बनचरी (भोजपुरी के कालजयी उपन्यास के सतवीं कड़ी)

Banachari-cover-final

– डा॰ अशोक द्विवेदी

फजीर होते, भीम आश्रम से निकलि के सीधे जलाशय का ओर चल दिहलन. माता के प्रातः दरसन आ परनाम का बाद, उनसे कुछ सलाह निर्देश मिलल. माता कहली, ”हम चाहत बानीं कि तूँ हिडिमा का सँगे अधिका से अधिका समय बितावऽ! ओकरा भाई हिडिम का ना रहला आ हिडिमो के तहरा सँगहीं दिन-रात रहला का कारन, बनक्षेत्र का राज आ बेवस्था में कवनो गड़बड़ी ना होखे.“ ऊ ईहो संकेत दिहली कि हिडिमा जलाशय पर पहिलहीं से चल गइल बिया. उहें उनका से, ओकरा भेंट हो जाई. भीम माता के सलाह के उनकर आदेश मनलन आ गोड़ लाग के जलाशय का ओर चल दिहलन.

खूब अस्थिर से मज्जन-स्नान कइला का बाद जब ऊ कपड़ा पहिन के तइयार भइलन त हिडिमा के ना पाइ के जोर से चिचियइलन, ”अरी हिडिमा कहाँ लुकाइल बाड़ू तूँ? हिरिमाऽऽ?
– ‘अधीर मत होईं महाराज, बस आइये गइनीं….’
सजल-धजल, सहज प्रफुल्लित हिरिमा… अँगौछी में कुछ लेले, किनार पर ओठँघल फेंड़ का पाछा से बाहर भइल आ फुर्ती से किनारा का करिया चट्टान वाला सतह पर उछलत कूदत भीम का निगिचा आ गइल. दउरला से ओकर छाती तेजी से ऊपर नीचे होत रहे.
– ‘तूँ सचहूँ बानरी बाड़ू! एतना तेज चपलता से दउरल कहाँ सिखलू हिरिमा?’ भीम ओके हाँफत देखि, मजाक कइलन.
– ‘स्वामी, हमनी का बनचर हईं जा. एही बन-पहाड़ वाला ऊबड़-खाबड़ दुरूह क्षेत्र में बड़ भइलीं. ई अब हमनी का सुभाव में बा.’ अरे, हम त भुलाइये गइनी, हई फल तूर के ले आइल बानीं, गमछा के मुँह खोलत हिडिमा उनके तूरल फल देखावत कहलस.
– ‘अरे, अतना सुन्दर फल?’ भीम कुछ हरियर आ लाल फल उठवलन. ऊ पहाड़ी सेब नियर लागत रहे.
– ‘कुछ अउर ले लीं, तब तक हम बाकी फल अब्बे माता के देइ के आवत बानी.’ ऊ खुदे तीन चार गो फल भीम का अँजुरी में धरत, आश्रम का राह पर दउड़ गइल.
– ‘हुँह, पगली!’ भीम अनुराग से ओके दूर जात देखत रहलन, जब ऊ आँख से ओझल हो गइल त चुपचाप किनार पर उठल शिला पर बइठ गइलन… ‘हिडिमा का नित नया बदलत रूप आ व्यवहार पर उनका अचरज त होते रहे, भीतर कहीं लगाव आ अनुरागो प्रबल होत जात रहे. राच्छस कहाये वाला एक समाज में, ओकरा नरभक्षी क्रूर सुभाव आ ब्यवहार का बारे में बनल काल्पनिक पूर्वाग्रह खतम हो गइल त, कठोर आ जंगलीपन का भितरी छिपल सहज निष्कपट सुघराई आ प्रेम के छलकत जियत-जागत एगो अइसन अनचीन्ह खजाना मिलल, जवना में प्रकृतिये नियर सहज अल्हड़ता, बाँकपन, खुरदुरा आ कठोर चट्टानन के भीतरी से झरत शीतल मीठ झरना रहे. उनका ओठन पर एगो नया मुस्कान उभरि आइल… बिधाता के रचल एह दुनियाँ में भलहीं सभ्य दुनियाँ क साज सज्जा आ चमक दमक वाला साधन संपन्नता ना लउके, बाकि ऊ सब कुछ बा, जवना में आदमी प्रेम आ आनन्द से जी सके. प्रकृति के ई अनुपम शिल्प-संजोग आ संरक्षण ना रहित त अइसन-अइसन बनसपति, फेड़-पौधा, फूल-फल, गुफा-घाटी, झरना-जलाशय आ एम्मे रहे वाला जिया-जंतु आ बनप्रानी कइसे जियतन स?’
– ‘अरे, अबहीं बइठले बानी आप आर्यपुत्र ! हमार दिहल कूल्हि फल जस क तसे परल बा… का सोचे लगनी? कवनो बात बा?’ हिडिमा के घबड़ाइल बोली सुनि के भीम के तन्द्रा टूटल…
– ‘हिडिमी, तूँ सचहूँ बहुत सुन्दर बाड़ू! बाहरे से ना, भितरो से.’ भीम मुग्ध भाव से हिडिमा के ताकत, ओके अपना लगे खींचि लिहलन.
– ‘अच्छाऽ??’ हिडिमा अपना प्रिय का ओह लसोर दीठि में बन्हाइ के उनका लगे सटत चलि गइल, ‘चलीं, इहाँ से चलल जाव, आश्रम के जलाशय ह; केहु न केहु आवते रही इहाँ.’
भीम चिहुँकि के सजग हो गइलन. दू गो फल दूनो हाथे उठाइ के कहलन, ‘बाकी तूँ ले लऽ हिडिमा, राह में खात चल चलल जाई.’ हिडिमा ओइसहीं कइलस. सघन बन में समात भीम जब दूनों मीठ फल खा चुकलन त हिडिमा उनका तरफ अउर फल बढ़वलस.
– ‘माता के हुकुम बा कि आज से हम तोहरा राजबेवस्था आ सुरक्षा आदि के इन्तजाम देखीं.’ भीम हिडिमा से कहलन.
– ‘हमार राज? महाराज बृकोदर ई राज आ बेवस्था त आपके हऽ, आपके देखहीं के चाहीं, कहीं हम राउर का सहजोग करीं.’ हिडिमा उनके सम्मान देत समान भाव अइसे प्रगट कइलस, जइसे ऊ भीम के अनुचरी हो. भीम समझ गइलन कि हिडिमा बुद्धिमत्ता से उनका के गौरवान्वित कइला का साथ-साथ, उनके उकसावतो बिया.
– ‘अच्छा, ठीक बा. चलऽ आजु मंत्री उत्तुंग आ राज के सेनानायक का साथ साथ अउर पदाधिकारियन से हम भेंट करब आ समझे के कोसिस करब कि इहाँ बेवस्था के कइसन स्थिति बा.’
– ‘काका उत्तुंग, हमरा जनम के पहिले से एह राज के मंत्री बाड़न. उनकर लमहर अनुभव आ चतुर बेवस्था का चलते सगरे बनक्षेत्र के स्थिति सम्भारल जा रहल बा. सेनानायक दांडी आ उपसेनानायक पुण्डरक अपना सीमित सेना का बावजूद हर विपत्ति में सक्षम रहल बा. आपके एह लोगन से मिलि के नया सुधार करे के चाहीं, बनवासी समाज के खुसहाली आ तरक्की के उपाय करे बनावे के चाहीं. भाई हिडिम के कुछ दुष्ट संगी साथियन के काबू कइके, उनहन के माथे नया जिमवारी डाले के चाहीं. हिडिमा एकसुरिये बोलत चलि गइल…’
– ‘अच्छा, अच्छा, सब होई, जब तूँ सँगे रहबू त कूल्हि अपना आपे ठीक हो जाई!’ भीम हँसत, हिडिमा के अपना अँकवारि में ले लिहलन.
– ‘हमके पूरा विश्वास बा स्वामी. आप जवन करब, हमनी खातिर ठीके होई.’ भीम का अंक में समात हिडिमा के स्वर मीठ आ आर्द्र रहे. थोरिकी देर खातिर ऊ भुला गइल कि भीम आ ओकर साथ स्थायी नइखे.

भीम जब बनवासियन का रिहाइशी क्षेत्र से गुजरे लगलन त कुछ कुटियन का आगा उनके कुछ पालतू जानवर लउकलन सऽ, जइसे भेंड़, बकरी, गाय, कुक्कुर. ऊ अचरज में हिडिमा से पुछलन, ‘का तोहन लोग पशुपालनो करेलऽ जा? कि ई सब मांस भक्षण खातिर पशु लउकत बाड़न सऽ.’
– ‘ना महाराज, हमहन में ज्यादातर परिवारन के जिये के मुख्य आधार बनस्पति, फल, फूल आ वन का पशु-पक्षियन के शिकार, जलक्षेत्र से मछरी आदि बा. ई सब पशु छोट लड़िकन के दूध आदि खातिर बाड़न सऽ!’
– ‘ई गाँवन से चोरा के लियावल बा कि माँग के?’
– ‘ना कुछ जानवर भटक के बन में आ जालन स, त हमहन पकड़ लेनी सऽ. कुछ दुधारू पशु त नजदीकी क्षेत्र का हाट में, जंगली फल, दुर्लभ दवाई वाला वनस्पति आदि से अदल-बदल के ले आवल जाला, बाकि एह काम खातिर हमरा राज से कुच्छे लोग जाला, जे एह गाँव आ हाट का बात-ब्यौहार आ लेन-देन से पूरा परिचित बा. हिडिमा भीम के अइसे समझावत रहे, जइसे ओके बनक्षेत्र का लोगन के एक एक गतिबिधि आ क्रिया-ब्यापार के पता होखे.’

अब भीम ओही स्थान पर आ चुकल रहलन, जहाँ कुछ दिन पहिले उनकर स्वागत भइल रहे. सामने ऊ बटवृक्ष लउकत रहे, जेकरा नीचे सिंहासननुमा ऊँच पाथर शिला रहे ओकरा अगल बगल, पत्थल के लम्बा आ चाकर पटिया धइ के बइठे खातिर ब्यवस्था कइल गइल रहे. धनुषबाण आ लम्बा लम्बा नुकीला भाला आ खड्ग लिहले कुछ रच्छक जब अपना राजकुमारी के महाराज बृकोदर के सँग आवत देखलन स, त उनहन का चेहरा पर खुसी के एगो नया चमक उभरल आ फेरू ऊ मूड़ी नवावत ठेहुना मोरत झुकि के सादर अभिवादन कइलन स.

‘उत्तुंग काका कहाँ बाड़न?’ हिडिमा एगो रच्छक से पुछलस, ऊ इशारा करत दूर लउकत एगो एकपलिया पर्नकुटी का ओर अँगुरी देखवलस….
भीम ओकरा सँगे आगा बढ़ते रहलन, तबले पर्नकुटी से वृद्ध उत्तुंग दू गो रच्छकन का साथ तेजी से बहरा निकललन.
– ‘स्वामी, देखीं उतुंग काका आ रहल बाड़न. उनका बायाँ आ दायाँ ओर इहाँ के जोद्धा सेनानायक दांडी आ पुंडरक हवे लोग. पुंडरक नवजुवक हऽ, आ आपके परम प्रशंसक. ध्यान से बात करब… महाराज.’
– ‘अच्छा कइलू, पहिलहीं बता दिहलू!’ भीम धीरे से फुसफुसइलन, फेर ओह लोगन का तरफ बढ़े लगलन.
– ‘महाबली महाराज बृकोदर के जय!! मंत्री उतुंग के आवाज निकलल, त उनका बगल क दूनो नायक ठेहुनियाइ के मूड़ी नीचे क दिहलन सऽ. आपके कष्ट करे के का जरूरत रहल, हमहन खुद रउरा संकेत पर हाजिर हो जइतीं महाराज!’ वृद्ध मंत्री विनम्रता से कहलन त भीम आपन हाथ जोड़ के ओइसहीं नम्रता क परिचय देत कहलन, ”ना ना आप हमहन के संरक्षक हईं आ हिडिमा का कारन हमरो काका भइनी!“ उतुंग के सिकुरल आँखि डबडबा उठल.“ भीम का ओह विनम्र व्यवहार प ऊ भीतर से हुलसि उठलन बाकि मरजादा क ध्यान राखत कहलन, ”चलीं महाराज, आसन पर बइठीं, फेर जवन कहे के बा तवन कहीं आ निर्देश देईं. हमहन के खुद आपसे मिल के कुछ जरूरी बिचार कइल चाहत रहलीं जा.“

भीम चुपचाप ओह लोगन का साथ बढ़े लगलन त हिडिमा कहलस, ”आप सब चल के बइठीं, हम तनी काकी मां आ निरिमा से मिलल चाहत बानीं. महाराज के जदि अनुमति होई तऽ….“
– ‘हँ, हँ, काहे ना? बाकि कुछ पल बाद चल जइहऽ.’ भीम झट से कहलन.
– ‘महाराज हई दक्खिन-पूरब बनक्षेत्र क सेनानायक दाण्डी हउवन, रच्छक-जोद्धा लोगन में अनुभवी आ बुद्धिमान.’ उतुंग परिचय करवलन तऽ भीम दाण्डी का ओर ताकत हर्ष प्रगट कइलन, फेरू दुसरा ओर ओइसहीं तकलन.
– ‘ई पच्छिमी-उत्तर वाला क्षेत्र के रच्छक सेनानायक पुंडरक हउवन.’
– ‘कबो हमरो के अपना रच्छक सेना आ ओकरा तइयारी से परिचित कराईं सभे सेनानायक दाण्डी जी आ पुण्डरक जी.’ भीम दूनों नायकन में आपन विशेष रुचि देखवलन तं पुण्डरक के हाव-भाव से उनके बुझा गइल कि ऊ भीम के अतने दिलचस्पी पर अति उत्साह में आ गइल रहे.

उतुंग, भीम का साथ सिंहासन नियर बनल शिला तक गइलन आ उनका बइठ गइला का बाद, बायाँ ओर नीचे का स्थान पर हिडिमा के बइठाइ के अपनहूँ बइठ गइलन. उनका संकेत पर पुण्डरक कुछ दूर पर खड़ा रच्छकन का कान में कुछ कहलस. दूनों जाके दुसरा रच्छकन से कहलन स. पुण्डरक लवट के महाराज बृकोदर का बायाँ ओर खड़ा हो गइल.
– ‘महाराज ! हमहन का बनक्षेत्र का बाहरी जगत क सूचना समाचार देबे वाला कुछ गुप्तचरन से बाहरी गतिविधि के पता चलत रहेला, एही तरह हमन के अपना पारंपरिक वन-सम्पदा आ संसाधन का बूता पर अपना भरण-पोषण आ इच्छा के इन्तजाम करत रहीला… बाकि आर्यकुल के शिक्षा-सभ्यता के अधिक ज्ञान जानकारी त आपके पास बा. एह व्यवस्था में राउर सुझाव आ प्रशिक्षण हमहन का बहुत कामे आई.’ उतुंग धीरे धीरे भीम के आपन योजना बतवलन.
– ‘मंत्री जी, हम पहिले ई जानल चाहब कि रच्छकन क कतना संख्या बा, उनहन के जुद्ध-प्रशिक्षण के का बेवस्था बा?’
– ‘महाराज इहाँ जरूरत का मोताबिक रच्छक बाड़न. संख्या तीन सौ के आस पास होई. अइसे इहाँ बच्चा से लेके बूढ़ तक हर बनवासी अपना रच्छा भर व्यावहारिक युद्धकला जानेला, काहेंकि हमहन बनवासी हईं जा. इहाँ कब कइसन संकट आई एकर अनुमान आ सटीक अनुमान करे के योग्यता सबके दुरूह जीवन के अनुभव से अपना आपे आवेला. जइसे शिकार कइल, हिंसक जानवरन से बचाव कइल आदि सब केहू बचपने से सीखे जाने लागेला.’ सेनानायक दाण्डी बतवलस.
– ‘ठीक बा, बाकि हम आपका रच्छकन के जुद्ध-कला देखल चाहब. एक दिन अइसन आयोजन करीं, जेमे पचास गो चुनल रच्छक रहन स… हँ एह पचास में पूरा बनक्षेत्र का हिसाबे से चुनाव करीं, ई काम दू दिन बाद राखीं… ताकि हम अपना धर्नुधर भाइयो क सहजोग ले सकीं.’

भीम कुछ सोचत कहलन. फेर मंत्री का ओर ताकत प्रश्न कइलन. आचार्य जी से कइसे भेंट होई?
– ‘महाराज, आचार्य चाण्डक रमता जोगी ठहरलन… हम संपर्क करे के कोसिस करब आ दू दिन बाद का आपका निरीक्षण का समय बोलावे के बेवस्था करब.’ उतुंग आचार्य जी का प्रति महाराज बृकोदर के झुकाव से बहुत उत्साहित लउकलन. हिडिमा का आँखिन में एगो चमक उभरि आइल, जइसे ऊ भीम का एह चतुराई भरल संवाद के अपना भविष्य से जोरत होखे.
– ‘ठीक बा, मंत्री जी! आप लोग के धन्यबाद.’ अब हम हिडिमा का साथ घूमि के, इहाँ का लोगन से मिलल चाहत बानी, अगर आप सब क’अनुमति होखे, तऽ हम हिडिमा का बतवला अनुसार इहाँ के भ्रमण करीं…. भीम के एह प्रस्ताव पर हिडिमा मने-मन रीझि गइल.
– ‘जइसन आपके इच्छा महाराज, ई सभ राउर अपने हऽ. आपका एह प्रेम भाव से सभे खुश होई.’ मंत्री उतुंग उठ के खड़ा हो गइलन.

भीम हिडिमा के सँगे बनवासियन का आवासीय क्षेत्र का तरफ चल गइलन. ”हम आपका बुद्धि आ व्यवहार पर बहुत प्रसन्न बानी स्वामी, कुच्छे दिन में आप इहाँ के लोगन क दिल जीत लेइब, ई हमके विश्वास बा!“ हिडिमा भीम कावर नेह दीठि डालत कहलस.
काकी मां हिडिमा के देखते धधाइ के मिलली, भीम खातिर उनका आँख से प्रेम झरत रहे… ”आवऽ, आवऽ हमार प्यारी हिडिमा, आपो आईं महाराज…!“ कुटी का भीतर ढुकत काकी बोलली.
– ‘माँ तहरा हाथ के खाना खइले कई दिन हो गइल, आपके जमाई जी के भूख लागल होई.’ हिडिमा दुलरात काकी के अँकवारि में बान्ह लिहलस.
बाँस का छीलन से बीनल छोट चटाई बिछावत काकी कहली, ‘तूँ जमाई जी के इहाँ बइठावऽ, हम झट से कुछ बनावत बानीं!’
भीम पालथी मार के इतमीनान से बइठ गइलन, जइसे उनकर जानल पहिचानल घर होखे. हिडिमा काकी का पीछा दउरि गइल, फेर हाथ में एगो बड़हन पतई पर उसिनल कंद लेके लवटल. भीम का आगा धइ के बोलल, ”हम अब्बे जल लेके आवत बानीं…! काकी माँ आप खातिर एगो मधुर पेय बना रहल बाड़ी! बस कुच्छे घरी में तइयार हो जाई.“ ऊ वापस भितरी लवट गइल आ तुमड़ी में भरल जल लेके लवटल, ओकरा पाछा माटी के एगो बर्तन थमले काकी माँ लउकली… बर्तन से हलुके-हलुक भाप निकलत रहे, ”बेटा, पता ना, आपके कइसन लागी, बाकि हिडिमा के ई पेय बहुत रुचेला.“

हिडिमा कोना में पत्थल का पट्टी पर सजावल कुछ माटी के कोर बर्तन उठवलस आ तुमड़ी का जल से ओके जल्दी-जल्दी धोइ के भीम का आगा ध दिहलस, ”काकी माँ ई सब बर्तन खासकर आपे खातिर, बनक्षेत्र का पूर्बी गाँव वाला हाट से मँगा के रखले रहली.“ ऊ भीम के बर्तन का सफाई पर निश्चित करत दूगो बर्तन में पेय ढार दिहलस. ओकरा भाप से निकलल सुगन्ध बहुत प्रिय लागल. भोला भाला भीम के, काकी माँ के वत्सलता आ नेह ओ घरी बहुते अच्छा लागल.
– ‘वाह! अद्भुत, ई कइसे बनेला काकी माँ?’ भीम चुस्की लेत कहलन, ”स्वाद त कुछ-कुछ मधु लेखा बा!“
– ‘हँ एमे मधु डालल बा. बन में मधुमाछियन का छत्ता से निकलवाइ के काकी माँ बहुत जतन से एके राखेली. एकरा अलावा कुछ खास बनस्पति आ फेंड़ के छाल मिला के पकावल ई पेय, शरीर में चुस्ती-फुर्ती पैदा करेला…!’ हिडिमा बिधि के बरनन कइलस, भीम कन्द खात मीठ नजर से कबो हिडिमा के त कबो काकी माँ के देखत रहलन.
– ‘बौरी हियऽ ई! बेटा, ई जेतने भोली रहे ओतने चंचल! हम तऽ एक्के बचपने से पलले बानी… बहुत तकलीफ में…..’ काकी माँ के आँख के सामने कवनो अदृश्य, दृश्य पर टँगा गइल, ओकर आँख सजल हो उठल रहे.
– ‘हँ… एगो भयानक शीतलहर वाला आन्ही-बरखा आ बज्जर पात में हमार बाप-महतारी सँग ना जाने केतना लोग…’ हिडिमा के वाक्य ओकरा रुन्हल गर में अटक गइल.’
– ‘बेटा, ओह आन्ही बरखा आ बज्रपात में सबकर कुटिया तबाह हो गइल. पहाड़ के कंपन में अइसन जल-परलय कि ना जाने केतना जीवजंतु आ बनवासियन के झुंड बहि-बिला गइल. ओही अंधड़ वाला परलय में हमार…’ काकी माँ के दूनों आँखि से लोर टपके लागल.
– ‘भाई हिडिम्ब, हम आ कुन्दु बस तीन गो लड़िकन के अपना गोदी में लेके काकी माँ, बिशाल बट वाला गुफा में छिप गइल रहली.’ डबडबाइल आँख से हिडिमा अपना बचपन के इतिवृत्त खोललस.

अवाक् भीम का भीतर सहानुभूति आ करुना के ज्वार उठल, ”हम समझ गइनी काकी माँ, हिरमी के पालक माँ आपे हईं, बाकि ई कुंदु के हऽ? आपके लइका?“
– ‘हँ, ऊ हमार भाई ह…. बहुत संवेदनशील, नेही-छोही आ परिश्रमी. कुटिया में धइल ई सब चीज ओकरे मेहनत क फल हऽ. आप त ओसे मिलल बानी आर्य? हमहन का बियाह का दिन ऊ बहुत मेहनत कइले रहे. आ आश्रमों में कुटिया बनावे का समय बाँस, सरपत आ मूँज ओकरे तीव्र परिश्रम से जुट गइल रहे. ऊ बहुत कम बोलेला स्वामी, बाकि हमरा से अपार नेह करेला. भाई हिडिम्ब से हमके हमेशा दुतकार, झिड़की आ गाली मिलल. भाई के वास्तविक प्रेम त हमार अनुज कुन्दुये देत आइल.’ हिडिमा कुन्दु के बखान करत ना अघात रहे. भीम अपना आप पर झुंझलात दुखी होत रहलन कि अतना प्रिय आ समर्पित व्यक्ति के आजुले ऊ ना जान पवलन. उनके क्षोभ एकर रहे कि अपना प्रिया भार्या के प्रिय अनुज, जवन हर मोका पर उनका आगा-पाछा तत्पर रहल, कइसे उपेक्षा हो गइल? ऊ बेकली में कहलन, ”ए बेरा कहाँ होई कुन्दु?“
– ‘हम आ गइनी महाराज!’ कुटिया में घुसत चुस्त-फुर्तीला नवजुवक उनका आगा झुकि गइल, ओकरा पाछा निम्बा आ निरिमा पहुचलन सऽ.

भीम उठि के खड़ा हो गइलन आ अपना आगा झुकल कुन्दु के कान्ह धइ के सीधा करत अपना छाती से लगा लिहलन. उहाँ खड़ा सब लोग, इहाँ तक कि खुद कुन्दु का समझ में ना आइल, बाकि हिडिमा अपना प्रिय का हृदय के भाव समझ गइल. निरिमा आ निम्बा के अभिवादन के उत्तर भीम गरदन हिला के दिहलन आ कुटी से बहरा निकलि अइलन. उनका पाछा-पाछा कुन्दु आ निम्बा बहरियाये लगलन स त हिडिमा टोकलस, ”महाराज के अकेल मत छोड़िहऽ लोग.“
– ‘हँ भाई, बड़ा मुश्किल से उनके सखी हिडिमा छोड़ले बाड़ी.’ हँसत निरिमा हिडिमा से अइसे लपटाइ गइल जइसे बरिसन के बिछुड़ल होखे, फेरू चुहल करत फुसफुसाइल, ”का सखि प्रेम-जर उतरल कि ना तहार?“
– ‘अभी कहाँ, ऊ उतरते फिरू अवरू चढ़ि गइल!’ हिडिमो ओइसहीं जबाब दिहलस.
– ‘अरे बावली, देखऽसन कि जमाई जी कहाँ गइलन, काकी माँ घबड़ाइल टोकली.’

निरिमा दुआरि का ओट से झाँक के देखलस, ओकर दूनों दुलरूआ भाई महाराज सँगे हँस हँस के कुछ बतियावत रहलन सऽ.
कुछ देर बाद हिडिमा, निरिमा सँग बाहर निकलि आइल, आ दूनों अनुजन के टोकत बोलल, ”आजु महाराज इहें विश्राम कइल चाहत बानी! कुछ विशेष बेवस्था करऽ लोग, जेसे इहाँ के सुख मिले!“
– ‘ना भाई, ई का कहत बाड़ू? माता आ बड़ भाई खोजी लोग. आ हमार ऊ दूनो नटखट – छोट भाई भोजन ना करिहें स!’ भीम अचकचाइ के कहलन त हिडिमा खिलखिलाइ के हँस दिहलस, ”हम जानत बानी महाराज!“
– ‘ठीक बा, त अब आपके का बिचार बा? थोरिके देर में दिन ढरी, आप चाहीं त इहाँ कुछ अउर देर घूम-फिर सकीलें!’
– ‘तूँ बतावऽ; अउर कहाँ घूमल जा सकेला?’ भीम शरारत भरल नजर से हिडिमा का ओरि ताकत उल्टे सवाल कइलन.
– ‘देखीं महाराज हमनी का त आपके पछलगुवा अनुगामी हईं जा! ई हमहन के रहे वाला सुरक्षित क्षेत्र हऽ. एकर घेरा लगभग कोस भर में बा. बीच में कुछ खाली जगह छोड़-छोड़ के बसल एह पूरा क्षेत्र में, आपके बहुत कुछ अइसन मिली, जेके देखि के आपका मन में जिज्ञासा होई, आप ओके जान-समझ के आपन सुझाव आ निर्देश दे सकीलें.’ हिडिमा अपना बनवासी समुदाय के अन्दरूनी स्थिति आ बेवस्था समझावत कहलस.
– ‘ठीक बा, चलऽ चलीं जा आ जल्दी-जल्दी एक चक्कर मारि आईं जा. फिर साँझ होखे से पहिले आश्रम लवट चले के.’ भीम सबका ओर ताकत अइसे कहलन, जइसे सबके साथ ले गइल चाहत होखसु.

फिर त हिडिमा आ ओकर दूनो अनुज भीम का सँगे ओह अन्तर्क्षेत्र का भ्रमण पर निकल पड़लन सऽ. राह में कुछ जगह पर लकड़ी आ बाँस के मिलाइ के बाड़ा लेखा घेरल क्षेत्र लउकल. हिडिमा ओमे से कुछ के प्रशिक्षण स्थल, कुछ के रच्छक-निवास, कुछ के दवा-दारू निर्माण स्थल बतवलस, भीम हर बाड़ा का भीतर एक ओर छाजन वाला कुटी अइसन पलानी देखलन. लगभग कूल्हिन का मुख्य दुआरी पर एगो-दूगो रच्छक लउकलन स, जवन उनके आवत देखि के फुर्ती से झुकि के दूनों बाँहि फइला के अभिवादन कइलन सऽ. एकदम खुला जगह में कहीं-कहीं जामुन, बइर आ अनचीन्ह बिचित्र प्रकार के फलदार वृक्ष लउकलन सऽ… एक जगह जहाँ ऊ अचंभित होके रुकि गइलन, एगो बड़हन जल-कुन्ड रहे जवना में पहाड़ी से बहत जल धीरे धीरे आके गिरत रहे. तीनों ओर से मिट्टी-पत्थर से मजबूती से बान्हल ओह जलकुंड के पानी एकदम साफ रहे. कुछ औरत माटी के बड़-बड़ बर्तन में पानी भरि भरि के ले जात रहली सऽ. हिडिमा बतवलस कि ई जलकुंड ओ लोगन के संचित आ सुरक्षित जलकुंड हऽ. एमे नहाये आ बस्त्र धोवे के मनाही बा. बरसात का समय जल अधिका भइला पर एकर बंधा दू तरफ तनी सा खोल दिहल जाला, जवन खाली क्षेत्र का पेड़-पौधा आ खाये जोग बनस्पतियन का सिंचाई का काम आवेला. इहाँ से कुछ दूर एगो अउर जलाशय बा – बाहरी किनारा पर.

ऊ भारी अचरज में रहलन कि जवना समाज के ऊ अबले जंगली आ असभ्य बूझत रहलन, ओकर कतना सोचल-समझल अनुशासित बेवस्था बा. अपना अल्प-ज्ञान आ प्राकृतिक संसाधन का बूता पर खड़ा कइल गइल एह बेवस्था में राज-बेवस्था के अनुशासित आ समर्पित सहजोग साफ-साफ झलकत रहे.

बेरा नवत रहे. हिडिमा का कहला पर भीम का साथे सभे लवटि आइल. भीतरी क्षेत्र के पूरा निरीक्षण ना हो पावल… बाकि भीम सोचत रहलन कि कवनो दुसरा दिने, ऊ जरूर अपना-अनुजन का साथ इहाँ घुमिहन. ओहू लोग के इ पता चली कि बन प्रान्तर में रहे वाला कोल-भील आ अन्य बनवासियन में अपना समाज आ परिवार का भरण-पोषण आ रहन सहन के कतना सहज नैसर्गिक ब्यवस्था बा. बाहरी संसार के मैदानी भू-भाग वाला लोग अगर कृषि, पशुपालन आ बागवानी पर निर्भर बा त इहाँ खुद प्रकृतिये अपना से सटल रहे वालन खातिर नैसर्गिक सुबिधा से संपन्न बनवले बिया.
(अगिला कड़ी के इन्तजार करीं.)


छठवीं कड़ी | पंचवी कड़ी | चउथी कड़ी | तिसरकी कड़ी | दुसरकी कड़ी | पहिलका कड़ी


डा॰ अशोक द्विवेदी के परिचय

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