हमके दारू ना मेहरारू चाहीं फिलिम के नायक आ सकारात्मक फिलिम के पैरोकार

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आजु संजय भूषण पटियाला के भेजल सामग्री मिलल त विडम्बना सजीव लउके लागल. भोजपुरी के फिलिमकारन के एगो नया शगल बन गइल बा कि काम चाहे जइसन करसु बोले में भोजपुरी के पैरोकार बने लागल बा लोग. जे लोग सुबहित नाम ना खोज सके अपना फिलिमन के, ढंग के भोजपुरी संवाद ना दे सके, एगो कालजयी गीत ना लिख सके उहो लोग अब समहर पारिवारिक मनोरंजन के बात करे लागल बा.

अबहीं जवना संदर्भ में बात होखत बा ओह बारे में जान लिहल जाव. जब फिलिम के नाम पढ़नी त लागल कि कहीं गलती हो गइल बा. फिलिम के नाम होखी ‘हमके दारू ना मेहरारू चाहीं’ आ गलती से लिखा गइल बा कि ‘हमके दारू नहीं मेहरारू चाहिए’. बाकिर जब कई बेर इहे नाम देखनी त लागल जरूर कवनो चटकलिया हीरो होखी जवन चटकलिया हिंदी में बतियावत होखी. नाम कुछु हो सकेला बाकिर नाम देख के लागत बा कि पता ना फिलिम के भासा कवन होखी, भोजपुरी आ कि चटकलिया हिन्दी? रउरा में से कुछ लोग सोचत होखी ई कवना हिन्दी के हम नाम लेत बानी त जान लीं कि बंगाल में एक जमाना में चटकल, जूट मिलन, के बहुते जोर रहे आ एह मिलन में भोजपुरिया मजदूरो खूब रहलें. बंगाल का परिवेश में सहज लागे बुझाए खातिर उ लोग हिन्दी बोले के भरपूर कोशिश करे आ ओही कोशिश में बन गइल चटकलिया हिन्दी. हम जब आवता था नू तो देखता था कि साहिब के मेमिन फटर फटर बतियावता था रंगरेजी में से हमहूं थोड़ बहुत सीखने लगा आ कुछ सीखियो गया हूं. अइसने एगो किरदार बाबू रामेश्वर सिंह कश्यप के लिखल रेडियो नाटिका ‘लोहा सिंह’ में मौजूद रहल खुद लोहा सिंह का माथ किरदार में. ओह घरी के उ नाटक खूब लोकप्रिय भइल रहे आ खदेरन के मदर, फाटक बाबा, बुलाकी जइसन किरदार सभका जुबान पर चढ. गइल रहले.

खैर बतकुच्चन लिखत लिखत आदत पड़ गइल बा आ बात कुछ बहक गइल. लवटल जाव सतेन्द्र सिंह के साक्षात्कार पर. संजय भूषण पटियाला एह सामग्री में एह ले बढ़िया लगले कि बेमतलब ढेर सगरी नाम देबे के जरूरत बा पड़ल उनका. एगो मुद्दा उठा के ओह पर चरचा चलावल चहले आ कम से कम ई चहलके बधाई के जोग बा. आशा कइल जाव कि गँवे गँवे एह तरह के चरचा करत करत भोजपुरी सिनेमो में कुछ सुधार देखे के मिले लागो.

रउरा सभे के जान के अचरज हो सकेला कि हमरा फिलिम देखला पता ना कव बरीस हो गइल होखी. रात दिन फिलिमे आ कलाकारे लोग के चरचा कइला का बादो समय ना मिल पावे सिनेमा हाल में जा के फिलिम देखे के आ कबो सोचीलें कि महुआ चैनले पर भोजपुरी फिलिम देख लीं त तनिके देर बाद मन उजबुजाए लागेला आ चैनल बदला जाला. अइसन नइखे कि हम दोसरा भासा के फिलिम देख लेनी आ भोजपुरी के ना देखीं. दू तीन महीना में एकाध गो अइसन फिलिम जरूर देख लीलां जवन हमरा के दू अढ़ाई घंटा ले बन्हले राख सको. भोजपुरी के अइसन कवनो फिलिम एने हमरा ना मिलल जवन हमरा के एह तरे बान्ह सको.

सिनेमा दृश्य माध्यम ह. देखा के बतावेला. देखा के सुनावेला. बाकिर अगर कथानक का हिसाब से सेट ना सजल होखे, किरदार का हिसाब से डायलाग ना बोलात होखे, परिवेश का हिसाब से परिधान ना बनल होखे त अधिका देर ले रउरा सहज ना रह सकीं. का सोचल जा सकेला कि कबो भोजपुरी में अइसन कवनो फिलिम आई जवना के तुलना तीसरी कसम भा थ्री इडियट जइसन फिलिमन का तरह कइल जा सकी. उमेद कइला में कवनो हरजा नइखे आ एही उमेद पर हम चलत बानी.

भोजपुरी डाॅट को पर सतेन्द्र सिंह के साक्षात्कार पढ़ल मत भुलाएब. आ रउरो सभे के फर्ज बनत बा कि कुछ कहल करीं. दू चार आदमी के छोड़ दीं त कवनो पाठक पाठिका टिप्पणी ना करसु. एकाध गो जवन अइबो करेला तवन दू चार शब्द में काम चलावे के कोशिश भर होला भा केहू के पीठ थपथपा देबे भर. एहसे आगे बढ़ीं. तनी लमहर टिप्पणी करे के आदत डालीं. लागे के चाहीं कि भोजपुरियो पाठक पाठिका लोग का लगे बहुत कुछ कहे के बा. कब ले दोसरे के सुनब आ पढ़ब? कुछ आपनो सुनाईं आ पढाईं. हम इन्तजार करब.

– ओमप्रकाश सिंह

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