दुर्गम बन पहाड़न का ऊँच-खाल में जिए वाला आदिवासी समाज के सहजता, खुलापन आ बेलाग बेवहार के गँवारू, जंगलीपना भा असभ्यता मानेवाला सभ्य-शिक्षित समृद्ध समाज ओहके शुरुवे से बरोबरी के दरजा ना दिहलस. समय परला पर ओकर उपयोग जरूर कइलस.
खुद क उपजावल असंगति आ अन्तर्विरोध क शिकार सभ्य शिक्षित कहाए वाला ई समाज अपना सुविधा-स्वारथ का मोताबिक धर्म-अधर्म, नैतिक-अनैतिक आ पाप-पुण्य के व्याख्या क लिहलस. दोसरा ओर नैसर्गिक स्रोत से जुड़ल असभ्य बनचर कहाए वाला लोग अपना सोझबक सचाई, प्रेम, समर्पन, त्याग आ बलिदान से मानवी संबंधन के गरिमा पराकाष्ठा ले चहुँपवलस.
‘बनचरी’ पौराणिक कथासूत से बिनल, भोजपुरी के अइसन क्लासिक उपन्यास बा; जवन यशस्वी कवि-कथाकार डा॰ अशोक द्विवेदी के प्रसंगजोग चित्रमय-भाषा आ कविता जस कहनई का चलते समय-सन्दर्भ आ कालखण्ड के जियतार उरेहत वैचारिक भाव-भूमि पर पहुँचावत बा. ‘लोक’ से ‘लोकोत्तर’ बनत ‘बनचरी’ नारी के प्रणय, सामरथ, संघर्ष, तप आ बलिदान के अइसने जियत गाथा ह. इहाँ कथाकार पढ़ल-सुनल से पार आ परे जाइ के कुछ अनसुलझल-अझुराइल सवालन के जवाब खोजत मिल जाई.
भोजपुरी उपन्यासन के इतिहास में ‘बनचरी’ कालजयी आ मील के पत्थर बन के उभरी, एकर पूरा भरोसा बा. ‘भोजपुरिका’ ला ई गर्व आ गौरव के बात बा कि उपन्यास ‘बनचरी’ के ओकरा प्रकाशनो से पहिले धारावाहिक रूप से प्रकाशित करे के मौका मिल गइल बा. लीं, रउरो सभे एह उपन्यास के आनन्द लीं.
नीमन लागल