भोजपुरी भाषा, समाज आ संस्कृति

(निबंध)

भोजपुरी भाषा, समाज आ संस्कृति

चंद्रेश्वर

(एक) हमनी के रहब जानी दूनों परानी

 

भोजपुरिया समाज आ संस्कृति के संरचना में खेती-किसानी के मुख्य भूमिका रहल बा. खेती-किसानी के असल आधार ह श्रम. भोजपुरिया समाज के लोग श्रम से, अटूट मेहनत से कबो अलग होखे के बारे में ना सोच सके. एह समाज के भूगोल में पूर्वी उत्तर प्रदेश आ पश्चिमी बिहार के नियामक भूमिका रहल बा. एह क्षेत्र में लोग के जीविका के साधन खेतिए-किसानी रहल बा. एहिजा बड़हन उद्योग-धंधा के फरे-फुलाए के अवसर बहुते कम मिलल बा. ईहे वजह बा कि एह क्षेत्र से रोज़ी-रोज़गार के चक्कर में हरमेस पलायन आ विस्थापन होत रहल बा. अंग्रेज़ी राज में एहिजा से गिरमिटिया मजदूर बनि के बहुत लोग बाहर मारीशस, फीजी, सूरीनाम, गुआना आ नीदरलैंड गइल आ ओने के धरती के आपन मेहनत, ख़ून-पसीना से सींच के आबाद क दिहल. भोजपुरिया समाज के पुरबिया समाज कहहूं के चलन रहल बा. पुरबिया समाज के बारे में कहल जाला कि एहिजा के लोग भावुक होला आ आपन परंपरा, जड़-ज़मीन,जगह, गाँव-जवार, रीति-रिवाज़, तीज-त्योहार से जुड़ल रहेला. एहिजा के लोग देश-विदेश के केवनो कोना में जाई बाकिर आपन मूल पहचान के मिटे ना दिही. आपन बोली-बानी आ भाषा के लहज़ा आ ख़ूबी के बचा के राखी. एह सब के बावजूद एहिजा के लोग स्थानीयता में क़ैद हो के ना जियल चाहे. एहिजा के लोग हरमेस भाषाई अस्मिता आ संस्कृति के मामला में कट्टरपन से दूर रहल बा. एहिजा के लोग भोजपुरी से प्यार करेला बाकिर हिन्दी के आगे कइ के. आपन समाज से एहिजा के लोग मुहब्बत करेला बाकिर राष्ट्र आ देष के क़ीमत पर ना. भोजपुरी में सन् 1911 में रघुवीर नारायण ‘बटोहिया’ गीत के रचना कइले रहलन जेवना में भारत देश के भूगोल आ सांस्कृतिक विरासत आ ख़ूबी के वर्णन कइले बाड़न–“सुंदर सुभूमि भइया भारत के देसवा से, मोर प्रान बसे हिम खोह रे बटोहिया।“ भोजपुरी के अधिकतर गीतन में भारत के नाम बेर-बेर आइल बा.

भोजपुरिया समाज के लोगन के जीवन प सगुण भक्ति काव्य से ज्यादा निर्गुण भक्ति काव्य के प्रभाव रहल बा. एह समाज के रचे-गढ़े, शिक्षित आ संस्कारित करे में गोरखनाथ, कबीर, रैदास, भरथरी, भिनक राम अस संत-महात्मा के योगदान विषेष रहल बा. भोजपुरिया समाज एगो जुझारू समाज रहल बा. एह समाज के ऊपरी तबका प तुलसी आ “रामचरित मानस“ के प्रभाव लक्षित कइल जा सकत बा.

भोजपुरिया समाज के लोग के सुभाव अक्खड़ होला. एहिजा के लोग जेतने भावुक होला ओतने होला साफ़ बोले वाला. एहिजा के लोग के जीवन शैली में गीत-संगीत के प्रधानता रहल बा. एने के लोग अपना जीवन के हर मोरचा प लड़त-जूझत मिली त गुनगुनावतो मिली.

भोजपुरिया समाज के लोग रोज़ी-रोज़गार के चक्कर में विस्थापित भइल बा त भोजपुरी साहित्य में जेवन मुख्य धारा बा ओकरा प एकर असर देखल जा सकत बा. भोजपुरी पूर्वी गीतन के जनक आ स्वंतत्रता सेनानी महेंदर मिसिर के लिखल पूर्वी गीतन में विस्थापन के दरद आ टीस के पुरजोर अभिव्यक्ति
भइल बा. उन्हुकर एगो पूरबी गीत प्रस्तुत बा जेवना में एगो गंवई मेहरारू के विरह-वेदना के महसूस कइल जा सकत बा –

अतना बता के जइहे कइसे दिन बीती राम।
हमनी के रहब जानी दूनो परानी

आंगना में कींच-कांच दुअरा पर पानी।
खाला-ऊँचा गोड़ परी चढ़ल बा जवानी. हमनी।

देस-बिदेसे जाले जाले मुलतानी।
केकरा पर छोड़ के जाले टूटही पलानी. हमनी।

कहत महेन्दर मिसिर सुने दिलजानी।
केकरा से आग मांगब केकरा से पानी।

हमनी का रहब संगे दुनो हो परानी।

आगे चल के भोजपुरी के मशहूर लोक-कलाकार, कवि-नाटककार आ अभिनेता भिखारी ठाकुर एही विस्थापन आ विरह-वेदना के आधार बना के “बिदेसिया“ नाटक के रचना कइले बाड़न. भोजपुरिया समाज के जीवटपन आ भोजपुरियत के, ओकर ठेठ संस्कृति के जांच-परख करे के होखे त पौराणिक पात्र विश्वामित्र, बुद्ध, गोरखनाथ, भरथरी, कबीर, रैदास, महेंदर मिसिर, भिखारी ठाकुर, भोलानाथ गहमरी,मोती बीए,राम जियावन दास बावला से लेके विजेन्द्र अनिल आ गोरख पाण्डेय तक के रचना आ चिंतन के मरम के समझे के परी.

भोजपुरिया समाज के संस्कृति आरंभ से प्रतिरोध के चेतना से जुड़ल रहल बा –विश्वामित्र से लेके समकालीन समय तक. भोजपुरी में हर समय में ग़लत बेवस्था के विरोध में आवाज़ उठत रहल बा.

एहू समय में भोजपुरी में नीमन आ बाउर दूगो धारा के बीच संघर्ष देखल जा सकत बा. एक ओर बाजारवाद के चक्र व्यूह में फँस के लोभ-लालच में फ़ूहड़ सिनेमा बनि रहल बा, द्विअर्थी के नाम प बाउर गाना लिखा रहल बा त स्वस्थो परंपरा से जुड़ के काम हो रहल बा. सोशल मीडिया प एह दूनो धारा के बीच टक्कर दिखाई परत बा.

भोजपुरिया समाज के सर्व स्वीकृत महानायक-नायक के रूप में विश्वामित्र, बुद्ध, गोरखनाथ, कबीर, रैदास, लोरिक, वीर कुँवर सिंह, मंगल पाण्डेय, कवि कैलाश, महेंदर मिसिर, भिखारी ठाकुर, हीरा डोम, रसूल मियां, मुहम्मद खलील, राजेन्द्र प्रसाद, जगजीवन राम आदि के नाम सहज रूप से गिनावल जा सकेला. भोजपुरी भाषा हरमेस जाति,वर्ण, धर्म आ मज़हब के संकीर्ण दायरा से बाहर रहल बिया. एकर ईहे उदार सोच एकर बोले-लिखे वाला समाज के सदियन से ताक़त रहल बा.

(दू) गरब ना करिबा,सहजे रहिबा

दुनिया भर में एह बात प लोग ज़रूर राजी होई कि आपन बोली आ भाषा में बोलल-बतियावल अवरू लिखल -पढ़ल सबके नीमन लागेला. आपन हिरदय के भाव-संवेदना, विचार से सिंचल गइल अनुभूति के साफ़गोई आ सहजता के साथ आपन मातृभाषा माने आपन बोली में व्यक्त कइल जा सकत बा. मध्यकालीन हिन्दी साहित्य में एक से बढ़ि के एक संत-भक्त कवि पईदा भइल लोग; ऊ सब लोग आपन स्थानीय बोली में कहल-लिखल, जेकरा के आजु पुरान हिन्दी कहल जाला. गोरखनाथ, कबीर, रैदास भोजपुरी में लिखल-कहल लोग त मल्लिक मुहम्मद जायसी, तुलसी,रहीम अवधी आ सूरदास, रसखान, मीरा आदि ब्रजभाषा में लिखल-कहल लोग. ओह दौर के काव्य में लोक संस्कृति के जीवंत छाप आ असर के गहिरारे देखल जा सकत बा. ओह दौर के काव्य के महत्ता आ लोकप्रियता के पीछे एगो कारन बोलियो में लिखल-कहल रहल बा. “मेरा दागिस्तान“ जइसन पुस्तक के सोवियत रूस में सन् पचास के दहाईं में रसूल हमजातोव आपन बोली “अवार“ में लिखले रहलन जेवन आजु संसार में एगो सेसर लेखक के रूप में गिनालन. एह पुस्तक के असंख्य पाठक आजु दुनिया के कोना-कोना में फइलल बाड़न. आपन बोली भोजपुरी के सुनते हमरो चेतना उजियार हो उठेले. दिल-दिमाग़ के रस मिले लागेला. एकर सबदन के कान में घुलते जबदलो कान सही हो जाला. सबद आ अरथ के संगति समुझ में आवे लागेला.

हम जब आपन गाँव-गिराँव से निकसली त शुरू में भोजपुरी से दूर निकल जाए के बारे में ख़ूब सोचलीं. हिन्दी से आगे बढ़के बिलायती बोली अँग्रेज़ी के अपनवलीं. का ना कइलीं मोर बबुअवो! बाक़ी सब बोली-बानी के रचल-बसल संस्कार हमरा भीतर जस के तस. भोजपुरी सुनते फुरहुरी होखे लागेला, हमार सरीर में. अगर एकरा के बोलला ढेर दिन हो जाला त हमार जीभिया अँइठाए लागेले. तबीयत उदास हो जाला. ढेर दिन प गाँवे गइनी त लोगन के भोजपुरी में बतियावल सुननी. मन हरियराए लागल. चेहरा खिले लागल. अइसन लागल कि जइसे नाक में जनेरा भा बूँट के लावा भा चबेनी के सोंधाई समा गइल ..

मकइया रे तोर गुन गवलो ना जाला,
आगे -आगे हर चले पीछे ले बोआला,
मकई के खेत रगड़ -रगड़ जोताला ।
दाल करे फटर-फटर भात उधियाला,
भइंसी के माठा जोरे सर-सर घोंटाला,
मकइया रे तोर गुन गवलो ना जाला।

भिखारी ठाकुर के गावल गाना मन परे लागल. अपना बोलिया में बोलला प सभ दिल के बतिए उपरियाए लागेला. पता ना ई कँवन जादू ह बबुआ. अब बेरि-बेरि बबुआ कहला प कवि गोरख पाँड़े ईयाद आवत बाड़ें. उन्हुकर एगो गीत के अंतरा इयाद आवत बा —

“ समाजबाद बबुआ धीरे -धीरे आई !
हाथी से आई,घोड़ा से आई
अंग्रेजी बाजा बजाई,
समाजवाद बबुआ –!

हमरा जब भोजपुरी मे बोले के होला त बाबा गोरखनाथ से ले के गोरख पाँड़े के इयाद स्वाभाविक रूप से आवेला . साथे -साथे बाबू रघुवीर नारायण के “बटोहिया”, प्रिंसिपल मनोरंजन प्रसाद सिन्हा के “फिरंगिया“ आ भिखारी ठाकुर के “बिदेसिया“ के इयाद अपने-आप आ जाला . ईहे लोग काहे, भोलानाथ गहमरी, मोती बीए से ले के कैलाश गौतम आ केतने पुरान-नवहा कवियन-गीतकारन के लाइन इयाद परे लागेला – अशोक द्विवेदी, प्रकाश उदय से ले के मनोज भावुक तक एगो लमहर लिस्ट बनि जाई.

फिरंगियन के भगावे में “फिरंगिया“ गीत के बहुत महत्व रहल बा. ऊ अपना समय के सचाइयन के बटोरले बा आ फिरंगियन के अंत में ख़ूब सरापतो बा. जनगन के दुरदसा प. “बटोहिया“ में करुन रस आ बीर रस एगो -दोसरा से बिलग नइखे हो पावल. एकरा में करुन रस त रहबे करी काहे से कि देसवा बाबू रघुवीर नारायण के बेर गुलामे नू रहे; बाकिर जँवन आज़ादी के लड़वइयन के हुँकार रहे, आस आ भरोस रहे, ऊ उत्साहे का चलते. ओकरे चलते देसवा के भावुक अंदाज़ में बड़ाइयो भइल बा. बड़ाई के हक़दार त हमार देसवा हइये ह. अब दीगर बात बा कि कुछ लोग ओकर “इमेजवा“ बिगाड़ल चाहत बा. अजबे रार मचल बा. कोई साँच पतियाते नइखे —

“ साँच कहत जग मारन धावै,
झूठे जग पतियाना ।
रे साधो देख ई जग बउराना ।।

भोजपुरी में ई सब भाव आ बिचार के देखल जा सकेला. एक बेरि हमार एगो चेला जे गवइया हो गइल बाड़न, हमरा से कहलन कि गुरु जी रउरा मंच प हमरा बारे में बोले के बा भोजपुरिए में. हम बोले सुरू कइली त हमरा कबीर आ गोरखे इयाद परल लोग. हम कहलीं कि ई भोजपुरी के महतारी संसकिरते के कहल जाला. ई लड़वइन के पुकार आ ललकार के बोली ह. ई प्रतिरोध के बोली ह त सिंगारो के सिंगार ह ई बोली. गोरखनाथ एगो दोहा में कहले बाड़न कि –

‘हबकि ना बोलिबा, ठबकि ना चलिबा, धीरे धरिबा पाँव ।
गरब ना करिबा, सहजे रहिबा ,भणत गोरख राँव ।।

त भोजपुरिया के सुभावे गोरखनाथ के सुभाव ह. कबीर गवले बाड़न कि ‘तोर हीरा हेराइल बा कचरे में।’ त ई लहज़ा भोजपुरी के ह ए बबुआ. सीधे -दू टूक बात . घुमावदार बात ना. अभिधा ढेर आ बेंजना कम. ईहे त लालित्य ह हमार माईबोली भोजपुरी के.

(तीन) अब केहू गांवे लवटल नइखे चाहत

गाँव में जब केहू के बेटी के बारात आवत रहे त सब केहू जाति,धरम आ मज़हब के खोल भा केंचुल उतार फेंकत रहे. सब सहकार आ सहयोग के भावना से भरल रहत रहे. पहिले केहू के परिवार में काज-परोजन परे त ऊ बिना संकोच आ हिचकिचाहट के सब से मदद लेत रहे. केहू से चौकी त केहू से बरतन, केहू से तोसक-चादर आ दरी-तिरपाल त केहू से कुरसी आ मेज़ माँगल जात रहे. आजु लेखा ना कि सब किछु ठेका प आवत बा अब त लागत बा कि षहरी राछस ठाढ़े सोगहग गाँव के चबा गइल बा. अँजरी-पँजरी किछुओ नइखे छोड़ले . पहिले पता कइल जात रहे कि गाँव में केकरा -केकरा दुवार प लगहर गाइ आ भईं बाड़ी स. दू दिन पहिलहीं से दूध-दही माँग-माँग के बटोरल जात रहे. अब त नकली पनीर आ खोवा के खपत गाँवों में बढ़ गइल बा. ई नकली पनीर आ खोवा मुँह में ले जात ज़ल्दी घुलते नइखे. ह त, पहिले जब केहू के बेटी के बारात आवे त किछु खल लोग खलई आ गुंडा लोग गुंडइयो करे से बाज ना आवत रहे. ऊ लोग पसन से आपन चाल भा छाव देखा देत रहे. एक बेर के घटना ह कि फलाना पाँड़े के बेटी के बारात आइल त किछु लोग सामियाना के दरी प चुपके से जा के कवाछ छिरिक दिहल.

कवाछ एगो पौधा होला जेवना से पाउडर लेखा पदारथ निकलेला . ओकरा के केहू प फेंक द भा कहीं बिस्तर प, कुरसी प गिरा द त देह के जेवना अंग से कवाछ के इचिको “टच“ हो जाई त सच में नोचनी (चुनचुनाहट) उठ जाई. ओह पूरा बारात के बाराती लोग के चूतर में नोचनी उठ गइल रहे. दुआरे बारात के लगावो जाके, सब केहू एने -ओने भागे लागल. ओही बारात में पानी पिए वाला डराम में केहू नीम के पतई पीस के ओकर गोला बना के डाल देले रहे. बहुत छानबीन भइल रहे बाक़ी षातिर अपराधी के पता ना चलल. क बार त लोग पानी में जमालगोटा डाल देत रहे आ बाराती लोग के हालत ट्रक के टायर लेखा पंक्चर हो जात रहे. फलाना पाँड़े कहिहे बराबर कि जे गाँव के राजनीति बूझ ली, ऊ देस-दुनिया में कहीं फेल ना हो सके, कवनो इम्तहान में.

गाँव में बारात के खिया के भवदी के लोग खात रहे, बाद में सब केहू. एह कुल्हि मोका प बहुत सामाजिक भेदभाव देखे के मिलत रहे. अब एने एह जातिगत भेदभाव के मामला में किछु ढीलापन आइल बा. अब गाँव में बेगार करेवाला लोगन के संख्या कम भइल बा पहिले एह जातिवादी व्यवस्था में एगो सहकार आ समंजन के भावो जत्र -तत्र लखाई पड़त रहे, अब ई भाव त सिरे से नदारद बा. अब केहू बिना पइसा के केवनो सलाम नइखे सुनत. केहू काम के बदला में टका खोजत बा. गाँव में जाति व्यवस्था में किछु ढीलापन आइल त षहर के पइसवा के रोग ओकरा के अवरू बुरा बना देलस. ना आदमी एने के रह गइल ना ओने के. ज़हरबाद फइल गइल.

पहिले गाँव के नोकरिहा लोग बेटा-बेटी के बियाह गाँव से करत रहे, अब गाँव के नाव प सबकर ईमान काँपे लागत बा. गाँव जे पहिले छोड़त रहे त गाँव से ओकर एगो सनेह आ सहज लगाव के धागा जुड़ल रहत रहे; बाक़ी अब त केहू गाँवे लवटल नइखे चाहत. ‘इतते हीं सब जात है, आवत कोऊ नाहीं।’ ई जेवन “ग्लोबलाइजेसनवा“ के आन्ही चलल आ झूठ -फूर “ग्लोबल गाँव“ के बतकही चलल गाँव अवरू कमज़ोर होत गइले स. ई बतिया हमार बार -बार पीछा करेला. खलिसा गाँव के दोख नइखे, जे बड़ शहर में जा के बस जाता ऊ गाँव में लवटलो नइखे चाहत.

हमनी के देस में दू गो चीज़ू परधान रहे — गँवई जीवन शैली, रहन-सहन, खान-पान आ कृषि संस्कृति. ई दूनो प जबरजस्त चोट भइल बा. गांधी बाबा कहले रहन कि भारत के आतमा गाँव में बसेला. ई देस गाँवन से बनल बा. गाँव रही त देस बाँची; बाक़ी होत बा एकरा उलटा; जइसे तारक मेहता के उलटा चश्मा. सब ज़ोर शहर प बा– गाँव, ग़रीब आ किसान के सब भूलत जा रहल बा. कबो हिन्दी के महाकवि सुमित्रानंदन पंत कविता लिखले रहलन कि “अहा! ग्राम्य जीवन भी क्या है !“ अब त ऊ गाँव स्मृति के हिस्सा होत जा रहल बाड़े स.

एने गाँव से ढेर ख़बर ख़राबे मिलल . लागत बा कि गाँव बंबई महानगर के केवनो मुहल्ला होखे; जेवन केवनो डॉन भा माफिया के निगरानी में होखे. एक दिन बाबूजी मोबाइल प कहलन कि अब गाँव में दिनवे में डकैती हो जात बा . किछु लोग एह मानसिकता के हो गइल बा कि केहू के घर में कबो कूद जात बा. गाँव में पहिले कबो -कबो पुलिस -दरोगा आवत रहे लोग; बाक़ी अब ई एगो धंधा हो गइल बा. साँच पूछल जाय त लोग पुलिस -दरोगा से डेरातो नइखे.
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631/58, सुयश, ज्ञानविहार कॉलोनी,
कमता-226028, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

(भोजपुरी दिशाबोध के पत्रिका पाती के सितम्बर 2024 अंक से साभार)

 

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