धर्म: बदलत रूप बिगड़त माहौल


(पाती के अंक 62-63 (जनवरी 2012 अंक) से – 21वी प्रस्तुति)

– सुशील कुमार तिवारी

जइसन कि धर्म ग्रंथन में कहल गइल बा ‘धरेतिसः धर्मः’। माने कि देश अउर काल के हिसाब से उचित अनुचित के निर्धरण कइल आ ओकेरा अनुसार व्यवहार कइल धरम होला। एह चीज के समझे-बूझे खातिर दू गो उदाहरण काफी बा। ई दूनो उदाहरण भगवान श्रीराम अउर भगवान श्रीकृष्ण से संबंधित बा। बनवास के घरी जात खा राम चित्रकूट सभा में भरत के इ लाख चिरउरी कइला के बादो कि रउवां वापस चलीं, श्रीराम ना गइलन। अगर धर्म के प्रचलित आ लोकधर्मी स्वरूप के देखल जाव त ऊ अगर वापिसो चलि गइल रहितें त, कवनो अधर्म ना होइत। काहें कि दशरथ के बड़का लड़िका होखला के वजह से राज्य पर कानूनी हक त उनकर रहबे कइल। लेकिन ओहू से बड़ धरम (धरती से पापियन क संहार) सामने रहे, नतीजा राम भरत के कहलें कि तू राजधरम के पालन करऽ आ राज्य करऽ।

कुरुक्षेत्र के मैदान में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुनो से कुछ अइसने बात कहलें। अपना सगा-संबंधी के मारल धर्म विरुद्ध कृत्य ही रहल लेकिन संदर्भ बदल गइल रहे। भगवान कृष्ण कहलें कि अर्जुन धर्म के रक्षा के भार त हमरा उपर बा, एही खातिर हम अवतार लेले बानीं, तू कर्म करऽ। तहार धर्म आज युद्ध कइल बा, तू युद्ध करऽ। ई सभ कथा गवला के मतलब ई बा कि धरम कवनो जड़ीभूत चीज ना ह बल्कि निरंतर गतिमान आ परिवर्तनकामी ह। धरम के स्वरूप समय आ व्यक्ति के हिसाब से बदलेला। अगर अइसन ना होइत त महर्षि परशुराम जी से जबान लड़ावे वाला लछिमन जी के राम जी रावण किहां शिक्षा लेबे खातिर ना भेजले रहितें। कृष्ण जी रूक्मिणी के भगा के बियाह ना करितें आ खुद अपने बहिन सुभद्रा के अर्जुन संगे ना भगवतें।

समस्या तऽ तब पैदा होला जब धरम के स्थिर आ जड़ीभूत क दिहल जाला। ओकरा के कर्मकांड से, नाना विधन आ पूजा-पाठ से तथा ईश्वर के प्रति भय से जोड़ दिहल जाला। अधिकांश समाज में जवन धरम प्रचलित बा ऊ विकृत धरम ह। विकृत एह माने में कि ई वैदिक धर्म ना ह। ई लौकिक धरम ह। कहे कि मतलब कि जहां से धर्म के जनम भइल (वैदिक संस्कृति) ओइजा से हमनी के देवी-देवता के नांव अउर स्वरूप त उठा लिहनी जा बाकिर उहे देवी-देवता जवन कहलें, अउर जवन कइलें, ओकरा के छोड़ि के लौकिक कर्मकांड के कुछ गिनल-चुनल पोथी कपारे धरि लिहनी जा। नतीजा कामदेव के भस्म करे वाला शंकर के मंदिर के पुजारी आज कामुक बा।

भारतीय समाज में एगो अइसन बखेड़ा खड़ा हो गइल बा जवन लौकिक संस्कृति के महिमा-मंडन के नाम पर विकास के गति के पीछे ठेलत बा। रउवां चारि गो ढेला धरि के ओकरा के टीकि के, ओकरा पर कुछ पूजा सामग्री छोड़ दीं। देखीं दुआरी पर आइल भिखारी के खेद देबे वाला आदिमी ओकरा प रूपिया चढ़ाई। हर गांव में हर बगइचा में रउवां के दूइ-चारि गो ब्रह्म बाबा आ दूइ-चारि गो सती माई के स्थान मिलि जइहें। फेंड़ प लाल-लाल फीता बान्हल लउकी उहो कवनो देवी के स्थने कहाई। हास्यास्पद स्थिति ई बा कि ऐ सब के लोग आपन संस्कृति कहत बाड़े अउर ऊ संस्कृति के पालन करे वाला व्यवस्था के सभ्यता। ऐकरे गौरव-गान करत बाड़ें। गणेश जी दूध पीयत बाड़ें। कर्नाटक के एगो मंदिर में जूठ पत्तल पर दलित अउर आदिवासी लोगन के लोटियावे के कहल जात बा। तर्क इ बा कि एकरा से कुल्हि रोग-दुख ठीक हो जाई। ढेर दूर काहें जाईं, भोजपुरिया लोक में प्रचलित बा कि गंगा जी नहइला से कुल्हि पाप मिटि जाला, पूरनमासी के दिने गंगा जी नहा के भोरे-भोरे भृगु जी के जल चढ़ाईं, तऽतीर्थ यात्रा के फल मिलि। ईहे आदिमी गंगा जी में लाश फेंकत बाड़ें, कूड़ा फेंकत बाड़ें, थूकत बाड़ें, मूतत बाड़ें। आ ई खेला देखीं कि एही संस्कृति प बड़े-बड़े विद्वान जन मुग्ध बाड़ें, आ कहत बाड़ें कि इहे त असली भारत ह। ध्यान देवे वाला तथ्य ई बा कि धर्म के चाशनी में डूबल ई लौकिक दिवालियापन के लोकभाषा में ही चुनौती मिलल काशी के दूगो, तथकथित शिष्ट भाषा में कहीं त कु-पंडित कबीर आ तुलसीदास के द्वारा। तुलसीदास के रामचरितमानस के काशी के पंडा उठा के गंगा जी में फेंकि दिहले सन् कि काहें संस्कृत (देवभाषा) छोड़ि के अवधी (लोकभाषा) में रामकथा लिखलऽ। जवना कथा के तुलसी कहलें ‘सुरसरि सम सबकहँ हित होई’। माने कि गंगा के समान बिना कवनो भेदभाव के कथाअमृत पिलावे वाली रचना। लौकिक टूटन के चिंता तुलसीदास के रहे, लेकिन कबीर त रो दिहलें। पहिले अंधविश्वास पर लाठी चलवलें, आ जब बात ना बनल त कहलें –
‘कबीरा खड़ा बाजार में, लिये लुकाठी हाथ।
जो घर जारै आपना, चले हमारे साथ।।’

ई त रहे लोक के बात, अब तनी तथाकथित शिष्ट समाज में आईं माने शहरी अभिजात्य वर्ग। एइजा कुल्हि धरम पइसा ह। वैष्णेदेवी के तीर्थ करीं आ अगर रउवां लागे पइसा बा त सीढ़ी काहें चढ़ब, हेलीकॉप्टर से सीधे मंदिर किहां उतरीं। तिरुपति बाला जी में चढ़ावा के हिसाब से रउरा दर्शन के सुविधा अउर समय निर्धरित बा। अब एतना पइसा त दू नंबर क कमाई वाला के लोगन के पास नू होई। किसान अउर गरीबन के हक के पइसा लूटीं, घूस लिहीं, कमीशन अउर दलाली खईं आ ओही पइसा से अपना घरे में मंदिर बनवा लीं। अब मंदिर में रेस्टोरेंट खुले लागल। अक्षरधाम अउर इस्कॉन मंदिर में रउवां के दिव्य भोजन के नांव पर लूट लिहल जाई। कुल मिलाके अब मंदिर में भी धर्म व्यवसाय के रूप ले लिहले बा। बड़े-बडे बाबा लोग क्रिएट (बतमंजम) हो गइलें। जवन चार्टन विमान से चलिहें, फाइव स्टार होटल में रहिहें अउर रउवां के संयम के शिक्षा दीहें। कहिंहें कि ‘निवृत्तमार्गी बनो, माया-मोह को त्यागो, तुम्हारे पास जो भी है उसे ईश्वर का प्रसाद समझकर उसे समर्पित कर दो।’ एमें अपने से कुछु ना करिहें इ बाबा लोग। अगर रउवां त्रिवेणी नहाये जाईं त कवनो बाबा के शिविर में चलि जाईं। पइसा के हिसाब से रउवां के बेड मिली। अगर रउवां लगे पइसा बा, त मउज से रहीं। नाहिं त तीर्थराज प्रयाग के कड़ाका क ठंड में किकुर के गलि जाईं। तब इहे बाबा कहिहें कि ’कितना भाग्यशली था इसको अवश्य मोक्ष मिलेगा’।

बाजार आ पूंजी धर्म पर कइसे हावी होखता एहकर सबसे बढ़िया उदाहरण बा धर्मिक टी.वी. चैनल। धर्म के नांव पर तथाकथित धार्मिक प्रोग्राम देखा के टी.आर.पी. बटोरल जाता, विज्ञापन बटोरल जाता आ ओकर झोली भराता जेकर एह धर्म से दूर-दूर तक ले कवनो संबंध नइखे। धर्म के ही आड़ लेके तमाम योगाचार्य, भविष्यवक्ता अउर खगोलशास्त्री पैदा हो गइल बाड़े, जवन राउर भविष्य बदल देबे के दावा करत बाड़ें। सब टी.वी. न्यूज चैनल में भी धार्मिक कार्यक्रम के स्लॉट अलगा से बाटे।

धर्म खाली ईश्वर से जुड़ल मामला ना ह। विश्वास से ढेर ई व्यवहार के चीज ह, नैतिकता के चीज हऽ, जीवनचर्या के चीज हऽ, विचार-प्रणाली के चीज हऽ। आचरण के शुद्धता अउर विचार के परिष्कार एकर मूल आधार हवे। तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ में एगो अद्भुत प्रसंग बाटे, राम-रावण युद्ध के समय के। जवन वास्तव में तुलसी के तत्कालीन चिंता के व्यक्त करता। ऊ चिंता बा धर्म के हानि। एह प्रसंग से पहिले तुलसी कहत बाड़ें कि राम-जन्म काहें भइल।

जब-जब होहिं धरम की हानी।
बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी।।
तब-तब प्रभु धरि विविध सरीरा।
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।

उहे श्रीराम धरम के हानि अउर बढ़त अन्याय आ अत्याचार पर खिसिया के कहत बाड़े ‘निसिचर हीन करहु मही। भुज उठाई प्रण कीन्ह।।

माने अधर्मी आ अत्याचारी के समूल नास कऽ देब। अधर्म के आइकन (icon) रावण से आमने-सामने के युद्ध के समय राम के पैदल रहला से विभीषण चिंतित भइले कि रावण जइसन मायावी से श्रीराम बिना रथ के कइसे लड़िहें। तुलसीदास एह प्रसंग में धर्म के अद्भुत प्रतीक दिहले बाड़ें –
सौरज धीरज तेहि रथ चाका।
सत्य शील दृढ़ ध्वजा पताका।

माने कि जेकरा लागे धीरज, सत्य, शील अउर दृढ़ता बा एह तरह के धरम धुरंधर राम के आगे विधर्मी रावण ना टिक पाई। एही तरह के एगो प्रसंग भगवद्गीता में भी बा, जब मन के चंचलता से खिन्न अर्जुन भगवान कृष्ण से कहत बाड़न कि हे प्रभु ई मन एनो-ओने के चीज में बड़ा भटकता हम का करीं ?

त भगवान कृष्ण कहत बाड़ें कि अर्जुन, अभ्यास अउर वैराग्य ई दूनो से ही मन बस में हो सकेला। अभ्यास माने लगातार अपना के अच्छाई के ओर ढकेलल अउर वैराग्य माने माया-मोह से अनुचित अउर अनैतिक व्यवहार आ विचार से दूरी। कबीरदास लिखले बाड़ें
मैमंता मन मारि के, नान्हा करि-करि पीस।
तब सुख पावे सुन्दरी, ब्रह्म झलक्कै ईश।।

माने कि मन के गूटी-गूटी काटि के सील पर जइसे पीस दिहल जाव ओइसन बनावे के परी। त ई ह धर्म। अब ध्यान देबे जोग बात ई बा कि चाहे ऊ
लोक होखे बा शिष्ट, धरम बा कहां? केतना बा? कवना तरह के बा? खालि ईश्वर के पूजा के कर्मकांडीय विधि के निभा लिहला से धर्म ना निभि जाला। धरम के हृदय में स्थान देवे के परेला। प्रेम-विवाह के धर्म विरुद्ध, आचरण विरुद्ध आ नैतिकता विरुद्ध कहे वाला इ भूल जात बा कि श्रीकृष्ण खुदे एकर समर्थक रहले। माँ-बाप अउर भाई के गला काट के लूट लेबे वाला आदमी इ भूल गइल बा कि श्रीराम माँ-बाप अउर भाई के खातिर कुल्हि चीज छोड़ि दिहलें। जांत-पांत :के माने वाला आदमी इ भूल जात बाड़े कि श्रीकृष्ण रीक्ष कन्या जामवंती से बियाह कइलें। अन्यायी आ अत्याचारी के साथ देबे वाला आदमी भूल जात बाड़े कि कंस त श्रीकृष्ण के मामा रहे तबो उ ओकरा के मार दिहले। कवनो जायज कारण के झूठ आ छल-प्रपंच के सहारा लेबे वाला आदमी ई भूल जात बाड़े कि श्रीकृष्ण मणि के चोरी के इल्जाम के झूठ साबित करे खातिर मणि खोजत भटकत फिरलें। स्त्री पर गलत निगाह डाले वाला आदमी इ भूल जात बाड़े कि राम बालि के एहि तर्क के आधार पर मुआ दिहलें कि ऊ अपना छोट भई के पत्नी के रखले रहे।

भारतीय समाज में तार्किकता दोसरा पर आजमावे वाला अस्त्र हऽ। जब खुद पर पड़ेला, तब तरह-तरह के आस्था, विश्वास, धर्म, जाति, क्षेत्र, संप्रदाय आदि के कवच लेके एकरा से बचे के कोशिश कइल जाला। धरम के उपयोग तार्किकता से बचे खातिर सबसे पहिले आ सबसे मजबूती के साथ कइल जाला। अउर एकरा के संस्कृति के अनिवार्य शर्त बतावल जाला। जरूरी नइखे कि रउवां विधर्मी हो जाई लेकिन धर्म के समयानुकूल ढंग से देखला के, सोचला के आ समझला के ज़रूरत बा। निर्णय रउवां खुदे करीं, कि का धर्म ह अउर का अधर्म। कवनो पोगापंथी के कहला पर मत जाईं, आपन विवेक आ बुद्धि के उपयोग करीं। फेरू एही पर बात खत्म करब कि ‘धरेति सः धर्मः’।


पिछला कई बेर से भोजपुरी दिशा बोध के पत्रिका “पाती” के पूरा के पूरा अंक अँजोरिया पर् दिहल जात रहल बा. अबकी एह पत्रिका के जनवरी 2012 वाला अंक के सामग्री सीधे अँजोरिया पर दिहल जा रहल बा जेहसे कि अधिका से अधिका पाठक तक ई पहुँच पावे. पीडीएफ फाइल एक त बहुते बड़ हो जाला आ कई पाठक ओकरा के डाउनलोड ना करसु. आशा बा जे ई बदलाव रउरा सभे के नीक लागी.

पाती के संपर्क सूत्र
द्वारा डा॰ अशोक द्विवेदी
टैगोर नगर, सिविल लाइन्स बलिया – 277001
फोन – 08004375093
ashok.dvivedi@rediffmail.com

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