(दयानंद पाण्डेय के लिखल आ प्रकाशित हिन्दी उपन्यास के भोजपुरी अनुवाद)
बीसवाँ कड़ी में भोजपुरी के दुर्दशा पर लोक कवि के दुख पढ़ले रहीं अब पढ़ीं एह उपन्यास के आखिरी कड़ी …..
अबहीं ठीक से भोर भइलो ना रहल कि लोककवि के फोन के घंटी बाजल. फोन उहे उठवलें. बाकिर ओने के बात सुनते सन्न रह गइलें. रात के नशा उतर गइल. चेयरमैन साहब के हार्ट अटैक भइल रहे. भागल-भागल लोक कवि उनुका घरे चहुँपले तब ले चेयरमैन साहब सांस छोड़ चुकल रहलें.
चेयरमैन साहब के मजल में बड़हन भीड़ जुटल. कमोबेस सगरी राजनीतिक पार्टियन के लोग, हर तबका के लोग ओहमें शामिल रहे. अमीर, गरीब, अफसर, चपरासी, नेता, कलाकार, पत्रकार के ना रहल दोसरका दिने भइल श्रद्धांजलिओ सभा में सभे आइल. अधिकतर लोग औपचारिक ना हो पावल. कमोबेस सभे कवनो ना कवनो संस्मरण सुनावल जवना में चेयरमैन साहब झांकत रहलें. लोक कवि कवनो संस्मरण ना सुनवलें. बस अतने भर कहलें, ‘लखनऊ में विधायक जी हमरा के ले अइलें आ उनुका बाद हम चेयरमैने साहब के शरण में रहनी. गरीबी में हमरा के कुरता पायजामा पहिनावत रहले. खाना खिआवसु. बहुते प्यार से. ऊ हमार अइसन गार्जियन रहलें जे जब चाहे हमरा के डांट सकत रहलें, दुत्कार आ दुलार सकत रहलें. कुछउ कह सकत रहलें, कवनो समय, कतहियों हमरा के बेइज्जत कर सकत रहलें. कतहियों. कबहियों हमरा के अपना कपार पर बइठा सकत रहलें. हमरा के मान, सम्मान दे दुलरा सकत रहलें. उनुका ला हमरा जिनिगी में पूरा छूट रहुवे. हमार अनेके दुख बँटलन, हमार अनेके सुख छीनले, अनेके सुख दिहलें. हरदम हर मोर्चा पर हमार मदद करत रहलें. काहें से कि ऊ हमार गार्जियन रहलें.’ कहत-कहत लोक कवि फफक के रो पड़ले. आगे ना बोल पवलें जब कि ऊ बहुत कुछ बोलल चाहत रहलें. बाकिर उनकर रुलाई रुकत ना रहुवे, उ करबो का करतन?
कुछ दिन उनकर बहुते उदासी में गुजरल. रिहर्सलो वगैरह बंद कर दिहलें. बाकिर जल्दिए ऊ चेयरमैन साहब के गम से उबर गइले. प्रोग्राम रिहर्सल सब शुरू हो गइल. ऊ फेर से गावे लगले, ‘साड़ी बता रही है, खींची कहीं गई है/लाली बता रही है, लूटी कहीं गई है. ’
हँ, लेकिन ऊ चेयरमैन साहब के भुलइले ना. ऊ उनकर चरचा गाहेबगाहे चलावत रहसु. खा़स कर जब उनका से कवनो गलत फैसला हो जाव आ केहू टोके त ऊ लगभग आह भरत कहतें, ‘का करीं गलत-सही बताए वाला चेयरमैन साहब त अब रहले ना. का करीं हो गइल गलती!’ बाकिर धीरे-धीरे चेयरमैन साहब के सलाहकार वाली भूमिका ऊ ठाकुर पत्रकार सम्हार लिहले. लेकिन दिक्कत ई रहे कि चेयरमैन साहब जइसन अनुभवी ऊ ना रहलें. धीरज ना रहल उनका में. कई बेर रौ में बह जासु त कई बेर जिद में अड़ जासु. दोसरे, जइसे चेयरमैन साहब कलाकार लड़कियन के देखते बहे लागत रहलें ओहू से कहीं अधिका ई ठाकुर पत्रकार बहे लागे. चेयरमैन साहब लड़कियन संगे नोचा-चोथी, पकड़ा-पकड़ी, बतियावे वतियावही ले सीमित रहसु बाकिर ई पत्रकार हर समय लड़िकियन के सुता लेबे के जिद पर अड़ जाव. आ ऊ निशा तिवारी के टीस में बलबलाए लागे. कहे, ‘का-का ना कइनी हम रउरा ला बाकिर रउरा एगो निशा ना कर पवनी हमरा ला?’ इशू बना लेसु. एही सब बातन के ले के लोक कवि आ उनुका में आए दिन ठन जाव. काहें कि लोक कवि एह बात के पसंद ना करत रहलें. पत्रकार प्रतिवाद करे, ‘का सब सती सावित्री हईं सँ?’
‘हम ना जानीं कि सब सती सावित्री हईं कि रंडी. बाकिर एहिजा ई सब ना हो पाई बाऊ साहब. ’ लोक कवि कहसु, ‘वइसही पीठ पीछे लोग हमरा के लवंड़िया सप्लायर कहते रहेला. लेकिन हम ई सब आंखि का सोझा ना होखे देब.’
‘का रउरा खुद एह लड़िकियन के ना सुताईं?’
‘सुताइलें. ’ लोक कवि बिफरले, ‘बाकिर जबरदस्ती ना जइसन कि रउरा चाहत बानी.’ ऊ जोड़तन, ‘अब जमींदारी ना रहल बाऊ साहब. आ फेर ई शहर ह. बदनामी होला!’
‘अच्छा रउरा सुताईं त बदनामी ना होखे आ हम सिरिफ सुतावे के बात करीं त बदनामी हो जाला?’
‘हँ होला. ’ लोक कवि कहतन, ‘रउरा में भसोट बा त जाईं लड़िकी के सड़क पर पटाईं फेर ऊ जाए त जहां चाहीं ले जा के सुताईं. बाकिर हमरा हियाँ बइठ के ना त पटाई, ना सुतावे वुतावे के बात करीं. बतियाबे के बा त हमरा से बतियाईं, दारू पीहिं, खाईं पीहिं, मौज करीं. बाकिर लड़िकियन वाला खेल मत करीं. दुनिया भर पड़ल बा छिनार लड़िकियन से. जाईं कहीं आ जोर आजमाइश कर लीं. बाकिर एहिजा ना.’
खूबसूरत डांसर्स सचहुँ लोक कवि के जी के जंजाल बन चलल रहली सँ. उनुका लगे आवे वाला अफसर, नेता भा धनाढ्य किसिम के लोग आवे आ अकसरे बाते बात में घुमा फिरा के लड़िकियन के चर्चा चला देव. ऐन लड़िकियन का सोझा लोक कवि बहुते बेरहमी से ओहलोग के इशारा भरल बात के दबोच लेसु. कहसु, ‘अब रउरा एहिजा से चलीं.’ लेकिन दारू चढ़वले लोग लड़िकियन का फेर में लागले रहे. एक बेर हालैंड से एगो आयोजक अइले इंडिया घूमे. लखनऊ लोक कवि का लगहूं अइले. बाते बात में अमरीकन लड़िकियन के चर्चा चला दिहलें. बोलले कि, ‘ओहिजा त पांच लाख लेबेली सँ.’ लोक कवि बात समुझतो लगातार टारत रहले. बाकिर हालैंड निवासी के सुई बेर-बेर, ‘पांच लाख लेबेली सँ!’ पर अटक जाव. आ आखिरकार ऊ दारू के मेज पर एक लाख रुपिया अइसहीं निकाल के राख दिहलें. लोक कवि भड़कले, ‘ई का ह?’
‘कुछु ना राख लीं!’
‘काहें कवनो पोरोगराम के बयाना ह का?’
‘ना. वइसहीं राख लीं.’
‘का समुझीलें भाई रउरा?’ लोक कवि बिगड़ गइलन. बोलले, ‘जाईं एहिजा से आ आपन रुपिया उठाईं. डालर में बदलवाईं आ अमरीका चल जाईं.’
‘रउरा नाराज काहे होखत बानी सर?’ हालैंड निवासी बुदबुदाइल.
‘बस, अब रउरा एहिजा से चल जाईं!’
‘हम रउरा के एतना प्रोग्राम दिअवनी आ रउरा ….!’
‘मत दिवाईं पोरोगराम अब आ बस.’ लोक कवि गरजले, ‘निकल जाईं एहिजा से!’
अइसहीं एक बेर एगो ब्लाक प्रमुख अइले. ठेकेदारी करत रहलें. लोक कवि के जिला के रहले. पइसा बहुते कमा लिहले रहन. लोक कवि के प्रोग्रामो जब तब करवावते रहसु. लखनऊ आइल रहले विधायकी के टिकट जुगाड़े. लोक कवि के सिफारिश चाहत रहले. लोक कवि सिफारिश करियो दिहलन आ उम्मीद का लगभग आश्वासन मिल गइल टिकट के कि चुनाव के ऐलान होखे दीं टिकट राउर पक्का बा. ऊ मारे खुशी के लोक कवि के घर मिठाई, फल आ शराब के बोतलें लिहले आ धमकल. लोक कवि रिहर्सल में रहले. डांसरो रहली सँ. बाकिर ब्लाक प्रमुख के आवते लोक कवि रिहर्सल रोक दिहले. जिला के रहले से उनुका के आपन ई कैंप रेजीडेंस ऊपर से नीचे ले देखवलें. ख़ातिर बातिर कइले. फेर उनुका इच्छा पर उनकरे शराब के बोतल खोल दिहले. आदमी भेज के होटल से मुर्गा, मछरी मंगववले. लड़िकी परोसली सँ. अब ब्लाक प्रमुख दु तीन पेग बाद स्टार्ट हो गइले. सीधे-सीधे ना, तनी का पूरा-पूरा घूमा के. ऊ चर्चा लोक कवि के एह कैंप रेजीडेंस के करत रहलें बाकिर आंख लड़िकियन पर गड़ल रहे. कहे लगले, ‘लागत बा एह मकान के तुड़वावे के पड़ी!’ बाकिर लोक कवि उनुकर बात अनसुनी कर गइले. लेकिन ऊ स्टार्ट रहले, ‘लागत बा एह मकान के तुड़वावे के पड़ी!’ आ जब हद हो गइल, ‘तुड़वावे के पड़ी!’ के तो लोक कवि पूछिए लिहले, ‘काहे तुड़वावे पड़ी?’
‘बहुते बेढंगा बनल बा. फेर से बनवावे खातिर तुड़वावे पड़ी.’
‘के तुड़वाई? के बनवाई?’
‘अरे भाई हम जिंदा बानी.’ ऊ एगो लड़िकी के लगभग भर आंख ऊपर से नीचे ले घूरत बोलले, ‘हमही तोड़वाइब, हमही बनवाइब.’ ऊ बहकले, ‘एतना हैसियत त बा हमार.’
‘बाकिर कवने खुशी में?’ लोक कवि तनिका मिठास घोरत बाकिर बिफर के बोलले.
‘बस हमार मन.’
‘पता बा केतना पइसा खरच होखी?’
‘अरे जवने पचीस-पचास लाख खरच होखी हम करब.’
‘अइसन-अइसन पता ना कतना बेढंगा मकान बाड़ी स एह मुहल्ला में कवना-कवना के तूड़वा के बनवाइब?’
‘हम त बस राउर मकान तूड़ब आ राउर मकान बनवाइब.’ ब्लाक प्रमुख बहकत एगो लड़िकी के लगभग आंखे-आंख में बोलावत बोलले.
‘तू सब एहिजा का करत बाड़ू? चलऽ लोग एहिजा से. ’ लोक कवि लड़िकियन से बोलले, ‘अब काल्हु अइह.’
‘रउरा बहुते नीक गाइलें.’ ब्लाक प्रमुख लड़िकियन के गइला का बादो बात के लाइन पर ले आवत बाकिर मेहराइल स्वर में लोक कवि से बोलले, ‘जान निकाल लिहिलें.’
‘जान हम ना ई लड़िकी निकालेली सँ.’ लोक कवि उनुका के टारत बोलले.
‘नाहीं. सचहू रउरा बहुते नीक गाइले.’ ऊ बहक के बोलले, ‘कलेजा काढ़ लीलें.’
‘त गाईं अबहियें हम?’ लोक कवि तंज करत बोलले, ‘जान निकली अबहिये राउर?’
‘बिलकुल!’ ब्लाक प्रमुख बोलले, ‘बाकिर एगो शर्त के साथ कि संगही डांसो होखे.’
‘हँ, हँ डांसो होखी.’ लोक कवि दू गो लड़िकन के आवाज दे के बोलवले आ कहले कि ‘ई नचीहें सँ, हम गाएब. शुरू करीं?’
‘का लोक कवि जी, रउरो मजाक करीले.’ ऊ कहले, ‘अरे सोनपरियन के नचाईं!’
‘ऊ सब त चल गइली सँ. ’
‘चल गइली सँ?’ ब्लाक प्रमुख अइसे बोललन जइसे उनकर सबकुछ लुटा गइल होखे, ‘सगरी चल गइली सँ. सचहु?’
‘त अउर का?’ लोक कवि कहले, ‘हम गाना सुनाईं आप के?’
‘अब रउरा का सुनाएंब. ’ ब्लाक प्रमुख बोलले, ‘सोनपरियन के डांस का साथे गाना सुने के तुक रहुवे. अब त हम राउर गाना रउरा कैसेट से सुन लेब.’ कह के ऊ उठ खड़ा भइलें. बिल्डिंग तुड़वा के बनवावे वाली बतियो बिसार गइले. लोक कवि उनुका के अगियाइल आँखिन देखले आ बहुते खिन्न भाव से विदा कइले.
ई आ अइसने तमाम प्रसंगन के देखत झेलत लोक कवि के दिन हंसी खुशी से गुजरते रहुवे कि एगो रोड ऐक्सीडेंट में ऊ ठाकुर पत्रकारो चल बसल. अबही चेयरमैन साहब के गम ऊ भुलाते रहले कि हई एगो अउर गम नत्थी हो गइल. लेकिन चेयरमैन साहब जतना बड़ गम ई ना रहे, तबो मन में टीस त रहले रहे. जवने हो एने-ओने संपर्क के उनकर एगो मजबूत सूत्र उनुका से छीना गइल. अख़बारन में पब्लिसिटीओ के वाहक रहले ऊ पत्रकार जे एके साथ कईएक अख़बारन में लोक कवि के ख़बर छपवा देत रहले. कार्यक्रमों में ऊ मददगार रहत रहले. लेकिन एकरो के नियति मान के लोक कवि ख़ामोश हो गइले. बाकिर जब उनुकर ख़ास मिसिराइनो चल बसली त ऊ एकदमे टूट गइले.
मिसिराइन जे उनुका एगो सहकर्मी के पत्नी रहली बाकिर कहही भर के. असल में त ऊ लोक कवि के जीवन संगिनी रहली. मिसिराइन उनुका लखनऊ के शुरुआती जीवन में मिठास घोरले रही. उनुका संघर्ष का दिन में ऊ मिसरी जस बन के उनुका मन में फूटल रही. ठीक वइसही जइसे गांव में अपना लड़िकाईं उमिर में धाना उनुका जिनिगी में मिठास घोरले रही, बाकिर ऊ त थोड़ देर वाली मिठास रहली, बचपना रहल. मिसिराइन के मिठास स्थाई रहल. रहली त ऊ फोर्थ ग्रेड कर्मचारी के पत्नी बाकिर लोक कवि कहसु कि ऊ विचारवान रहली, कवनो पढ़ल लिखल बुद्धिजीवी जइसन. बाकिर नियति उनुका के चपरासी के बीवी बना दिहलसि आ भाग लोक कवि का सा्थे लगा दिहलसि. ऊ कहसु कि मिसिराइन हमरा के सजवली-संवरली, छीटाए से बचवली. भूखे सूते ना दिहली. आपन परिवार त हम बाद में लखनऊ ले अइनी बाकिर पहिला परिवार लखनऊ में हमार मिसिराइने के परिवार बनल. आगा बतावत लोक कवि चुपा जासु. बाकिर चेयरमैन साहब जइसन लोग कबो मजाक में त कबो आरोप लगा के कहस कि मिसिराइन के सगरी बच्चा लोके कवि के हउवें, मिसरा के ना. एहूमें से दू गो बेटी रहली सँ. एहनी के बिआह शादी के खरचा वरचा जब लोक कवि खुले आम उठवले त ई बात जवन दबल ढंकल रहुवे सबका सोझा आ गइल. इहाँ ले कि मिसरा के लड़िको के शादी धूम धाम से लोके कवि करवले. एहू शादी में लोक कवि आगे-आगे रहले आ मिसिर जी पीछे-पीछे.
एक बेर चेयरमैन साहब से बाते बात में केहू पूछ लिहल, ‘मिसरा कइसे जानत समुझत ई सब बरदाश्त करेला?’ चेयरमैन साहब जइसन मुहफट आदिमीओ एह सवाल पर चुप रह गइल. बहुते खरकोंचला पर ऊ कहले, ‘लोक कविया के ई प्राइवेटे ना पारिवारिको मामिला ह से हम कुछ ना बोलब.’ ऊ एगो पुरा जुमलो ठोंकले, ‘पर्सनल इज पॉलिटिक्स.’ बाकिर सवाल पूछे वाला एह जुमला के समुझ ना पवलस आ ई सवाल बेर-बेर दोहरावत रहल त चेयरमैन साहब बऊरा के बोलले, ‘त हे गांडू ई बतिया बेर-बेर हमरा से काहें पूछत बाड़ऽ? गांड़ में दम बा त जा के लोक कवि भा मिसरा भा मिसिराइन से पूछ. हमरा से जाल बट्टा फइलावत बा.’ ऊ आदमी तब चुप लगा गइल रहे.
बाकिर मिसिराइन के मरला का बादो लोक कवि मिसिराइन किहां आइल गइल ना छोड़ले. जब ऊ लखनऊ में होखस त बिना नागा सबेरे साँझ मिसिराइन का बचवन का बीचे होखस. मिसिराइन के बचवन के नाती पोतनो से ऊ ओही दुलार ओही प्यार से पेश आवस जइसे मिसिराइन से पेश आवत रहले.
आ मिसरा जी?
मिसरा जी के ना त मिसिराइन के जीयते जी कवनो एतराज रहे ना मरला का बादो कवनो ऐतराज भइल. अजबे माटी के बनल रहले मिसरा जी. लोग फुसफुसइबो करे बाकिर मिसरा जी के कान पर जूं ना रेंगे. त लोक कविओ उनका बचवन के पढ़ावे लिखावे, पाले पोसे, बिआहे गवनवे में कवनो कसर ना छोड़ले. मिसिराइन के बेटियनो के ऊ सरकारी नौकरी लगवा दिहले. एगो दामादो के. मिसिराइन के एगो बेटी के दिलचस्पी गावे बजावे रहल. नौकरी लागे से पहिले एक बेर दबल जुबान उहो कलाकार बने के बात कहलसु त लोक कवि भभक उठले. ओकरा के त ऊ कुछ ना कहले बाकिर मिसिराइन से आहिस्ता से बोलले, ‘रंडी बनावल चाहत बाड़ू का बेटिया के?’
त फेर मिसिराइन प्रतिवाद कइली, ‘सगरी कलाकार त अइसन ना होले?’ ऊ लता मंगेशकर तक के नाम ले बइठली. बोललीं, ‘एह लोग के त ईज्जत मिलल बा.’
‘केहू के नइखे मिलल ईज्जत सम्मान.’ ऊ कहले, ‘आ फेर लता मंगेशकर त तपस्विनी हईं. कर पाई तपस्या बेटिया तोहर?’ लोक कवि के मंशा देख मिसिराइन चुप लगा गइली. बेटियो फेर कबो कलाकार बने के बात ना उठवलसि.
लेकिन लोक कवि अपना बीवी के एगो बेटा के कलाकार बने से ना रोक पवले. हालां कि ऊ अपना बीवी के तीनों बेटवन के जवन जहाँ ले पढ़ल पढ़वले. दू गो के नौकरीओ लगवा दिहले क्लर्क वाली. आ तिसरका के ऊ इंजीनियर बनावल चाहत रहले. ऊ बी.एस.सी. ले त पढ़ल लेकिन कलाकार बने के धुन ओकरा में बीच पढ़ाई समा गइल. बहुत रोकले, बहुत समुझवले लोक कवि ओकरा के बाकिर ऊ ना मानल. लोक कवि कहबो कइले कि, ‘बी.एस.सी. पढ़ियो के हमरा तरह नचनिया गवइया मत बनऽ. केतनो आगा बढ़ जइब तबो लोग तोहरा के नचनिया पदनिया से बेसी ना समुझी!’ तबहियों ऊ ना मानल. पहिले चोरी छुपे, फेर खुल के सामने आ गइल.
लोक कवि हार गइले.
ओ आपने गाना कोट करस आ कहसु, ‘जे केहू से नाईं हारल ते हारि गइल अपने से.’ फेर ऊ कहसु, ‘त हमहूं हार गइनी.’ एहतियातन ऊ एतना जरूर कर दिहले कि एह छोटको बेटवा के सचिवालय में चपरासी के नौकरी लगवा दिहले. कि अगर गावे बजावे से एकर पेट ना भरे त नौकरिया त रही नू. एक आदमी पूछबो कइल कि, ‘बी.एस.सी. पास रहे त चपरासी के नौकरी काहे लगववनी?’
‘त का कलक्टर के नौकरी दिलवा देतीं?’ लोक कवि बोलले, ‘एह बेरोजगारी में इहो नौकरी एह नचनिया गवईया के मिल गइल ई का कम बा. नाहीं हमरा मर गइला का बाद साला भूखों मरी ई चिंता त ना रही. एकर परिवार त कष्ट में ना रही!’
लोक कवि के लड़िका पहिले लोक कवि के चेलवने के टीम में जब तब गावे. बाकिर बाद में जब सब क ध के ऊ हार गइले आ लड़िका तबहियों ना मानल त ऊ कहले, ‘हमरा चेलवन के नौकरी बजावेले? चल अपना टीम में गाव बजाव.’ त ऊ लोक कविए के टीम में गावे बजावे लागल. बाकिर बाद में गावे बजावे में कम टीम के मैनेजरी के काम में ओकर मन बेसी लागे लागल. लड़िकियन के छांट बीनो में ऊ लागल. कई बेर त का होखे कि एके लड़िकी पर बाप बेटा दुनु रियाज मारे लागस. बाकिर दुनु एक दोसरा से लुका छिपा के. लड़िकीओ बाप से पइसा अईंठ सँ आ बेटा से जवानी भोग सँ. इहो चरचा अब कलाकारन का बीच आम हो चलल रहे बाकिर लोक कवि आ उनकर बेटा एह बातन पर कान ना देस भा जानत बूझत शुतुरमुर्ग बन रेत में मूड़ी लुका लेस.
केहू लोक कवि भा उन का बेटे पर लगाम लगावे के बातो करत डेराव. बात करे त टीम से बाहर. एहसे सभे चुप-चुप रहे आ चेयरमैन साहब के याद करत कहे, ‘चेयरमैन साहब ज॓ जीयत रहते त ऊ एह अनेति के रोक सकत रहले.’
अब आए दिन इहो होखे लागल कि टीम मैनेजरी का रुतबे में लोक कवि के लड़िका कलाकारन संगे मनमानी आ बदसुलूकीओ पर आ गइल रहे. गँवे-गँवे बात अइसन विस्फोटक बन गइल कि कलाकार सब लगभग बगावत करत एगो यूनियन बना लिहले. घंटा आ किलोमीटर का हिसाब से ऊ मेहनताना मांगे लगले. लोक कवि के दिमाग घूम गइल. ऊ समझ गइले कि एह असंतोष के अगर तुरते ना दबवले कवनो तरकीब से त धंधा त चउपट! अइसन समय उनुका चेयरमैन साहब के बहुते याद आइल कि ऊ रहतें त कुछ ना कुछ तरकीब जरूर भिड़वते आ कुछऊ ना होखीत एहनी से. तबहियों लोक कवि हार ना मनले. बतियावे ला दू तीन गो कलाकारन के बोलवले. पूछले कि, ‘हमरा टीम में रहि के महीना में नाहियों त पांच सात हजार रुपिया त कमाइए लेत बाड़ऽ लोग?’
‘हँ, उ त बा.’ तीनों एक साथ बोलले.
‘अबहीं दू महीना बाद बिदेसी दौरा पर निकले के बा. ओहिजा पोरोगराम करे, आवे जाए में दस बारह दिन लागी आ रुपिया भेंटाई महज बीस-बीस, पचीस-पचीस हजार. तबहियों चलबऽ लोग?’
‘बिलकुल गुरु जी!’
‘चुप्प भोसड़ी वाले. ’
‘का भइल गुरु जी?’
‘अरे तोहनी का जवन किलोमीटर, घंटा वाला रेट लगवले बाड़ ओकरा हिसाब से त एक लाख रुपिया से अधिका त तोहनिए के देबे के चाहीं हमरा. आ एतना त हम दे ना पाएब.’ ऊ कहले कि, ‘जहाजो के टिकट कटाईं, ओहिजा रहे, खाए, घूमे के बंदोबस्तो करीं. तब त डेढ़ो दू लाख में एगो कलाकार ना ले जा पाएब!’ ऊ बिगड़ले, ‘मतलब पोरोगराम बंद कर दीं आ तोहनी के गांड़ पर लात मार के भगा दीं एहिजा से. ’
‘ना गुरु जी!’
‘त?’
‘अब रउरे बताईं!’
‘हम कुछ ना बताएब.’ ऊ कहले, ‘तुहीं लोग खुद सोच ल! हमार का? हम त ढपली बजा के अकेलहू बिरहा गा लेब. तू लोग अपना रोजी रोटी के सोच ल!’
‘गलती हो गइल गुरु जी! कह के सभ जने लोक कवि के गोड़ पर गिर पड़ले. लोक कवि तीनों के पीठ थपथपवले. बोलले, ‘चलऽ भगवान सद्बुद्धि देस तोहरा लोग के. आ तोहरे लोग जस अउरिओ के!’
‘जी गुरु जी!’ ऊ सभ विनयवत बोलले.
‘तुहीं लोग सोचऽ कि हम कतना संघर्ष आ जोड़ जोगाड़ का बाद तनिका नाम दाम कमइले बानी, टीम खड़ा कइले बानी.’ ऊ कहले, ‘हमनी का कलाकार हईं, सूदखोर ना कि दिन के हिसाब से, घंटा आ किलोमीटर के हिसाब से पइसा तय करीं.’ ऊ कहले, ‘ई य कवनो कला में संभव नइखे. बड़को-बड़का भलही पइसा अधिका लेबेले बाकिर खुल्लमखुल्ला अइसन ना करसु!’ लोक कवि पलटत बोलले, ‘ई कवन तोहनी के बुद्धि ख़राब करत बा? तोहन लोग के कलाकार के मारत बा?’ तीनों एह पर कुछ ना बोलले. एक चुप त हजार चुप. आखिरमें लोके कवि ख़ामोशी तूड़ले. कहले, ‘घरे जा लोग. ठंडा दिमाग से सोचऽ. फेरू बतावऽ!’
तीनों चल गइले.
लोक कवि ई त जान गइले कि यूनियन का नींव में इहे तीनों बाड़ें बाकिर चुप ना लगवले. साम-दाम, दंड, भेद सगरी उपाय लगवले आ चार दिन का भितरे यूनियन के चित्त क के एह तीनों के टीम से बाहर कर दिहले.
बात ख़तम हो गइल. बाकिर लोक कवि निश्चिंत ना भइले. अउरी चौकन्ने हो गइले. बेटवा के हालां कि टीम मैनेजरी से तुरते ना हटवले. बोलले, ‘गलत संदेश हो जाई. सब समुझीहें कि ओहनी के खुराफात से डेरा गइल बानी.’ बाकिर धीरे-धीरे बेटवा के टीम मैनेजरी से ई कहत हटा दिहलें कि, ‘जवान बाड़ऽ, कलाकारी चमकावऽ आपन. रिहर्सल रियाज करऽ. स्टेज पर आवऽ, गावऽ बजावऽ!’ लड़िका बेमने से सही बाकिर मान गइल. ओकर बाही धीरे-धीरे लदा गइल. हालांकि लोक कवि डेराइल रहले कि कहीं बेटवे बगावत मत कर देव. जइसे अकबर से सलीम कइले रहुवे. ई बात ऊ कहसु अपना संगी साथियन से.
बाद का दिनो में ऊ साथी कलाकारन के बेंग जइसन अइसे तउलले, अइसे चढ़वले उतरले, ऊपर नीचे कइले, पेमेंट से ले के परोगराम ले अइसे कटले छटले कि सभही जने सामान्य बन के रह गइले. केहू स्टार कलाकार, स्टार डांसर ना रह गइल. एकाध गो पुरान ‘स्टार’ लोक कवि से बुदबुदइबो कइले कि, ‘गुरु जी अब टीम में केहू स्टार नइखे, कवनो स्टार होखे के चाहीं!’
‘काहें, हम स्टार ना हईं का?’ ऊ कहसु, ‘अब टीम में एकेगो स्टार रही आ ऊ हम रहब.’ ऊ जोड़सु कि, ‘का चाहऽतार कि आजु स्टार बना दीं, काल्हु के ई यूनियन बना लेसु आ परसों टीम के गोमती में बहा दीं? आखि़र सभकर रोजी चलावे के बा, आपन नाम चलावे के बा. ई सब कुछ डुबावे के थोड़े बा!’
‘त अब गुरु जी रउरा पहिले का तरह फेर से गावल बजावल शुरू कर दीं.’ कवनो पुरान चेला ई कहि के लोक कवि को आइना देखावे, चिकोटी काटत उनुका के जइसे उनकर औकात बतावे के कोशिश करे.
‘हे साले, हम ना गवनी त तू पैदा कइसे भइल?’ ओकरा तंज के मजाक में घोरत जइसे ओकरा के जूता मारस, ‘का तोहार बाप तोहरा के जनमवलसि?’ ऊ तनिका रुकस ओकरा चेहरा के भाव पढ़सु कि जूता पूरा पड़ल बा कि ना? फेर आहिस्ता से बोलसु, ‘गायकी में के जनमावल तोहरा के?’
‘रउरा गुरु जी. ’ चेला हार के अपमान पीयत बोले.
‘त अब हमरा गाना गावे के चाहीं तू बतइबऽ?’
‘ना, गुरु जी!’
‘अरे, अब पोरोगराम में सब भड़ुवा लौंडियन के कुल्हा मटकाई आ छातियन के उभार देखे आवेल त ओहिजा हम का गाना गाईँ? के सुनी?’ ऊ बोलसु, ‘लेकिन साल में चार-छ ठो कैसेट आवेला ओहमें त गवबे करीले. ओही गानन के केहू अउर से हिंदी में लिखवा के गोविंदा जइसन हीरो सुन के नाचेला त ई का ह? अरे ससुरा समुझ कि हमही गाइलें. बाकिर तू लोग साला हल्ला मचा दिहले बाड़ऽ कि गुरु जी अब ना गाईं!’ ऊ दहाड़स, ‘कइसे ना गाइलें!’
‘त गुरु जी राउर वीडियो एलबम भा सीडी काहे नइखे मार्केट में?’ सुन के छन भर ला बेजवाब हो जासु लोक कवि. लेकिन दोसरके छन बोले लागसु, ‘एहले कि अमीरन खातिर ना, गरीबन ला गाइलें काहें कि भोजपुरी गरीबन के भाषा ह. आ गरीब आदमी सी.डी., वीडियो ना देखे, सुनेला. ’ फेर ऊ धीरे से कहसु, ‘बाकिर घबरा जिन, अनुपवा लागल बा, कुछ करी.’
‘लेकिन कब?’
‘अब देखऽ कब करऽता?’ कहत लोक कवि लगभग हताश हो जासु.
‘ऊ अनुपवा चार सौ बीस के चक्कर से छुट्टी ले लीं गुरु जी!’
‘काहें?’
‘रउरा के बिकवा दी.’ कवनो चेला बोले, ‘ऊ रउरा के बेचत बा.’
‘बहुत लोग बेच चुकल हमरा के. लेकिन हम ना बिकइनी.’ ऊ कहसु, ‘तनिका ओकरो के बेच लेबे द.’ कह के ऊ बइठकी बर्खास्त कर देसु. बाकिर उनकर चिंता बर्खास्त ना होखे.
साँच इहे रहे कि उनकर नाम भोजपुरी गायकी में अबहियों शिखर पर रहे. अगल बगल त छोड़ीं दूर दराज ले केहू उनका लोकप्रियता के छूवत ना लउके. तबहियों उनुका गाइकी पर पूर्ण विराम ना सही, विराम त लागिए गइल रहे. ई सचाई उहो महसूस करे लागल रहले. फेर बिहार में पैदा भइल बनारस में पढ़ लिखल एगो ब्राह्मण गायक बहुते तेजी से भोजपुरी गायकी में बढ़त लेत रहुवे. ऊ लड़िकियन के अपना कार्यक्रम में ना नचावे आ अकेलही गावे. ओकरा आवाजो में भोजपुरी वाली मिठास बसल रहे, बाकिर ऊ देवी गीत, फिल्मी पैरोडियन पर तनी अधिके आश्रित रहुवे से लोक कवि ओकरा से अधिका चिंतित ना रहले बाकिर निश्चिंतो ना रहले. केहू एह बात के छेड़े त लोक कवि कहसु, ‘बहुत भंवर हमरी राह में आइल आ देखते-देखते नदी में बिला गइल. कुछऊ ना भइल हमार.’ ऊ कहसु, ‘ई ना कि भोजपुरी गाना हमरा से बढ़िया गाए वाला लोग नइखे, हमरा से बहुते बढ़िया गाए वाला लोगो बा, अबहियों कुछ जिंदा बाड़े बाकिर मार्केट ओह लोगन के रिजेक्ट कर दिहलसि. लेकिन हम त बरिसन से मार्केट में बानी. त ई भगवान के बड़हन कृपा बा. बाकी भोजपुरिहों के प्रेम बा. जे हमार गावल गाना सुनेलें.’ ऊ ‘नथुनिया पे गोली मारे’ गीत के जिक्र करसु. कहसु, ‘जवानी में हम ई गाना गवले रहीं, हमार एगो पुरनका कैसेट में मिलियो जाई. लेकिन पटना के एगो गायक कुछ साल पहोले इहे गाना चोरा के ‘फास्ट’ क के गा दिहलसि. मार्केट में उठ गइल ई गाना. हमार त नींद हराम हो गइल. एतना उठल ई गाना कि हमरे गाना, हमरे नींद उड़ा गइल. लागल कि अब हम मार्केट से आउट हो गइनी. बाकिर लाज बाच गइल. अइसन भइल ना. भगवान के किरपा. बाकिर इहे गाना ‘अंखियों से गोली मारे’ बनि के गोविंदा पर नाच गइल. अब कहां बा ऊ पटना वाला गायक केहू जानऽता?’ लोक कवि कहसु, ‘बाकिर हम त कहीं ना गइनी. खड़ा बानी रउरा सोझा.’ हँ, लोक कवि के एह बात पर मलाल जरूर बनल रह जाव कि ऊ मार्केट में त बाड़ें बाकिर गवनई में ना.
दिल्ली में एगो पत्रकार उनुका से पूछतो बा कि, ‘रउरा अब गावत काहे नइखीं?’
‘गावत त बानी?’ लोक कवि जवाब देसु, ‘अबहीं एही रात रउरा सोझा गवनी ह. ’
‘ऊ त पुरान गाना गवनी रउरा. आ रउरा कम राउर टीम के लोग अधिका गावल.’
‘त रउरा इंटरव्यू हमरा से काहें लेत बानी? टीम से लीं ना. ’
‘एहले इंटरव्यू लेत बानी कि रउरा अपना टीमो में बड़का गायक हईं.’
‘मानत बानी रउरा बड़का गायक?’ लोक कवि हाथ जोड़ के उलुटे सवाल करत कहत बाड़ें, ‘चलीं, राउर बड़ी किरपा!’
‘हँ, त हम रउरा से पूछत रहनी कि अब रउरा गावत काहें नइखीं?’
‘गाइले!’ लोक कवि गंभीर हो गइल बाड़े आ बोलले बाड़े, ‘गाइले बाकिर ओहिजा जहाँ हमरा के ठीक से सुनल जाला.’
‘कहां ठीक से सुनल जाला रउरा के?’
‘बिदेस में, कैसेटन में, आकाशवाणी, दूरदर्शन आ सरकारी पोरोगरामन में. जहां दुइए चार गो गावे के होला.’ लोक कवि हताश मन से लेकिन उछाह भरल आवाज में कहतारें. फेरू तनिका तिखाई घोरत कहतारें, ‘लेकिन वीडियो अलबम अउर सीडी में ना गाइला!’ आ जइसे जोड़ऽतारे, ‘गरीब मजूर के भाषा के गायक हईं नू!’
‘ख़ैर बात हम मंचन के करत रहीं कि पहिले त रउरा अइसन मंचो पर बहुते गावत रहीं. जनता जनार्दन के गायक रउरा हइए हईं. शायद एही से रउरा के लोक कवि नामो दीहल गइल.’
‘ठीक कहऽतानी.’ लोक कवि कहले, ‘रउरा विद्वान आदमी हईं, सब जानीले.’
‘लेकिन हम ई नइखीं जान पावत कि रउरा अब जनता जनार्दन के मंचन से काहे ना गाईं? रउरा खुद बताएब?’
‘जवाब बहुत मुश्किल बा.’ लोक कवि कहतारें, ‘जवाब दे सकीलें बाकिर माफ करीं एह मसला पर हमार जवाब दीहल ठीक ना रही!’ ऊ कहे लगले, ‘भोजपुरी समाजे के ई जवाब खोज निकाले दीं.’ फेरू ऊ जोड़ऽतारें, ‘हालां कि एकरो ला केकरा फुर्सत बा?’
इंटरव्यू ख़त्म क के लखनऊ वापिस जाए ला लोक कवि मय अपना टीम नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर बाड़े. ऊ सोचऽतारें कि लड़िकियन के डांस कतना भारी पड़त बा उनुका? पहिले त पोरोगरामों में लड़िकियन के डांस दू कारण से राखत रहलें. एक त खुद के सुस्ताए ला आ दोसरे, पोरोगराम के तनिका ग्लैमर देबे खातिर. बाकिर अब? अब त लड़िकिय सुस्ताली सँ त लोक कवि के गा लेबे के मौका मिलेला. पहिले लड़िकिया फिलर रहली सँ, अब ऊ अपने फिलर हो गइल बाड़े. उनकर मन होला कि गाईं, ‘आवऽ चलीं, ददरी क मेला आ हो धाना!’ आ उनुका बरबस धाना के ईयाद आ जाता. बाकिर आयोजक बब्बन यादव, जे लोके कवि के जनपद के हउवें आ दिल्ली में ठेकेदारी आ लीडरी दुनु करेलें, लगही खड़ा बाड़े. कार्यक्रम के सफलता से पगलाइल. स्टेशन पर उहो बाड़े. उनुका खुशी के ठिकाना नइखे. चार छ पेग दारूओ उनका देहि में बा से सफलता के उछाह पूरा ज्वार में बावे. ऊ भीड़ भरल स्टेशन पर अकेले चिल्ला के अचके में उद्घोष करत बाड़े, ‘लोक कवि जिंदाबाद!’ ऊ दू चार बेर अइसहीं जिंदाबाद चिल्लइला क तुरते बाद लोक कवि के कान में फुसफुसात बाड़े, ‘लेकिन पिंकीआ कहां बिया?’ लोक कवि बब्बन यादव के फुसफुसाइल पी जात बाड़े आ साथी कलाकारन के आँखे-आंख में इशारा करत बाड़े कि पिंकी के ट्रेन में कहीं, भा भीड़ में कहीं लुका दिहल जाव. ट्रेन प्लेटफार्म पर आ के लागियो गइल. लेकिन लोक कवि विचलित हो के प्लेटफार्म पर खड़ा बाड़े कि कहीं कवनो अनहोनी मत हो जाव. पिंकी के ले के.
पिंकी लोक कवि के टीम के नईकी डांसर हिय. जवना बिया, कमसिन बिया अउर सेक्सी डांस में निपुण. ओकरा एही निपुणता से बब्बन यादव घाहिल बाड़े आ बउराइल बाड़े. ऊ एके साथ दहाड़त आ फुसफुसात दुनु बाड़े, ‘लोक कवि के जय हो ! लेकिन पिंकीआ कहां बिया?’
लोक कवि ठकुआइल बाड़े, खिसियाइलो बाड़े. साथ ही शर्म में डुबलो बाड़े. सोचत बाड़े कि जे ऊ पत्रकार एहिजा एह नई दिल्ली स्टेशन पर मिल जाइत त ओकरा के बोला के ई मंजर देखवते कि, ‘लोक कवि जिंदाबाद ! लेकिन पिंकीआ कहां बिया?’ आ बतवते कि ऊ अब काहे ना गावसु!
बब्बन यादव जइसन लोग उनुका के गावे देला कहीं ?
ई सोच के लाज से उ मूड़ी अउरी नीचे कर लेत बाड़े. लेकिन बब्बन यादव के नारा आ फुसफुसाना चालू बा, ‘लोक कवि जिंदाबाद! लेकिन पिंकीआ कहां बिया?’
लोग आवत जावत चिहुँक के बब्बन यादव आ लोक कवि के देखियो लेत बा. लेकिन लोक कवि खुदे से ई सवाल करत बाड़े कि भोजपुरी बिरहा में लड़िकियन के ई फसल उहे बोवले त काटी के? ऊ जवाबो देत बाड़े खुद ही के कि, हम ही काटब. हालां कि बब्बन यादव रह-रह के तबहियो चिल्लइले जात बाड़े, ‘लोक कवि के जय!’ आ पलट के लोक कवि के कान में फुसफुसात बाड़े, ‘लेकिन पिंकीआ कहां बिया?’
त का ई सिरिफ बब्बन यादव के शराब पी के बहके के अंदाजे भर ह? आ कि लोक कवि के येन-केन-प्रकारेण मार्केट में बनल रहला के दंश ह?
लोक कवि अपना सफलता के, एह मार्केट रूपी द्रौपदी के जीतियो के हारल अइसन, ठगाइल महसूस करत बाड़े. प्लेटफार्म पर अइसे खड़ा बाड़े जइसे कि उनुका काठ मार गइल होखे. ई सोचत कि का ऊ सचहू अब ना गावसु? मार्केट के द्रौपदी उनुका गायकी के दूह लिहले बिया? नई दिल्ली स्टेशन के एह प्लेटफार्म पर खड़ा-खड़ा लोक कवि के लागत बा कि अब ऊ द्रौपदी के जीते वाला अर्जुन के भूमिका छोड़ द्रौपदी के जुआ में हार जाए वाला युधिष्ठिर के भूमिका में आ गइल बाड़े. लोक कवि ई सब अबही सोचते बाड़े कि उनुकर एगो चेला उनका के लगभग झिंझोड़त कहऽता, ‘गुरु जी डिब्बा में चलीं, ट्रेन अब खुलही वाली बा!’
ऊ चिहुँकत ट्रेन में चढ़ जात बाड़े. ट्रेन सचहू खुल गइल.
ऊ अपना बर्थ पर जा के पटा गइल बाड़े. ऊपरकी बर्थ पर पिंकी उनुका सुरक्षित लउक गइल बिया. ऊ लगभग निश्चिंत हो गइल बाड़े. काहें कि बब्बन यादव ते प्लेटफार्मे पर खड़ा रहले, जब ट्रेन चले लागल रहे.
लोक कवि आँख मूँद लिहले बाड़े आ पटाइले पटाइल अपनही से भितरे-भीतर पूछत बाड़े, ‘भोजपुरी कहां बिया?’ ठीक वइसही जइसे बब्बन यादव पूछत रहले, ‘पिंकीआ कहां बिया?’ ऊ अपना आपे से पूछत बाड़े, ‘भोजपुरी कहां बिया?’ ऊ देखत बाड़े कि पिंकी ते सुरक्षित बिया बाकिर का भोजपुरीओ सुरक्षित बिया? ऊ अपना आपे से फेरू पूछत बाड़े. बाकिर तुरते कवनो जवाब नइखन दे पावत अपनो आप के. ऊ बर्थ पर लेटले-लेटल करवट बदल लेत बाड़े. आ आपने पुरान गाना के लगभग बुदबुदाताड़े, ‘जे केहू से नाई हारल, ते हारि गइल अपने से.’
लोक कवि साचहू अपना आपे से हार गइल बाड़े.
लेकिन ट्रेन बिया कि चलते जात बिया बिना केहू से हरले धड़धड़–धड़धड़!
लेखक परिचय
अपना कहानी आ उपन्यासन का मार्फत लगातार चरचा में रहे वाला दयानंद पांडेय के जन्म ३० जनवरी १९५८ के गोरखपुर जिला के बेदौली गाँव में भइल रहे. हिन्दी में एम॰ए॰ कइला से पहिलही ऊ पत्रकारिता में आ गइले. साल 1978 से पत्रकारिता में. इनकर उपन्यास आ कहानियन के बाइस गो किताब प्रकाशित हो चुकल बा. एह उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं” खातिर उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान उनका के प्रेमचंद सम्मान से सम्मानित कइले रहे आ “एक जीनियस की विवादास्पद मौत” खातिर यशपाल सम्मान से.
बड़की दी का यक्ष प्रश्न के अनुवाद अंगरेजी में, बर्फ़ में फंसी मछली के पंजाबी में आ मन्ना जल्दी आना के अनुवाद उर्दू प्रकाशित हो चुकल बा.
बांसगांव की मुनमुन, वे जो हारे हुए, हारमोनियम के हज़ार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाज़े, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास), 11 प्रतिनिधि कहानियां, बर्फ़ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), कुछ मुलाकातें, कुछ बातें [सिनेमा, साहित्य, संगीत और कला क्षेत्र के लोगन के इंटरव्यू] यादों का मधुबन (संस्मरण), मीडिया तो अब काले धन की गोद में [लेख के संग्रह], एक जनांदोलन के गर्भपात की त्रासदी [ राजनीतिक लेख के संग्रह], सूरज का शिकारी (बचवन ला लिखल कहानियन के संग्रह), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित) अउर सुनील गावस्कर के प्रसिद्ध किताब ‘माई आइडल्स’ के हिंदी अनुवाद ‘मेरे प्रिय खिलाड़ी’ नाम से आ पॉलिन कोलर के ‘आई वाज़ हिटलर्स मेड’ के हिंदी अनुवाद ‘मैं हिटलर की दासी थी’ के संपादन प्रकाशित बा.
दयानंद पांडेय जी के संपर्क सूत्र
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