सुभाष पाण्डेय ‘संगीत’ के तीन गो गीत

(एक)

बेंड़ल बजर किंवाड़, यार अइले, चलि गइले !
ना सुनि परल पुकार, यार अइले, चलि गइले !

सूरज-चन्दा कऽ जोती से, तरइन का झिलमिल से,
शान्त गगन कऽ मौन सुरन से, पर्वत विश्व अखिल से,
हँसि-हँसि करत गुहार, यार अइले, चलि गइले !

पवन बसन्ती उनके चिट्ठी लेके आइल दुअरा,
उपवन गन्ध उड़वलस पहुँचल प्रान रंध्र का नियरा,
सब कुछ देल बिसार, यार अइले, चलि गइले !

चहकत चिरइन कऽ बोली में राग मिला के गवले,
बालक बनि हँसले, एने से कुछ ना आहट पवले,
खुलल न भुज-अँकवार, यार अइले, चलि गइले!

खिड़की ऊपर इन्द्रधनुहिया परदा रोजे तननी,
के आइल, के हाँक लगावल भर जिनिगी ना जननी,
तकनी ना आँखि पसार, यार अइले, चलि गइले !

(दू)

तोर नइहर से आइल हई बदरी
भिंजावे मोरि पगरी धनी !

होके पुरुआ सवार, घेरे अँगना दुआर
घूमे गाँव, खरिहान, सारी नगरी
भिंजावे मोरि पगरी धनी !

सँगे बिजुरी सहेली, घूघ काढ़ि बिहँसेली
मारि कनखी लुकाइ जाली कगरी
भिंजावे मोरि पगरी धनी !

चढ़ि रहेली कपारे, भोरे, साँझि, भिनुसारे
ना बिचारे घेरि रोकि देली डगरी
भिंजावे मोरि पगरी धनी !

आजु महुअरि बनावऽ खुद हाथ से खियावऽ
ना त आइ रोज-रोज इहो झगरी !
भिंजावे मोरि पगरी धनी !

(तीन)

नीक लागे शहरी मसाला
ना इनका गँउंवाँ सोहाला हो !
देखि कुदार कँहरनी घेरे, हँसुआ देखि मियादी
खुरुपी खून सुखावे जइसे, माटी लगी, मुआ दी.
तब कइसे भेंटाई निवाला,
ना इनका गँउंवाँ सोहाला हो !

टेक्टर देखि सरेन्डर बोले, हर ना पकड़े हाथे
सुनते सोहनी नाक सिकोरे, बोझ न ढोवे माथे
बिन दीया मनावे उजाला,
ना इनका गँउवाँ सोहाला हो !

रेक्सा खींचे पटना जाके, बम्बे में दरबानी
नाला कगरी भइल बिछौना, पन्नी बनलि पलानी
इहाँ घर में लगल बड़ ताला,
ना इनका गँउवाँ सोहाला हो!

खेते उपजल मोथा दूबा, दिल्ली में बगवानी
सोना त्यागे, लोहा खोजे, खुद से करि बेइमानी
भुंइँ पुरुखा के जोगवल बिकाला,
ना इनका गँउवाँ सोहाला हो !

1 Comment

  1. Anonymous

    सुभाष जी के गजल गीत सुनदर लागल.
    पगरी शब्द हमनी का पगड़ी खातिर भी प्रयोग करीं ला बाकी यहाँ राह से सम्बन्धित बा . समझे में तनी समय लागल. सरस और सिक्त गीत