कउनो फरहर सोनहुला केस वाली उरबसी के
बोल कजराइल बा
आज हमरा मन के समुन्दर में
करिखा लिपाइल पोताइल कउनो मल्लाह के
नाव आके लाग गइल बा.
अइसन समय/‘प्रज्ञा’ के दियरी जरा
‘बोधिसत्व’ के किरिन फेंक आवऽ,
तू आवऽ,
ए श्वेतवसना, तू आवऽ.

(दू)
अनचिन्हार जंगल के
बीच से ससरत, काँपत
टेरत हम ऊ डँड़ेर हईं
जे आँसू बोथाइल आँखि से
हर पल दिसा हेरत रहीले.
हमहीं कुन्ती, सीता अउर राधा हईं
जे अपना कोखि में
सरापित जुग के डोर पर
थिरकत मुसुकी छीटत रहीले.
हमहीं लेके अन्हरिया से अँजोरिया
कटोरा भर चंदन छिरिक के
अँचरा पसारत/नेह-दान देत रहीले.
सिकाइत तोहरा से नइखे
ऊ लोग से बा
जे हमनी के कुँआर सोहागिन बनावेला
आ कबहूँ
कवनो दुःसासन अइसन
कोलाहल का बीचे हमनी के/लँगटे करत
परत-दर-परत उघारत
ठठात हँसेला.
अब हमनी के भठ्ठी हो गइल बानीं
आ एगो आगि के लौ
जेके तोहरा अस लोग
नीबू अइसन निचोड़ के
अपना खुर्दुरा तरहत्थी में मींसि के
कवनो घूरा पर
कबहूँ कतहीं ना फेंक सके.

(पाती ”कविता विशेषांक“, सितम्बर, 1993 से)

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