Kahe-kehli-eiya

– डा॰ रमाशंकर श्रीवास्तव

लोक-संस्कृति के कुँआ बड़ा गहिर होला. कुछ लोग ओमे झाँके तक से डेराला आ कुछ लोग साफे डूब के चुभुक-डुबुक करत ठंडा पानी के आनन्द लेला. डा॰ आशारानी लाल एह सांस्कृतिक कुँआ में पाताल तक डूब के मने मन हुलास भरत बाड़ी.

अइसन-अइसन प्रसंग कि ओमे लेखिका कबो डूबत बाड़ी त कबो उतरात बाड़ी. रउआ चुपचाप एके देखीं भा पढ़ीं. ईया के आगे एह चिठियन में भोजपुरी प्रदेश के ईया-दादी, अइया के मानसिकता बड़ा स्थिर भाव से उकेरल गइल बा. पाठक लोग के सामने एगो बीतल दुनिया के नजा़रा पेश हो रहल बा. खल-बेखल के सवाल उठावत बाड़ी पोती आ ओही में सझुराइल-अझुराइल बा जवाब जवना में अतीत आ वर्तमान के अनुभव आ ओकर समन्वय देखाई पड़त बा. एमे त कवनो शक ना कि समय बहुत तेजी से बदलत बा, जीवन के मूल्यो प्रभावित हो रहल बा. सूप में पड़ल-फेटाइल सतमेझड़ा दाल में से ओह ओह दालन के बीन लेबे के बा जवन कवनो अवगुन ना करे आ नीमन से पच जाव. इहे सब पचावे के कोशिश में लेखिका अपना याददा्त के इस्तेमाल खूबसूरती से कर रहल बाड़ी – एगो जरूरी सवाल के साथे “काहे कहली ईया”.

नीमन प्रसंग के रोचक भाषा में कहल बहुत आसान ना होला. जे मन से एह चिठियन में डूबी ओकरा आगे अतीत में भागत विरासत आ आधुनिक जीवन दृष्टि के प्रभाव साफ लउके लागी. गहराई से विचार करीं त आज के ऊटपटांग बदलाव के लेके लेखिका का मन में पीड़ा बा.

एह संस्मरणात्मक कथनी में कहीं आपबीती बा त कहीं जगबीती बा. डा॰ भगवती प्रसाद द्विवेदी के चटक चिंतन (प्राक्कथन) में “काहे कहली ईया” सांस्कृतिक विरासत के जियतार ऐनक बा.” मगर पुरान ऐनक में धब्बा लागे के डरो होला. आशारानी लाल जइसन लेखिका के अगर कलम जागत रही त ना धब्बा लागी आ ना विरासत के कबो हरारत महसूस होई.

लेखिका ईया से बेर-बेर बतिया के आपन मन हलुक कर लेत बाड़ी. बाँझ मेहरारु के पीड़ा, सहनशीलता आ विडम्बना के एगो उदाहरण – बाँझ मेहरारु समाज में उपेक्षित बाड़ी. निराशा में आपन अंत कर देबे के चाहत बाड़ी मगर मन कहत बा कि उकरा के जंगल में कवनो मादा जानवर खा जाइत त अच्छा होइत. मगर कवनो मादा जानवर उनकरा के खाए खातिर तइयार नइखे. ओकरो भय बा कि उनकरा के खाते उहो मत बाँझ बन जाव. बाँझपन से सभे डेरात बा. मगर आज के संदर्भ में यंत्र आ दवाबीरो के चलते डेराए के विषय नइखे रह गइल. आधुनिक युग में ओकरो सांजस्य बइठ जा ता.

डेगे-डेगे लउके वाली ईया से आपन बात कहला से लेखिका के मन नइखे भरत.

“ए ईया, तोहार दलिदर केतना जबरदस्त रहे कि रोजे-रोजे ओके दीया जरा के भगावल जात रहे. तबो दीया-देवारी के समय बिहान भइला जब ले तोहार दिहल मंत्र के जाप सूप का साथे ना कइल जाय तब ले उ घर-गाँव छोड़ के भागते ना रहे. …. …. … केतनो दुनिया बदली बाकि तोहरा दलिदर के नांव सुनते सब घबड़ा जाई.”

एह बत्तीस गो पाती-प्रसंग में ईया के आगे जेतना बात उभर के आवत बा ओमे पुरनका-नवका के फेंट कम नइखे. समाज आ संस्कृति में सनाइल धरोहर समय के अनुसार सामंजस्य के खोज करत बा. भागत समय के जीवन-दर्शन आ बदलत परिस्थिति के दुख-सुख लेखिका ईया के आगे राखत जात बाड़ी.

मुख्यतः नारी समाज आ परिवेश पर केन्द्रित क के डा॰ आशारानी लाल आपन जिज्ञासा रख रहल बाड़ी. ईयो धन्य बाड़ी अइसन पोती पा के. रचना में स्वर बा कि ईया के जीवन काल में समाज सरल सीधा रहे. आज गिरावट के पीड़ा वर्तमान पीढ़ी भोगत बा. दउरा में गोड़ डाल के आइल बहुरिया दोसरके दिने अपना मरद के साथे नौकरी पर जाए खातिर मन बना लेत बाड़ी.

दुनिया के बदलत हवा-पानी के जिकिर पढ़े के होखे त अपने पढ़ीं – “काहे कहली ईया”. अइसन सहज, विश्वसनीय आ पठनीय सृजन खातिर लेखिका के बधाई.


प्रकाशक – संकल्प प्रकाशन
४५८२/१५, रचना सागर भवन, एलआईसी कार्यालन के समीप, दरियागंज, नईदिल्ली – ११०००२


संपर्क –
डा॰ रमाशंकर श्रीवास्तव, पूर्व एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विंभाग, राजधानी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
ए १/६०१ बेवरली पार्क अपार्टमेंट, सेक्टर २२/२, द्वारका, नई दिल्ली ७५

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