बनचरी (दुसरकी कड़ी)

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– डा॰ अशोक द्विवेदी

भयावह आ भकसावन लागे वाला ऊ बन सँचहूँ रहस्यमय लागत रहे. जब-तब उहाँ ठहरल अथाह सन्नााटा अनचीन्ह अदृश्य जीव जन्तु भा पक्षियन का फड़फड़ाहट से टूट जात रहे. थोरिके देर पहिले फेड़ का एगो लटकल डाढ़ि से लपटाइल लटकल सरप के फूत्कार प’ आगा चलत युवक चिहुँकि उठल रहे आ पाछा चलत सब केहू सावधान मुद्रा में आ गइल रहे. अपना चोख, नोकीला डंडा से साँप का मूड़ी का नीचे खोदत दुसरका भाई बोलल, ‘ई अब समझ जाई कि हमनियो का सजगे बानी जा!’ सँचहूँ सरप डाढ़ि का दोसरा बगल मूड़ी घुसावत आपन जान बँचावे लागल रहे.

– ‘मझिला भइया! एह छोट-मोट जीव जंतुअन से त खतरा बटले बा, बाकिर कवनो हिंसक शेर, बाघ भा राच्छस आ जाई त का होई?’ धनुषधारी युवक चुटकी लेत पुछलस.
– ‘ओके हम देखि लेइब!’ आपन पुष्ट कंधा उचकावत मझिला भाई हँस के बोलल.

छन भर खातिर सभका ओठे हँसी उतराइ गइल. निर्जन एकरसता के चुप्पी टुटते हराँसल-थाकल भारी मन कुछ हलुक हो गइल. दरसल एह गझिन सँड़सल बिचित्र बन में कवनो चीन्हल-जानल साफ राह त रहे ना. कबो कुछ दूर तक सुगम साफ डहर लउके त कबो राह रोकत एक दुसरा में गँसल डाढ़ि वाला पातर फेंड़न के कतार. कबो-कबो त अइसन कँटीली झाड़ी मिल जाव कि हाथ-गोड़ छिला जाव. ई त हर परिस्थिति से दू दू हाथ करे क धीरज आ सामरथ वाला ओ भाइयन क एकता आ प्रेम रहे कि ऊ लोग अतना दूर ले सुरक्षित चलि आइल रहे.

अँजोर के लगातार कमी से ओ’ लोगन के अंदाजा हो गइल कि दिन ढल रहल बा आ साँझ होखे वाली बा. माता के बाँह धइले चले वाला युवक चलत-चलत अचानक बिचलित भइल, ‘अब माई के बहुत थकान हो गइल बा, बड़का भइया! कहीं साफ आ सुरक्षित ठवर देखि के हमनी के ठहर जाए के चाहीं! अइसहूँ रात होखे का पहिले बेवस्था क लिहल जरूरी बा.’
सब रुकि गइल आ माता के घेरि के खड़ा हो गइल.
– ‘का भइल माता, हम आपके पीठ पर उठा लेत बानी!’
– ‘ना बेटा, तहार छोट भाई बहुत समझदार हऽ. साँझ हो जाई त रुके के व्यवस्था कइल ढेर कठिन हो जाई, आ एह दुर्गम-डेरावन बन में…..!’ माता सबकर अकुलाहट कम करत सुझाव दिहली.
– ‘हँ भीम! अब कवनो साफ-सुरक्षित जगह खोज लऽ जा, जहाँ रात बितावल जा सके. जहाँ कवनो हिंसक जानवर आसानी से हमहन पर आक्रमण ना क सके. तोहन लोग के रात भर जरावे खातिर लकड़ियो बटोरे के परी.’
बलिष्ठ आ देंहगर भाई के नाँव धरत जेठ भाई संबोधित कइलन त अबले शान्त माता तुरन्ते टोकि दिहली- ‘बेटा, हम नइखीं चाहत कि केहु क नाँव धइके बोलावल जाव! आपन गोपनीयता बनवले रहला खातिर आपुस में बतियावे खातिर खाली भाई भा अनुज कहि के बोलावऽ जा.’
– ‘जी माता! आगा से हमहन का एकर ध्यान राखल जाई कि हमहन क पहिचान प्रगट ना होखे बाकिर अकेल, एकान्त में इनके हम इनका नाँव से त पुकार सकीले न माता?’ जेठ भाई पुछिये दिहलन.
– ‘ठीक बा, बाकिर आपन पहिचान छुपावले हमन क पहिल उद्देश्य बा!’ माता स्पष्ट कइली
– ‘तोहन लोग माता का लगे रुकऽ जा. हम आगा सब तरफ खूब नीक से देखि के आवत बानी कि कहाँ ठहरे के स्थान बनावल ठीक होई.’ भीम अपना खास निश्चिन्त भाव के दरसावत चल दिहलन.
– ‘रुकऽ भइया, हमहूँ सँगे चलत बानी!’ धनुषधारी युवक उठि के उनका पाछा चल दिहलस.
– ‘हमहूँ चलब, त लकड़ी वगैरह एकट्ठा करे में सहजोग करब!’ दोसर अनुज बोलल.
– ‘ठीक बा, हमहन दू अदिमी माता का देखभाल खातिर बानी जा, बाकिर ज्यादा लम्मा मत जइहऽ जा…’ जेठ भाई सहेजत, अनुमति दिहलन.

कुछ आगा गइला पर तीन गो झँगाठ मझुराइल फेंड़न का वजह से राह एकदम अवरूध बुझाइल. उनहन का बीच क दूरी बहुत कम रहे आ उनहन का दूनो ओर कँटइला झाड़ रहे. धनुष वाला भाई फेंड़न का फाँफर में दूर ले ध्यान दिहलस आ भीम के देखावत बोलल, ‘मझिला भइया हऊ, जहाँ चार पाँच गो पाथर शिला ढिमिलाइल बा ओकरा आसपास के जगह साफ बा आ उहाँ क जमीनियो उँचाह लउकत बा… बाकि उहाँ पहुँचल असुबिधाजनक बा.’ भीम अपना भाई के हटाइ के बीच वाला फेंड़ के तजबीजत ओके उखारे खातिर अँकवारी बान्ह लिहलन. अपना असीम बल का बूते ऊ फेंड़ के हिला-हिला के उखार दिहलन, फेर ओके एकोर फेंकत कहलन, ‘तहन लोग इहाँ के माटी बरोबर करऽ. हम आगा चल के जगह ठीक करत बानी.’ ऊ फानत ओह जगह पर पहुँचलन जहाँ चार पांच गो पाथर-शिला एहर-ओहर जमल रहे. ऊ चारू ओर तकलन, फेरू एगो घन फेंड़ का पास भारी-भारी शिला ढकेलत डगरावत अइसे धरे लगलन जइसे ऊ फेंड़ के दू ओर से घेरत होखसु. दूनों अनुज एगो डाढ़ि के झलाँसी से झार-बहार के चारू ओर साफ सुथरा आराम करे जोग जगह बना दिहलन सऽ.

सबसे छोट भाई लकड़ी बीनि-बीनि के एगो ऊँचाह जगह पर सरिहावे लागल. धनुषधारी भाई हरियर झलांसी वाला पतई बिछावत सूते लायक बिछौना बना चुकल रहे. फेर भीम कहीं से पाथर के दू गो छोट टुकड़ा आ अँकवार में सूखल लकड़ी बटोरले लवटलन त अपना छोट भाइयन के एकाग्रता आ लगन देखि उनका ओठन पर एगो उदास हँसी क लकीर खिंचा गइल. अपना सुन्दर, सुकुवार दुलरुवा अनुजन के ई दुख भरल दसा देखि, उनका तन में एक छिन खातिर छोभ उठल; ‘बस करऽ, अब रहे दऽ! बलुक जाइ के सबके बोलाइ लियावऽ जा! इहाँ हम कूल्हि इंतजाम क लेबि.’ भीम सूखल लकड़ी क मोट डाढ़ि एक जगह गोलियावत कहलन.

सबका सँगे जब माई उहाँ लवटली त साफ सुथरा चौरस जगह आ सूते-बइठे के अचम्भित करे वाला इन्तजाम देखि के बहुत खुस भइली. पतई का बिछावन पर बइठि के उनका मन के बहुत सलतंत भेंटाइल बाकि कवनो सोच में, उनकर मन पुरान दिनन का इयाद में भटक गइल. सोचे लगली, ‘अपना स्रम से बनावल व्यवस्था, जवना में सन्मति, एकता, त्याग आ प्रेम होखे ऊहें न घर सुख बा. कवनो राजसी ठाट-बाट के नोकर दाई खानसामा वाली सुखद व्यवस्था में रहत खाली-दिमाग वाला लोगन में, सुख-सुविधा आ शक्ति के लोलुपता का साथ इरिखा, डाह आ बैर बढ़ जाला, इहे न हमनियों का साथ घटित भइल.’ उनका चेहरा प दुख आ पीड़ा के कइ कइ गो भाव उठल आ बिला गइल.
– ‘का बात हऽ माई, तूँ काहें अतना चिन्तित बाड़ू?’ जेठ भाई महतारी क चिन्तित चेहरा के उतार चढ़ाव पढ़त विचलित भाव में पुछलन.
– ‘कुछु ना हो, कुछ पुरान इयाद आ-गइल हा…’
– ‘ना, ना, माई हमहन का भोजन-पानी खातिर सोचत बाड़ी!’ छोट भाई दुलराइल बोलल
– ‘हँ नू माई? सँचहूँ इहे बात हऽ? धनुषधारी भाई महतारी कऽ चेहरा पढ़े क कोसिस करत पुछलस’
– ‘अरे एमे कवन चिन्ता? हम एगो फलदार फेंड़ पहिलहीं से देखि लेले बानी. अबे लेले आवत बानी!’ भीम हँसत खड़ा हो गइलन
– ‘तोहन लोग माई का लगे बइठऽ जा; हमनी का फल आ जल दूनों के बेवस्था कर के तुरंते लवटत बानी जा!’ धनुषधारी भाई भीम का सँगे जात खा बाकी लोगन के सावधान कइलस, ‘इहवाँ तनिक चौकन्नाा रहे के जरूरत बा… ए जंगल में बहुत कुछ विचित्रा अनुभव हो रहल बा!’

भीम अपना भाई का सँग कुछ देर बाद लवटलन त अन्हार हो चलल रहे. अँगौछा में बान्हल फल रखला का बाद भीम सूखल लकड़ी का ढेर का लगे बइठ के आग जरावे खातिर पाथर क दूनो टुकड़ा आपुस में लड़ावे लगलन. पाथर से चिनगारी निकले त सूखल पतई में लगावस. थोरिके देर का कोसिस का बाद आग जर गइल. पातर-पातर सूखल लकड़ी जब ठीक से जरे लागल त ओकरा चारू ओर मोट-मोट लकड़ी सरिया दिहल गइल. भीतर से निकलत आग के तेज लपट से एगो मद्धिम अँजोर फइले लागल.

आग का चारू ओर बइठल अपना लइकन के पारा-पारी छोह से देखत महतारी सबका हाथे फल देबे लगली, फेर बाँचल कुल फल क ढेरी भीम का ओर सरकावत कहली, ‘हम एही में से खा लेबि.’ हँ हँ ई काहे नइखू कहत कि ‘भइया भीम तोहरे बहाने कूल्हि फल खइहें.’ मुँहलगा छोट भाई हँसि के कहलस त सभ ठठाइ के हँस दिहल.
– ‘आखिर सगरी भोजन क इन्तजाम करे वाला भीमे न बाड़न…’ महतारियो विनोद कइली.

फेरू हँसत-बतियावत, खात-पियत घंटा भर बीत गइल. फेंड़ का नीचे महतारी के सुतला का बाद, सभे अपना जगहे पर भउँवात रहे. भीम एने ओने टहरत जब पाछा तकलन त लगभग सबका नीन लाग चुकल रहे. नीन त उनहूँ का आवत रहे, बाकिर अब सबका सूति गइला पर, सूते क इच्छा तेयाग दिहलन. आखिर एह बन में, ए लोगन के अगोरहूँ वाला केहू चाही नऽ? ऊ एक बेर सबका ओर पारा-पारी नजर दउरवलन, बड़का भइया! त्याग आ तप क मूर्ति बायाँ अलंगे ओठँगल बेसुध परल रहलन. हमेशा परछाहीं लेखा, दुख सुख संघर्ष का बेरा संगे लागल रहे वाला पुरुष शिरोमणि धनुषधारी भाई के मुख मलिन रहे. दूनों छोट दुलरुआ भाई जवन अपूर्व रूप आ तेज क स्वामी रहलन, जवनन का वजह से उनुका आत्मा के निरन्तर आनन्द क अनुभूति होत रहे, आजु समय का मार से, साधारन छुद्र मनुष्य लेखा महतारी का दूनो ओर लरुवाइल परल रहलन सऽ. ममता आ छोह के छछात देबी महतारी कवना भरोसे एह निर्जन में अतना निश्चिन्त नीन में बाड़ी… हमरे भरोसे नऽ. ना-ना, हम ना सूतब. ऊ उठि के थोड़िकी दूर पर एगो छोट पातर फेंड़ का सहारे ओठँगि के बइठि गइलन. आग हवा से अउरु लहक उठल रहे.


पहिलका कड़ी


डा॰ अशोक द्विवेदी के परिचय

धारावाहिक, भोजपुरी, उपन्यास, बनचरी, अशोक द्विवेदी,

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