– डॉ कमलेश राय,
(एक)
समाज आज कऽ
जाने कइसे रही निरोग
बढ़ल जात बाटे दिन पर दिन
अब अखबारी लोग ।
झूठ, फरेब, जाल, तिकड़म
के बा गोरखधंधा
निपट सुवारथ में हो-होके
आँखि अछत अंधा
घर के भीतर घात करे
अबके घरबारी लोग ।
समझ न आवे सही गलत में
के अब फरक करी
दूध -दूध , पानी क पानी
के अब बिलग करी
हंस क चोला पहिन के
बइठल बा दरबारी लोग ।
सस्ता दर सस्ता देखीं
ईमान भइल बाटे
मुश्किल आज आदमी क
पहिचान भइल बाटे
रोज करत बा
आन्हर ऐना क रखवारी लोग ।
टूट गइल बा कच्चा धागा
रिश्ता नाता कऽ
दांव चढ़ल बाटे पांचाली
अब मरजादा कऽ
चुप्पी साधि परल बा
बोले कऽ अधिकारी लोग ।
(दू)
एतना बा पानी अंखियन में
ढरि ढरि पीर हरे
बजर भइल छाती अब
केहू केतनों मूंग दरे !
हूम करत में हाथ आगि से
एतना बेर जरल
अब ना दाह-ताप क तनिको
मन में फिकिर रहल
दहत-तपत ई जिनगी
चाहे जेतना बेर जरे !
जेकर ना आकाश,
पांखि नाहीं परवाज बचल
नाहीं कवनों आस,
चाह नाहीं आवाज बचल
केतना धीर धरे जिनगी में
केतना आह भरे !
जेकर सेज काँट पर
बाटे गतर- गतर पीरा
जहर पिये बनिके
कबहूँ सुकरात कबों मीरा
साँच कहे में ऊ केहू से
काहें भला डरे!
– डॉ कमलेश राय,
खण्डेलवाल स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मऊ (उत्तर प्रदेश)
(भोजपुरी दिशाबोध के पत्रिका पाती के अंक 103 से साभार)
डा. कमलेश राय के दुनो कविता बहुत निमन आ प्रभावशाली लागल.
– कमल किशोर सिंह