सीख भरल कविता


– अशोक कुमार तिवारी

(एक)

बैर बेलि जे उपजल भाई-भाई में,
जइहैं दूनो जने जरुरे खाई में ।

नीक-जबून कहे से पहिले सोच लिहीं,
जनि बोलीं कुछऊ कबहूँ अकुताई में।

जतने हिलब-हिलाइब ओतने खतरा बा,
रहीं साधिके समय नदी के नाई में।

परसउती तऽ गोड़ पटकबे कइल करी,
बाकिर धीरज हवे जरूरी दाई में।

एगो सेवेला एगो छटकावेला,
बहुत फरक बा रखवरिहा आ चाई में।

(दू)

अगरचे सोच के बोलब केहू से बैर ना होई।
केहू से दुश्मनी रखले केहू के खैर ना होई।।

समय संसार के नदिया में डइनासोर ले डूबल,
बिचारीं ऊँट ले बड़हन गदहा के पैर ना होई।

सुते जे नीन गफलत के दिना के दूपहर तकले,
इ तय बाटे कि ओकरा से सुबह के सैर ना होई।

हरेक सुख-दुख में बाटे जे सवाचत हाल रउवा से,
केहू अपने होई ऊ बूझ लीहीं गैर ना होई।

(भोजपुरी दिशाबोध के पत्रिका पाती के दिसम्बर 2022 अंक से साभार)

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