मार लेे ना !
तीन गो शब्द सेेे हम बहुतेे परेेशान बानी ! का रउरा सभेे मेेेें सेे केहू एह शब्द समूहन केे सही अर्थ बता सकेला.
ई शब्द हईं सँ – ‘मार’, ‘लेे’, अउर ‘ना’.
तीनो शब्दन के अलग-अलग मानेे सभका ला सहज होखेे के चाहीं. बाकिर नौ केे लकड़ी,एक केे बोझ का तर्ज पर जब ई तीनो शब्द एकेे साथेे उपयोग मेें लेे आवल जाला त हर बेेर ओह शब्द-समूह के अलगेे-अलगे माने सामने आ जाला. कई गो केे त समुझावल जा सकेला, आ कई केे मानेे निकाले-बतावे में खुराफाती दिमाग होखल जरुरी हो जाला.
असल मेें वाक्य शब्दन से बनेला बाकिर पूरा वाक्य में शब्दन केे निजी माने बदल जाला आ सामूहिक माने भारी पड़ जाला.
बहुतेे पहिलेे – ‘पकड़ो’, ‘मत’, ‘जानेे’. आ ‘दो’ – एह चार शब्दन के बुझऊवल सुनलेे रहीं. कहे वाला का कहलसि ओकरा से अधिका प्रभावी हो जाई कि सुनेवाला का सुनलसि. हो सकेेला कि बोले वाला केे अर्द्ध विराम लागल त कहीं अउर बाकिर सुने वाला कहीं अउरे सुन लिहलसि ओह अर्द्ध विराम के त मतलब त बदलहीं केे बा. देख लीं –
पकड़ो मत, जानेे दो !
पकड़ो, मत जानेे दो !
दुनू वाक्य के मतलब अलगेे निकली आ सुनेवाला ओह पर अगर सही प्रतिक्रिया ना कइलसि त बंटाधार होखहीं के बा.
अइसहीं एह घरी मार ले ना सुने केे मिलत बा. आ हमरा बुझात नइखेे कि एकर मतलब का निकालीं ? कवन मतलब सही होखी, तनी रउरो विचार क केे बताईं त काम आसान हो जाई –
मार लेेेना.
का मार लेना ? पॉकिट कि जान ?
आ कि कहीं भोजपुरी गीत-गवनई का तर्ज पर कवनो नायिका मनुहार करत बिया कि मार लेे ना. अब जब नायिका अइसन मनुहार करत बिया त ऊ का मार लेबे के बात करत बिया ?
आ कि कहीं कवनो समलैंगिक वइसहीं चिरउरी करत बावे अपना सहधर्मी सेे ?
आ कि कहीं कवनो आदमी अउँजा के कह पड़त बा कि का माथा खइले बाड़ऽ ? सीधे मार लऽ ना !
रउरा का लागत बा ? मार लेे ना केे उच्चारण एकेे साथेे ना होखेे ओकर कवन तरीका होखी. इहो बताईं.
मजाक का तौर पर लोग उदाहरण देला गिरपड़े जइसन सरनेम के. नाम रहल पी. केे. गिरपड़े आ सुने वाला सुनलसि कि पी केे गिर पड़ेे ! जरुरत सेे बेेसी पिहेें त गिरहीं-पड़हीं के बा ! बाकिर सरनेेम राखेेवाला केे दोष दिआई कि जेकरा नेम का साथेे अइसन सरनेेम राखल ओकरा केे ?
जइसेे कि नेहरू सरनेम का साथेे होला कि मोतीलाल का पहिले एह सरनेम केे उपयोग भइला केे उदाहरण ना मिले त नेहरू सरनेम काहे धराईल ? आ वइसे कहीं त सगरी सरनेम का साथेे उहे हालात मिली. पुरनका जमाना में, माने कि वैैदिक काल में त आदमीं या त शर्मणो होत रहल ना त वर्मणो ! कुछ सरनेेम केे त कह दिआला कि ई मूल के विकृत रुप हऽ जइसेे कि द्विवेेदी सेे दूबे, चतुर्वेेदी से चउबे वगैरह. बाकिर सिंह, मिश्रा, झा, पासवान, राम, पटेेल, पाटीदार वगैरह के मूल खोजत त आदमी के पीएचडी मिल जाई. अब जेे अगर केेहू एह विषय पर शोध कर केे पीएचडी करे चले त सदर्भ में हमरा केे धन्यवाद जरुर दे देव !
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