बतकुच्चन – ५३


एगो कहाउत ह “राड़, साँढ़, सीढ़ी, सन्यासी | एहसे बचे त सेवे काशी”. कहाउत कहल त गइल बा काशी का बारे में जहाँ के राड़, ठग, सीढ़ी आ साधु सबही एकसे बढ़िके एक होलें. बतकु्च्चन में राड़ आ राँड़ के फरक के चरचा पहिले हो चुकल बा. एह कहाउत में राँड़ के नाम नइखे राड़ के बा. राँड़ माने विधवा आ राड़ माने दबंग. जे हमेशा रार बेसाहे खातिर तईयार रहत होखे. हालांकि आदमी के शराफत एही में होला कि राड़ से कबो रार मत बेसाहे. ओकर त कुछ होई हवाई ना राउर चेहरा जरूर बिगड़ जाई. अब एह बेसहला के मतलब खरीदला से मिलत जुलत बा. बस फरक अतने बा कि खरीदे में टेंट ढीला करे के पड़ेला बेसाहल फोकटो में हो सकेला. अब रउरा सभे हो सकेला कि टेंट के मतलबे ना समुझत होखब. ई टेंट शामियाना वाला टेन्ट ना ह, धोती वाला टेंट ह, जवना में लपेट के लोग रुपिया लुकवले राखत रहुवे. बाकिर धोती त अब फैशन में रह नइखे गइल हालांकि टेंट आ पोंछिटा जरूर बाँच गइल बा बातचीत के हिस्सा में. हँ, त बात होत रहुवे ओह कहाउत के. त अगर देखल जाव त आजु के राजनीतिओ के हाल अइसने कुछ हो गइल बा. राजनीति में सही सलामत रहे के बा त राड़, साँढ़, सीढ़ी आ सन्यासियन से बाचही के पड़ी. खास कर के ओह से जे सन्यासीओ होखे आ राड़ो. हालांकि अधिकतर सन्यासी राड़े होले काहे कि उनुकर ना त कवनो स्वारथ रहेला ना ऊ केहू से दबेले. राजनीति में कुछ लोग साँढ़ होला त कुछ लोग सीढ़ी के काम करेला. बाकिर असली डर रहेला राड़ आ सन्यासियन के. एह बारे में भाजपा से बेसी केकरा मालूम होखी जे अइले दिन सन्यासियन से निबटत रहेला. राड़न से निबटे के काम सरकारी दल का लगे रहि गइल बा. ओकरा आपन सरकार चलावे के बा से साम दाम दण्ड भेद सगरी इस्तेमाल करे आवेला ओकरा. कुछ लोग के त दण्ड का धमक से अपना पाले बनवले राखेला बाकिर कुछ लोग अइसन बा जेकरा दण्ड के परवाहे नइखे. काहे कि ओकरा लगे चोरावल भा लूटल भा कवनो दोसरा तरह से मालूम आमदनी से बेसी के संपत्ति नइखे. अब ओहके सीबीआई के डर देखावत पाला में त राखल ना जा सके. से ओकरा सोझा दण्डवत करही के पड़ी. खास कर के तब जब रउरा कुर्सी के अइसन चिपकू होखीं कि मान मर्यादा सब कुछ जाव त जाव, कुरसी ना जाये के चाहीं. अब कुछ लोग उनुका के बेचारा भा बेसहाय कहि सकेला बाकिर असल में ऊ महासहाउर हउवन जिनका खातिर कुछऊ बेसहाउरि नइखे, बेसहाव नइखे. कुरसी के आनन्द खातिर ऊ कुछऊ सहि सकेले. बाकिर एक काम ना करि सकसि कि कवनो राड़ से रार बेसाह लेसु. कहे के त इहे कहेले कि सबकुछ गठबन्हन के मजबूरी हवे. जइसे मरद मेहरारू के गठबन्हन का बाद मेहरी गाठेले आ मरदा बन्हन में पड़ल रहेला. अब एह तरह के गठबन्हन हिन्दुस्तानिये संस्कृति में मिलेला. बाकी जगहा त बात बात में तोहरा से राजी ना कहि के लोग अलगा राह धर लेला. बाकिर एहिजा के सामाजिक गठबन्हन भा राजनीतिक गठबन्हन से आजाद होखल ओतना आसान ना होखे. अब ऊ गठबन्हन चाहे खरीदल होखे भा बेसाहल. खरीदल आ बेसाहल में एगो फरक इहो होला कि बतावल दाम पर खरीद लिहल जाव त खरीदल आ मोलभाव करिके खरीदल जाव त भइल बेसाहल. आ बेसाहल चीज बतुस कतनो बेसम्हार होखे सम्हारही के पड़ी.

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