(दयानंद पाण्डेय के लिखल आ प्रकाशित हिन्दी उपन्यास के भोजपुरी अनुवाद)

दुसरका कड़ी से आगे…..
कहल जाला कि अर्जुन द्रोपदी के एहीसे जीत पवले कि उनुका बस मछरी के आँख लउकत रहे. जबकि बाकी योद्धा पूरा मछरी देखत रहले आ एह चलते मछरी के आँख ना भेद पवले. से द्रोपदियो के ना जीत पवले. बाकिर केहू के जीते के अपना लोक कवि के स्टाइल कुछ दोसरे रहे. ना त ऊ अर्जुन रहले ना अपना के अर्जुन का भूमिका में देखत रहले तबहियो ऊ जीतत जरुर रहले. एह मामिला में ऊ अर्जुनो से दू डेग आगा रहले काहे कि लोक कवि मछरी आ मछरी का आँख से पहिले द्रोपदी के देखसु. बलुक कई बेर त ऊ बस द्रोपदिये के देखसु. काहे कि उनुका निशाना पर मछरी के आँख ना द्रोपदी रहत रहे. मछरी भा मछरी के आँख त बस साधन रहुवे द्रोपदी के जीते के. साध्य त द्रोपदिये रहुवी. से ऊ द्रोपदी के साधसु, मछरी भा मछरी के आँख नाहियो सधे त उनुका कवनो फरक ना पड़त रहे. ऊ गावतो रहन, ‘बिगड़ल काम बनि जाई, जोगाड़ चाहीं’. एहसे केहू हत होखऽता कि आहत, एहसे उनुका कवनो सरोकार ना रहत रहुवे. उनुका त बस अपना द्रोपदी से सरोकार रहत रहुवे. ऊ द्रोपदी शराबो हो सकत रहे, सफलतो. लड़कियो हो सकत रहे, पइसो. सम्मान, यश, कार्यक्रम भा जवन कुछ होखो. उनुकर संगी साथी कहबो करसु कि, ‘आपन भला, भला जगमाहीं !’ बाकिर लोक कवि के एहसे कवनो फरक ना पड़त रहे. हँ, कभी कभार फरक पड़ियो जाव. तब जब उनुकर कवनो द्रोपदी उनुका ना भेंटात रहे. बाकिर एह बाति के गाँठ बन्हले ऊ घुमतो ना रहले कि ‘हऊ वाली द्रोपदी ना मिलल !’ बलुक ऊ त अइसन अहसास करावसु जइसे कुछ भइले ना होखे. दरअसल दंद-फंद आ अनुभव उनुका के बहुते पकिया बना दिहले रहुवे.
एक बेरि के बाति ह. लोक कवि के एगो विदेश दौरा तय हो गइल रहे. एडवांसो मिल गइल रहे, तारीख तय ना भइल रहे. दिन पर दिन गुजरत रहे बाकिर तारीख तय ना हो पावे. लोक कवि के एगो शुभचिन्तक बहुते उतावला रहले. एक दिन लोक कवि से कहले, ‘चिट्ठी लिखीं.’
‘हम का चिट्ठी लिखीं. जाए दीं.’ लोक कवि कहले, ‘जे अतने चिट्ठी लिखल जनती त गवैये बनतीं ? अरे साटा पर आपन नाम आ तारीख लिख दिहिलें, उहे बहुत बा.’ ऊ कहे लगले ‘कहीं कुछ गलत सलत हो गइल त ठीक ना रही. जाए दीं मामिला गड़बड़ा जाई.’
‘त फोन करीं.’ शुभचिन्तक के उतावली गइल ना रहे.
‘नाहीं. फोन रहे दीं.’
‘काहे ?’
‘का है कि बेसी कसला पर पेंच टूट जाला.’ लोक कवि शुभचिन्तक के समुझावत कहले.
शुभचिन्तक एह लगबग अपढ़ गायक के ई बाति सुनके हकबका गइले. बाकिर लोक कवि त अइसने रहले.
सगरी चतुराई, सगरी होशियारी, ढेर सगरी गणित आ जुगाड़ का बावजूद ऊ बोलत बेधड़क रहले. ई शायद उनुकर भोजपुरी के माटी के रवायत रहुवे कि अदा, जानल मुश्किल रहे. आ ऊ अनजाने ही सही एकाध बेर नुकसानो का कीमत पर कर जासु आ कुछऊ बोल जासु. आ जे कहल जाला कि ‘जवन कह दिहनी से कह दिहनी’ पर अडिगो रह जासु.
अइसने एक बेर एगो कार्यक्रम ले के लोक कवि का गैराज वाला डेरा पर चिकचिक चलत रहुवे. लोक कवि लगातार पइसा बढ़ावे आ कुछ एडवांस लेबे का जिद्द पर अड़ल रहुवन. आ क्लायंट जे बा से कि पइसा ना बढ़ावे आ एडवांस का बजाय सिरफ बयाना दे के साटा लिखवावल पर अड़ल रहुवे. क्लायंट का सिफारिश में कवनो कार्पोरेशन के एगो चेयरमैनो साहब लागल रहलें. काहे कि एगो केन्द्रीय मंत्री के चचेरा भाई होखला का नाते चेयरमैन साहब चलता पूर्जा वाला रहले. आ लोक कवि के जनपद के मूल निवासिओ. ऊ लोक कवि से हमेशा लगभग अफसरी-सामंती अंदाज में बतियावसु. ओहू दिन ‘मान जो, मान जो’ कहत रहले. फेर लोक कवि के तनिका इज्जत देबे का गरज से ऊ हिन्दी पर आ गइले, ‘मान जाओ, मैं कह रहा हूं.’
‘कइसे मान जाईं चेयरमैन साहिब ?’ लोक कवि कहले,’रउरा त सब जानीले. खाली हमही रहतीं त बात चल जाइत. हमरा साथे अउरियो कलाकार बाड़े. आ ईहाँ के पूरा पार्टियो चाहीं.’
‘सब हो जाई. तू घबरात काहे बाड़ऽ ?’ कहत चेयरमैन साहब लोक कवि के धीरे से मटकी मरले आ फेर कहले, ‘मान जो, मान जो !’ फेरु अपना जेब से एक रुपिया के सिक्का निकालत चेयरमैन साहब उठ खड़ा भइले. लोक कवि के ऊ सिक्का देत कहले, ‘हई ले आ मिसिराइन के ‘हियां’ हमरा ओरि से साटि दीहे.’
‘का चेयरमैन साहिब, रउरो ?’ कहके लोक कवि तनी खिसियइले. बाकिर चेयरमैन साहब के एह फूहड़ टिप्पड़ी के जवाब ऊ चाहियो के ना दे पवले आ बाति टालि गइले. चेयरमैनो साहब क्लाइंट का साथे चल गइले.
चेयरमैन साहब के जातही लोक कवि का गैराज में बइठल उनुकर एगो अफसर दोस्त लोक कवि के टोकले,’ रउरा जब ई कार्यक्रम नइखे करे के त साफ मान काहे ना कर दिहनी ?’
‘रउरा कइसे मालूम कि हम ई कार्यक्रम ना करब ?’ लोक कवि तनी हमलावर होत पूछले.
‘रउरा बातचीत से.’ ऊ अफसर बोलले.
‘अइसे अफसरी करीं ले रउरा ?’ लोक कवि बिदकले, ‘अइसहीं बातचीत के गलत सलत नतीजा निकालब ?’
‘त ?’
‘त का. कार्यक्रम त करही के बा चाहे ई लोग एक्को पइसा ना देव तबहियो.’ लोक कवि भावुक हो गइले. कहले, ‘अरे भाई, ई चेयरमैन साहिब कहत बानी त कार्यक्रम त करही के बा.’
‘काहे ? अइसन का बा एह दू कौड़ी के चेयरमैन में ?’ अफसर बोलल. ‘मंत्री एकर चचेरा भाई ह नू ! का बिगाड़ लीहि. तेह पर रउरा से फूहड़ आ बेइज्जत करे वाला टिप्पणी करत बा. के हई ई मिसिराइन ?’
‘जाए दीं ई सब. का करब रउरा जानि के ?’ लोक कवि कहले, ‘ई जे चेयरमैन साहिब हउवें नू, हमरा के बहुते कुरता पायजामा पहिरवले बाड़न एह लखनऊ में. भूखे सूतत रहीं त खाना खिअवले बाड़न. जब हम शुरु शुरु में लखनऊ आइल रहीं त बड़ सहारा दिहले. त कार्यक्रम त करही के बा.’ कहि के लोक कवि अउरी भावुक हो गइले. कहे लगले, ‘आजु त हम इनका के शराब पियाइले त पी लेले. हम उनुका बरोबर में बइठ जानी त खराब ना मानसु आ हमार गानो खूब सुनेलें. आ एहिजा ओहिजा से परोगराम दिलवा के पइसो खूब कमवावेले. त एकाध गो फ्री परोगरामो कर लेब त का बिगड़ जाई ?’
‘त अतना नाटक काहे ला कइले रहीं?’
‘एहसे कि ऊ जवन क्लायंट आइल रहे ऊ पुलिस में डीएसपी बा. दोसरे एकरा लड़िकी के शादी. शादी का बाद विदाई में रोआरोहट मचल रही. के माँगी पइसा अइसनका में ? दोसरे, पुलिस वाला हऽ. तीसरे ठाकुर हऽ. जे कहीं गरमा गइल आ गोली बंदूक चलि गइल, त ?’ लोक कवि कहले, ‘एही नाते सोचत रहली कि जवन मिलत बा एहीजे मिल जाव. कलाकारनो भर के ना त आवही जाए भर के सही.’
‘ओह त ई बाति बा.’ कहिके ऊ अफसर महोदय भउँचकिया गइलन.
चेयरमैन प्रसंग पर अफसरके सवाल लोक कवि के भावुक बना दिहले रहे. अफसर त चल गइल बाकिर लोक कवि के भावुकता उनकरा पर सवारे रहे.
फेरु अगिला कड़ी में
लेखक परिचय

अपना कहानी आ उपन्यासन का मार्फत लगातार चरचा में रहे वाला दयानंद पांडेय के जन्म ३० जनवरी १९५८ के गोरखपुर जिला के बेदौली गाँव में भइल रहे. हिन्दी में एम॰ए॰ कइला से पहिलही ऊ पत्रकारिता में आ गइले. ३३ साल हो गइल बा उनका पत्रकारिता करत, उनकर उपन्यास आ कहानियन के करीब पंद्रह गो किताब प्रकाशित हो चुकल बा. एह उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं” खातिर उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान उनका के प्रेमचंद सम्मान से सम्मानित कइले बा आ “एक जीनियस की विवादास्पद मौत” खातिर यशपाल सम्मान से.
वे जो हारे हुये, हारमोनियम के हजार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाजे, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास), बर्फ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित), आ सुनील गावस्कर के मशहूर किताब “माई आइडल्स” के हिन्दी अनुवाद “मेरे प्रिय खिलाड़ी” नाम से प्रकाशित. बांसगांव की मुनमुन (उपन्यास) आ हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे (संस्मरण) जल्दिये प्रकाशित होखे वाला बा. बाकिर अबही ले भोजपुरी में कवनो किताब प्रकाशित नइखे. बाकिर उनका लेखन में भोजपुरी जनमानस हमेशा मौजूद रहल बा जवना के बानगी बा ई उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं”.
दयानंद पांडेय जी के संपर्क सूत्र
5/7, डाली बाग, आफिसर्स कॉलोनी, लखनऊ.
मोबाइल नं॰ 09335233424, 09415130127
e-mail : dayanand.pandey@yahoo.com

0 Comments