स्व. हरिराम द्विवेदी (हरि भइया)



स्व. हरिराम द्विवेदी (हरि भइया)
(12 मार्च 1936 से 8 जनवरी 2024)
(संस्मरण)

“नयनवा न भींजइ हो…!”

डॉ सुमन सिंह

“ए बच्ची! मिले के मन करत ह हो. समय निकाल के आवऽ तनी भेंट हो जाए. “ए बच्ची! मिले के मन करत ह हो. समय निकाल के आवऽ तनी भेंट हो जाए. जनते हऊ हमहन क डहरी क पेड़-रूख. जाने कब गिर-भहराय जाईं जा.’ बाबूजी जब फोन करें त अइसहीं बोलें आ हम टोकीं- ‘अइसे काहें बोलीला. अबहीं बहुत दिन जिए के ह अउर हमहन के असीसे के ह.’ लेकिन एना पारी हम चाह के भी उनके कवनो असरा ना धरा पवनी. जब उनसे मिले गइलीं त देखलीं कि ऊ आपन कुल कागज-पत्तर फइलवले कुछ पढ़त-जाँचत रहलन. देखते हुलस गइलन-“आवऽ-आवम बइठऽ बच्ची. अरे तू त सपना हो गइल हऊ. बतावऽ दस बेरी फोन कइले पर त फोन उठावेलू. ए बच्ची, देखऽ हो जब ले जियत हईं आ जाइल करऽ. हम जानत हईं कि तोहरहूँ जी के कम जंजाल ना ह, तोहूँ परेशान रहेलू लेकिन पाँचे मिनट बोल बतिया लेवल करङ बचवा. ’ बाबूजी हमार बाँह पकड़ले अपने लग्गे बइठा लिहलन. हमसे बाबूजी के ओरी देख ना जात रहल. एक्के महिन्ना में बेमारी से बाबूजी बहुत कमजोर हो गइल रहलन. हफ्ता भर से खाना-पीना छूट गइल रहे. बस इलेक्ट्रॉल अउर सतुआ दियात रहे. हम जानत रहलीं कि जवन बेमारी बाबूजी के भीतर बइठल हऽ जल्दिए उनसे सतुओ-पानी क सहारा छीन लेही. आज बोले में बाबूजी क जुबान लड़खड़ात ह, हो सकत हफ्ता दस दिन में अबोला हो जाएं. हो सकत ह बाबूजी के कंठ से कवनो गीत बाहर आवे खातिर अफनाए-हफ्फन धुने आ कंठ में करक के रह जाए. जवने बाबूजी से हमार दस साल पहिले परिचय भइल रहे ऊ बाबूजी मने पंडित हरिराम द्विवेदी जी, लकदक धोती-कुर्ता पहिनले, ललाट पर दमकत तिलक लगवले, सुंदर कमानी क चश्मा के भीतर से सनेह लुटावत, भरल सभा के गुन-गाम्भीर्य से लोभावत, लोक के सिरजत आ गावत. छोट-बड़ सबही से नेह-नाता गाँठत गीत पुरुष रहलन. उनके कंठ में सजल-निर्मल भाव भरल-पूरल रहे जवने के मिठास के मोहिनी स्वर में कब घंटा से चार घंटा बीत जाए, पते न चले. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के भोजपुरी अध्ययन केंद्र में उनके पहिली बेर देखले-सुनले रहलीं. अभिभूत होके निहोरा कइलीं- ‘सर! मैं आपका इंटरव्यू लेना चाहती हूँ. यदि आपके पास समय हो तो प्लीज देखिएगा. ’
तुरते टोकलन- ‘आप मुझे सर न कहें.’
‘तब …. ’ हम असमंजस में पड़लीं.‘
‘मेरे सभी जानने-मानने वाले बाबूजी कहते हैं. आप भी कह सकती हैं. कल-परसों में आ जाइए इंटरव्यू के लिए.’ न त आवाज में कवनों आडम्बर न त व्यक्तित्व में कवनों ताव. एकदम सरल सुभाव. हम अचरज में कि एतना बड़ साहित्यकार जिनके बिना भोजपुरी क कवनो सभा-गोष्ठी ना पूरेला उ कइसे एतना सहज हो सकेला. तनी मनी त अपने ग्यानी होवे क गुमान त हर बनारसी बखानेला अउर पंडित हरिराम द्विवेदी त…खैर. हम आपन खैर कुशल मनावत बाबूजी क दू-तीन ठे किताब पढ़िके आधा-अधूरा जानकारी लिहले उनके घरे मोतीझील महल के सबसे पीछे छत पर बनल दू कोठरी के मकान में पहुँचलीं. बाबूजी ट्रे में पानी क गिलास अउर बेसन क लड्डू लिहले सामने खड़ा हिरोहत रहलन- ‘बड़ा घाम ह बच्ची. पहिले पानी पिया फिर बतकही होई. हम अबहीं कुछ कहे के सोचते रहलीं कि उनकर पत्नी आ गइलीं-, तोहार अम्मा हईं. ’ एसे पहिले कि हम गोड़ धरीं अम्मा अँकवार में भर लिहलीं- ‘बइठऽ बाची सुमन. तोहरे बारे में खूब बात करेलन तोहार बाबूजी.’ एतना मान, एतना नेह. हमार मन भर आइल. इंटरव्यू खातिर औपचारिक माहौल ना रह गइल रहे. ओह दिन खूब मगन होके बतकही भइल आ पंडित हरिराम द्विवेदी जी हमार बाबूजी आ उनकर धर्मपत्नी हमार अम्मा बन गइलीं. ओकरे बाद महीना पंद्रह दिन बीतत-बीतत मोह-छोह में घिरल-घेरायल या त बाबूजी हमरे घरे आ जायँ या त हमके बोलाय लें.

कब्बो अम्मा खोंइन्छा में तरकारी बेचे आइल दुलहिया से कीन के दू-चार गो ताजा फूलगोभी बान्ह दें कब्बो बाबूजी अपने हिस्से क पूड़ी-पराठा खियाय दें. अम्मा के रहले ओह कोठरी में उजियार रहे. बाबूजी उनके निहारत बिहँसें ‘ई हमार लक्ष्मी हईं, इनही क बनावल हम बनल हईं बच्ची. इहे साज-सँवार के रखले हईं हमार गिरहस्ती. बाबूजी के आपन रचल कुल गीत याद रहे. फोन करें त सुनावें, घरे मिले आवें त बाते-बात में कढ़ावें-गुनगुनावें. अरज कइले पर खूब डूब के घंटन सुनावें. बाबूजी के केहुए बोलावे ओकरे सम्मान में, आयोजन में खूब हुलस के जाएँ. सब उनकर भले न हो पइलस बाकिर उ जेसे मिललन ओकर आपन हो गइलन.

अम्मा बेमार रहे लगल रहलिन. बाबूजी हमके रोजे फोन पर बोलावें- ‘आजा, देख जा अम्मा के…. ’ लेकिन हम ना जा पइलीं. बहुत दिन के बाद बाबूजी क फोन आइल- ‘ए बाची, अम्मा छोड़ के चल गइलीं हो. तोहके बहुत याद करत रहलीं. तू आ न पवलू. बाची हो तोहसे भेंट ना हो पावल …. ’ हम बहुत दिन तक एह संताप आ ग्लानि से उबर ना पवलीं कि बार-बार बाबूजी के बोलवलो पर हम मिले ना गइलीं. लेकिन बाबूजी एह बात के लेके कब्बो कवनों ओरहन ना दिहलन.

एह कचोट के लिहले जब बाबूजी से भेंट भइल त उ सुखाय के आधा हो गइल रहलन– ‘बच्ची हो, अब हम ढेर दिन ना जियब. तोहार अम्मा बोलावत हईं.’ हमसे कुछ कहले ना कहाय. हमके उनके ओरी देख ना जाय. बाबूजी हमेशा कहें कि ‘ए बच्ची! तोहरे अम्मा के आ हमके एक्के बात क संतोख ह कि एतना कुल बाल-बच्चा पढ़वनी-लिखवनी बाकिर केहू से एक्को पइसा रिन-उधार ना लिहलीं. अम्मा के कहनाम रहल कि हमहन क अपने अंतिमो समय खातिर केहू पर बोझ ना बने के एसे अपने किरिया-करम बदहूं हमहन क बेवस्था कर चुकल हईं जा.’

बाबूजी के स्वाभिमानी मन क इ संतोख ढेर दिन ना चलल. कैंसर आइल त उनकर कुल जमा पूँजी लील गइल. मीलों पैदल चले वाला आ नियमित लिखे-पढ़े वाला बाबूजी बिस्तर पकड़ लिहलन. एक दिन भेंट करे गइलीं त कहलन- ’ए बच्ची, हमार इच्छा ह कि हम जब शरीर छोड़ी त केहू रोए मत. हमके खुशी-खुशी विदा करिहऽ लोग.’ ‘अइसन काहें कहत हईं?’ हमरे भरल आँख ओरी देख के झिड़कत गावे लगलन, कमजोर भींजल-भर्राइल आवाज में –

”मोरी ममता कै मोहिया सयान परनवाँ न भीजइ हो!
बसै जहवाँ असरवा कै जोति नयनवाँ न भीजइ हो!!
चाहे भीजै त भीजै नयनवाँ सपनवाँ न भीजइ हो.“

गवते-गावत अचानक जइसे कुछ याद आइल-
‘सुनम बच्ची, हमार इच्छा ह कि हमरे नावें से एगो भोजपुरी के कवि के सम्मानित कइल जाए हर साल पर. ए बच्ची! जियते जी ना हो पाइल त शायद गइले के बाद इ साध तोहन लोग के करतब से पुराय जाय.’ हम उनके आश्वस्त कइलीं कि हमहन क जरूर आपके एह इच्छा के पूरा करब जा. बाबूजी से ओह दिन के मुलाकात के बाद बहुत दिन तक बात ना हो पाइल. आपन घर-गृहस्थी के जंजाल में घिरल-भरमल हम ना जा पवलीं उनसे मिले. एक दिन उनके बेटी से पता चलल कि बाबूजी अब बोल ना पावत हउवन। सोचनीं कि जाईं देख आईं बाकिर हिम्मत ना होवे. एतना बोले वाला बाबूजी के एह अनबोलता-असहाय हालत में देखे क करेजा ना रहल हमरे. उनके घरे से या उनकर केहू परिचित क फोन आवे त करेजा धक्क से रह जाए। हम अइसन कुल समाचार से बँचल चाहीं जवन बाबूजी से जुड़ल कवनों अशुभ समाचार.

बाकिर बरजोरी 8 जनवरी 2024 के हिंदुस्तान अखबार पर नजर पड़ल – सूख के ढाँचा मात्र बचल बाबूजी के नान्ह लइकन नियन कोरा में सटवले उनके पुत्र के फोटो संगे एगो अरज छपल रहे ‘हरि भइया के उपचार को मदद की अपील।’ हम सन्न रह गइलीं. बाबूजी क बार-बार दोहरावल वाक्य गूँजत रहे कि ‘बच्ची हो हमहन क अपने किरिया-करम क कुल्ह इंतजाम कइले हईं जा।’ फिर कइसे इ दिन देखे के पड़ गइल बाबूजी के… मन बहुत विचलित रहे. सोचलीं कि काल्ह जरूर जाइब बाबूजी के पास लेकिन काल्ह यानी 9 जनवरी के ओही अखबार में छपल मिलल- “भोजपुरी के विद्यापति ने संसार से ले ली विदाई“.

स्व. हरिराम द्विवेदी के एगो बरवै

पातरि पीर

मितवा बोलिया बोलै अस अनमोल
सुनतै मनवाँ जाला बरबस डोल।
सोच सोचि के जियरा सीतल होय
थकै न तनिक परनवाँ सुधियन ढोय।

नेहियां पाके हियरा हुलसइ मोर
बरै दियरिया भितराँ लगै अँजोर।
अस अपनइयत सोचीं जीव जुड़ाय
केतनो करीं परनवाँ नाहिं अघाय।

गंगाजल अस पावन परम पुनीत
कहाँ जुरै एह जुग में अइस पिरीत?
सुखद सपनवाँ पनपै सीतल छाँह।
जबै जुड़ै अँकवारी भरि-भरि बाँह

इहै मनाईं निसदिन आठउ याम
जिनिगी भर ई नेहिया निबहइ राम।
बनि बैरी विष बोबैं बाउर लोग
लगि लगि जाय जिनिगिया कुफुतई रोग

ई बनि कलक कुरेदै बारम्बार
डुहुकै जिनिगी जइसे छवै अँगार।
जे मितवन के बिच्चे बोवे आग
उजरवटी पर डालै करियर दाग।

देखि सकै न पिरितिया के परतीत
करमहीन जेके ना भावै गीत।
अइसन कुटिल सुभाव न जानै नेह
जनम अकारथ बिरथा मानव देह।

काँट गड़ै कढ़ि जाय न पीर ओराय
बहुत देर तक करकै करक बुझाय।
केतनी बिखधर पीरा सहइ परान
एके कइसे केहू जानइ आन।

निरमल नेहिया रहली बड़ टहकार
कउने कारन नहकै भइल अन्हार।
इहै सोचि के हियरा होय अधीर
गहिरी होत इ जाले पातरि पीर।

(पाती पत्रिका के अंक 104 से साभार)

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