गाँव के कहानी (3)

डा॰ अशोक द्विवेदी

कवना अँतरा समा गइल,
मिलि-बइठि के गावे वाला
लोग आ लोकराग ?
कहवाँ लुका गइल
चइता, कजरी आ फाग ?
फिल्मी लागऽता मनभावन
ना त फूहर कैसेट से हो ता मनसायन
नवहा त नवहा,
ठावाँ ठई
बुढ़वो मूड़ी डोलावत बाड़न सऽ !

फूटल ढोल पिटला से का फायदा
टूटल झाल के सरिहावो ?
भलमनसाहत, प्रेम आ उल्लास के गीत
के गावो ?
केहू के गर बाझल
केहू के चउंड़ चरचराता
अपना-अपना जवाले में लोग परेशान, हलकान
रेवाज आ रसम
केनियो मोरी में बजबजाता !
टेंगर बढ़ई गाँ छोड़ शहर चलि गइले
रज्जू नाऊ खोल लिहले सैलून
गजाधर लोहार के हो गइल
कस्बा में दोकान
चतुरी कोंहारो के नइखे फुरसत कि चाक चलावसु
गर्मी में गढ़सु घइली आ मेटा
मटिकम छोड़, उनकर बेटा
करेला रोजगार सप्लाई के
चतुरि जोरेले हिसाब
ओकरा अनाधुन कमाई के
शहर में बाटे ओकर दोकान
प्लास्टिक वाला कुल्हि चीझु ओइजा बिकाला.
अब त परई आ भरूका क नांव लेते
चतुरी बो गुरमुसा जाली
कवन कमी बा हो,
कि हम मटिकम करीं ?
संग संग चनरबो कढ़ावेली त
टेढ़की टिसुरीबो घोंटावेली
“हँ हो बहिनी
हमन केकरा ले बाउर ?
अरे, तहरा जमीन बा
त हमरा जांगर बा, नोट बा
बस एगो जतिये नु छोट बा !”
तरमस के रहि जाली ठकुराइन
ठाकुर हो जालन सुन के बहिर
आपन पुरान चश्मा कान पर सरिहावत
बाँचे शुरु कर देलन
पाँच दिन पहिले के पुरान अखबार.
अदब लेहाज गइल
फूहर पातर सुनियो के
महटियवले में भलाई बा !

नीमन नीमन चीझु लेखा
नीमन लड़िकवो शहर चलि गइलन स
रहि गइलन स बुड़बक, भकोल
ना त टेढ़ुवा तिरछोल
बनि गइलन सऽ चट्टी के चंडाल
पोसुआ ठीकेदार, ना त गँवई मोख्तार.
केहू के केहू से बझा के,
उल्लू सीधा हो जाय, बस
सझुरावल त दूर, अउरी अझुरइहन स
बात सुनऽ एक लाख क
लज्जत दूइयो पइसा के ना !

मौसम के मनमिजाज बुझाते नइखे
ना ऊ धरती, न अकास
सबका भीतर बढ़ल जाता अउरी
खुदगर्जी आ अविश्वास !
शिवाला ढ़हत बा
चउपाल चुवत बा
गीत गवनई के चउतरा धँसि गइल
मिठका पानी वाला लाला के इनार
कहिये भँसि गइल.
अब घूमेली स सभत्तर
दूबर दुसाध के सूअर
घुमरियावत रहेलन स
नेउर धोबी के गदहा
अतना मइला कि राम राम
महिनका कहाये वाला लोग
ओने झाँकियो ना पारे.

शहर बनत बनत गाँव
बहुत पाछा छूटी गइल
ढेर तेज चले का चक्कर में
ओकर भुभुन फूटि गइल.
कहे के त इहवाँ सब कुछ बा
बाकि कुछुवो नइखे,
कुच्छू नइखे जवना प सब अँड़िचे
आ गरब करे !
कुच्छू नइखे जवना प
लोग सबुर करे !
गाँव सँवारे वाला मुखिया परधान
के अचके बढ़ि गइल बा चमत्कारी ज्ञान
निधियन के रूपिया से
जागि उठल बा अउरी अभिमान
नया योजना, नया इस्कीम
दिन पर दिन बरियारे होतिया ओकर टीम
ऊ हर तरह के मैच खेलेला
आ केहू के हरा देला.

साँझि खा गर्दा आ धुआँ में
जब अलोपित होला डूबत सूरुज
त बुधना पासी के लबनी
तरकुल से उतरला का पहिलहीं
भिनभिनाये लागेला मधुमाछी अस लोग
जवाहिर रोजगार का खँड़जा पर
ओउसा जो ना भइल तिरपित
त मोड़ पर कर्रा सिंह के भट्ठी बा
पाउच लिही आ भासन दीही
भर हीँक देई गारी, मतारी बाप दादा परदादा के
फेरू खोज ली कवनो बजबजाइल नारी.
रोज गदबेरा में
गाँव के बहरवार
हर निकास पर
टकटकी बन्हले
जोहेला गाँव, मुलुका मुलुका के आँखि
कि कब अइहें रामजी, सिरीकिसुन, लछुमन
कब अइहें खुदाबक्स, नजीर आ घेंटा चमार
गावे गवनई, बजाये हरमुनिया ?
ढोलक आ झाल पर
साजे खातिर नया नया ताल
कब लवटिहें स गाँव के नवहा, खेले रामलीला
गाँव सुधार वाला नाटक
सीतीं सिमसिमाइल, जाड़े कठुवाइल
रात रात भर मुँहकुरिये पटाइल
जोहते रहि जाला गाँव.

अशोक द्विवेदी जी के ई कविता अंजोरिया के पुरनका संस्करण पर अंजोर भइल रहल. ओह संस्करण के कुछेक सामग्री भोजपुरीअंजोरिया.ब्लॉगपोस्ट.कॉम पर डालल गइल बा. कुछ रचना एह नयके संस्करण पर अंजोर करत रहेनी.
एह कविता के तीन गो कड़ी बावे –
गाँव के कहानी (1)
गाँव के कहानी (2)
गाँव के कहानी (3)

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