हमने अपना मजहब बदल लिया


माफ करिएगा, मजहब नहीं मातृभाषा बदल ली है. अब आप पूछ सकते हैं कि कोई अपनी मातृभाषा कैसे बदल सकता है. तो जब आदमी अपना मजहब बदल सकता है, देश की नागरिकता बदल सकता है, तब अपनी मातृभाषा क्यों नहीं बदल सकता ! यह प्रश्न नहीं एक यथार्थ है.

19 जुलाई 2003 को एक अति उत्साही भोजपुरी प्रेमी ने एक शुरुआत की थी दुनिया में भोजपुरी में पहली वेबसाइट बनाने की. तब तक यूनीकोड की सुविधा भी नहीं थी और वेबसाइट के अतिथियों को पहले अपने कंप्यूटर में देवनागरी का फॉन्ट डाउनलोड करना पड़ता था. अब तो यूनिकोड का जमाना है, आपके कंप्यूटर पर उस भाषा का फॉन्ट हो न हो आप अपनी भाषा में, या कहिये अपनी भाषा लिपि में प्रकाशित सामग्री देख और पढ़ सकते हैं. 21 साल बाद वह लड़का अब बालिग हुआ है. उसे महसूस हुआ कि वह जिस भाषा के लिये अपना श्रम, अपना संसाधन झोंक रहा है उस भाषा को उसकी जरुरत ही नहीं. एक बन्धु ने बहुत कड़वा सच भी बता दिया कि भोजपुरी ने तो आपको बुलाया नहीं था, आप स्वयं आए थे इस उमीद में कि जहाँ पेड़ पौधे नहीं हो वहां के लिए रेंड़ का पौधा ही वृक्ष समान मान लिया जाता है. इस 21 वर्ष में किसी भी भोजपुरी संस्था या सम्मेलन ने अंजोरिया कि कभी अंगीकार नहीं किया. संविधान की आठवीं अनुसूची में भोजपुरी को शामिल कराने कि जिद रखने वाले लोगों ने कभी `अंजोरिया को यथोचित मान्यता नहीं दी. लेखकों, कवियों ने अपनी रचनायें भेज कर मुझे कृतार्थ किया. इस 21 वर्ष में दर्जनों या कहूं तो शताधिक लोगों से संपर्क हुआ पर उन लोगों ने भी जल्दी ही मुंह मोड़ लिया.

आखिर भोजपुरी के उत्थान के लिये संस्था सम्मेलन बनाने चलाने वाले लोग कैसे सहन कर सकते थे कि कोई वेबसाइट ऐसा भी हो जहाँ सिर्फ भोजपुरी चलती हो. भोजपुरी के नाम पर संस्था सम्मेलन चलाने वाले सभी लोग अपनी प्रेस विज्ञप्तियां हिन्दी में ही भेजा करतेे है. क्योंकि उनको खबर हिन्दी के अखबारों में छपवानी होती है, भोजपुरी का कोई अखबार नहीं चलता, एकाध पत्रिका को छोड़ कोई पत्रिका नियमित रुप से प्रकाशित नहीं हो पाती क्योंकि उसको पर्याप्त समर्थन नहीं मिलता, ग्राहक नहीं मिलते. और भोजपुरी के किसी वेबसाइट के लिये भला वह इतनी जहमत क्यों उठायें कि भोजपुरी में अपनी विज्ञप्ति भेजें.

तो आज से मैंने अपनी मातृभाषा बदल ली है. अब मेरी मातृभाषा भोजपुरी न होकर हिन्दी हो गई है. सिंह राठौर छूटे न छूटे अब मैं मुर्तुजा हो गया हूं. याद है न गुलाम कश्मीर के एक मुख्यमंत्री का नाम मुर्तजा सिंह राठौर हुआ करता था. जो कौम अपनी बिरादरी के आदमी को संरक्षण नहीं दे सकती, उसका पोषण नहीं कर सकती भला उस कौम में बने रहने की जरुरत क्या है !

अब अंजोरिया पर हर सामग्री हिन्दी में ही प्रकाशित हुआ करेगी. पढ़ने वालों को शिकायत नहीं होगी कि आप ठेंठ भोजपुरी के शब्दों का शशिथरुर प्रयोग कर मुसीबत खड़ी कर देते हैं अपना लिखा समझने में. शशिथरुर के शब्दों को त शब्दकोषों में देखा जा सकता है, भोजपुरी का तो शब्दकोष भी सहज उपलब्ध नहीं है. दोस्त साथी भी शिकायत करते थे कि क्या लिख मारते हो कि हम लोग उसे पढ़ ही नहीं पाते. आशा है अब उन लोगों तक मैं सहजता से पहुँच पाऊँगा.

भोजपुरी अमर रहे !

– आपका अपना ओम

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