– डॉ अशोक द्विवेदी
हम भोजपुरी धरती क सन्तान, ओकरे धूरि-माटी, हवा-बतास में अँखफोर भइनी। हमार बचपन आ किशोर वय ओकरे सानी-पानी आ सरेहि में गुजरल । भोजपुरी बोली-बानी से हमरा भाषा के संस्कार मिलल, हँसल-बोलल आ रोवल-गावल आइल। ऊ समझ आ दीठि मिलल, जवना से हम अपना गँवई लोक का साथे, देशो के इतिहास भूगोल समझनी, आनो के आपन मननी । संग-साथ का सामूहिक उतजोग से पारस्परिकता के भाव जगल। जीवन-संस्कृति के लूर-सहूर सिखनी हमरा एह व्यक्तित्व का निर्मान में पहिल भूमिका भलहीं हमरा माई-बाप, सगा-सम्बन्धी चाचा-चाची, मामा-मामी, फुआ, ईया-बाबा क रहे, बाकिर ओहू अनगिनत लोगन के रहे जे समय समय पर भाई, गुरु, सँधतिया, हीत-मुदई बनि के मिलल । आपन धरती, हवा-पानी, डँड़ार-सिवान, नदी-ताल, बाग-बन आ बोली-बानी केकरा ना रास आवे, केकरा ना रुचे ! हमरो अपना ओह सगरे क गरब-गुमान बा, जवन हमरा के रचलस-ओरिचलस !
इस्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय में पढ़ला-लिखला-सिखला के जेवन मोका मिलल, ओहू क क्षेत्र, भोजपुरिये रहे – याने गाजीपुर, बलिया, बनारस। हमार माई सिवान (बिहार) जिला के रहे, जवना कारन हमरा में भोजपुरी लोक के ऊ सोगहग संस्कार आइल, जवना में लोक-संस्कृति के जियतार विस्तार आ गहिराई के अनुभूति-प्रतीति भइल। पोथी ज्ञान खातिर हिन्दी, अंगरेजी, संस्कृत जइसन प्रचलित भाषा हमरा शिक्षा क माध्यम जरूर रहे, बाकि ओह सबसे सटल आ ब्यौहारिक रूप से जुड़ल उर्दुओ के शब्द ज्ञान कामे आइल। हमरा उच्च शिक्षा में निजी रुचि का कारन साहित्य पढ़े के रहे, एहसे अवधी, ब्रजी, मैथिली, राजस्थानी आदि भाषा- सब के जाने-समझे के अवसर मिलल। ओइसे गोसाईं तुलसीदास के रामचरित मानस त हमरा भाषा-समाज के ब्योहारे में रहे बाकि हिन्दी साहित्य पढ़े में, एह सब लोक-भाषा के विस्तार आ गहिराई के थोर-बहुत थाहे आ ओमे पँवरे के संजोग भेंटाइल । बड़ जेठ क नेह-प्रीति, असीस-प्रोत्साहन मिलल त दीठि आ समझ के फइलाव भइल।
ओह समय भोजपुरी, अवधी, ब्रजी, बुन्देली, राजस्थानी, पंजाबी वगैरह के हिन्दी से कवनो भेद दुराव ना रहे, बुझाव जइसे सब हिन्दिये के हऽ आ हिन्दिया सिखावे-पढ़ावे वाला लोगवा एह सबके हिन्दिये क माने । थोर-बहुत संस्कृत, पालि, अपभ्रंश, अवहठ्ठ आदि पुरनकी भाषा सब के शब्दवा अटपट आ दुरूह जरूर लागे, बाकि ई खूब नीक से बुझाय कि एकरा जनला बिना हिन्दियो क जानकारी ना पूर होई । अभी हे दे ले हमनी के, अपना माई-भाषा में लिखत पढ़त, कुछ हिन्दियाइन लोग का उपेक्षा-तिरस्कार का बावजूद ईहे बूझत रहनी कि सब मिला के एक्के हवे । थोर-ढेर अन्तर का बादो, एह देश का लोकतंत्र में सब भाषा के बिकसे बढ़े क समान अधिकार आ अवसर बा । भोजपुरी भा राजस्थानी वाला लोग, अपना साहित्य आ बोलनिहार-संख्या का दिसाईं सबल भइला का बावजूद अपना के, एह समानता के अवसर से वंचित बूझत बा । एकर कारन, ऊ भेदभाव आ बरकाव बा, जवना में कवनो बड़-बरियार भाई अपना छोटका पर, आपन बर्चस देखावेला आ रोब झाड़ेला।
राजनीति में ई भेदभाव आ बरकाव साफे चिन्हा जाला। तब झुठिया के रेवड़ी बाँटल आ लेमनचूस देके फुसिलावल कामे ना आवे। ओइसे हमन जइसन लोगन में, ई भेदभाव आ भाषा-दुराव ना कबो पहिले रहे, ना आज बा, हँ …कुछ स्वनामधन्य ‘हिन्दी बचाओ’ अभियान वाला कथित हिन्दी-प्रेमी लोग के ‘भोजपुरी’ ‘राजस्थानी’ बिरोध देखि के अचरज आ दुख जरूर भइल । ओइसे अनुज डा0 प्रकाश उदय हमरा नाँवें लिखल अपना चिट्ठी में एह महान हिन्दीप्रेमी लोगन के ‘‘हिन्दी के ‘खाता’ आ ‘त्राता’ नाँव देले बाड़न, सहिये लागल । अपना कुतरक-प्रोपेगेन्डा से एह लोग क बिसूरल देखि हँसियो आवऽता आ रोवाइयो ! पता ना ऊ लोग आ ओह लोगन के पोंछिटा सँभारे वाला लोग हिन्दी के अजान-अनचीन्ह भुतभाँवर से बँचावल चाहत बा कि ओकरे पाछा से लुत्ती लेसि के आगि लगावल चाहत बा । अइसे भाषिक दुराव आ हिन्दी के खण्डित- राष्ट्रवाद का आड़ा, छिपल एह ‘खाऊ’ बर्चस्व देखावे वाला लोगन के काहें हिन्दी के हितकारी मानल जाव? हिन्दी पूरा देश के जोड़े वाली सम्पर्क भाषा आ राजभाषा हउवे, कवनो एगो खोंढ़िला के भाषा थोरे हवे ! कवनो एगो क्षेत्रविशेष के भाषा थोड़े हवे, ऊ त सबसे मिलके, सबसे लेके, सबसे जुड़के आपन बल-बउसाय आ सामरथ बढ़वले बिया । ए भइया लोग, काहें ओके कुतरक का गँड़ासी से टुकी टुकी करे पर लागल बाड़ऽ जा !
संबिधान के अठवीं अनुसूची देश आ देश के भाषा-समाज के सँवारे-सँभारे खातिर हऽ। ओमें राजस्थानी, भोजपुरी के शामिल करे क माँग कइला पर काहें दूनी ए ‘हिन्दी बचाओ’ मंच वालन का पेटे बत्था आ मरोड़ उठऽता। कहीं कि हिन्दी के खइलका एह लोगन के अपच आ बेगँव कइले बा। ए भाई, हमहन का ‘जीये आ जिये दऽ’ वाला भोजपुरी-लोक के हईं जा, खाली ‘अपने’ ना, ‘लोको’ के कल्यान खातिर रोवे-गावे वाला, सभका जोग-क्षेम क मंगलकामना करे वाला, देश खातिर जीये-मुवे वाला, बुडबक-बकलोले सही, ठोक-बजाइ के निठोठ बोले वाला भोजपुरिया हईं जा ! भला के अपना भाषा संस्कृति आ लोकपरम्परा के हेठी करे आ ओकरा राही काँट बिछावे वाला के आसनी बिछाई ? भोजपुरिया त असहीं बे बेजाँय कइले, अपना सोझ साफ कड़ेर बोली-बानी बदे बदनाम बाड़े सन।
भोजपुरी जनपदन का लोक के लोहा देश के गुलाम बना के राखे वाला अंगरेजवो मनले बाड़े सऽ! ओकरा प्रतिभा, बल-पौरुख आ पराक्रम के पताका बिदेस ले फहरल, ओकरा कुशलता आ मेहनत -मजूरी से देश क बड़-बड़ महानगर दमकले सऽ । एही भोजपुरिया लोक से राष्ट्रपति निकलले, महामना निकलले, बड़ -बड़ साहित्यकार, रणनीतिकार आ सिद्ध महतमा निकलले। देश खातिर जूझे-मरे वाला बीर बलिदानी निकलले, जवना के गिनती गिनले ना गिनाई । करोड़ों का संख्या वाला ओ भोजपुरियन के एह जनतांत्रिक देश में अपना भाषा खातिर निहोरा-प्राथना करे के पड़त बा।
भइया-बाबू, बहिनी हो, एह भाषा में ‘मैं’ ना, ‘हम’ बोलल जाला । ‘हम’ सहभागी-समूह क बोध करावेला, ओह संस्कृति चेतना के अँजोर देखावेला कि सबका साथे मिल के करे, मिल के चले, मिल के खा-पीये, मिल के गावे-बजावे, उत्सव करे, परब -तिहवार मनावे ! हमहन जोरला में बिश्वास राखीले, तुरला में ना ! सोगहग के उपासना करीले, खण्ड-खण्ड के ना ! तूहूँ बनल रहऽ, हमहूँ बनल रहीं ! हिन्दियो बनल रहे, भोजपुरियो बनल रहे । ई बाँटे- अलगावे वाली राजनीति चाहे जे करे, ओकर मुखौटा उतरे के चाहीं । भाषा के आड़ लेके, भाषा के राजनीति आ मठाधीशी करे वालन क साँच उघारल जरूरी बा !
भोजपुरी दिशाबोध के पत्रिका पाती के सितम्बर 2017 अंक से साभार
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