बांसगांव की मुनमुन – 23 वीं कड़ी
( दयानन्द पाण्डेय के बहुचर्चित उपन्यास के भोजपुरी अनुवाद )
( पिछला कड़ी में पढ़ले रहीं कि मुनमुन आ बेसिक शिक्षा अधिकारी का बीच कइसे सवाल जबाब भइल आ बेसिक शिक्षा अधिकारी बेजबाब हो के रहि गइलन. अगर पिछला कड़ी नइखीं पढ़ले त पहिले पिछलका कड़ी पढ़ लीं.)

मुनमुनो बेसिक शिक्षा अधिकारी कार्यालय से निकल के बस स्टैंड आइल आ बस पकड़ के बांसगांव आ गइल. घरे चहुँपल त पड़ोसी गाँव से आइल एगो बाप-बेटी ओकर इन्तजार करत रहल. बतावल लोग कि बेटी के ओकर पति शादी का ह़फ्ते भर में ओकरा से किनारा कर लिहलसि आ मार पीट, हाय तौबा करिके छहे महीना में घर से बाहर कर दीहल. ओकर क़सूर बस अतने रहल कि ओकरा बँवारा हाथ के दू गो अंगूरी कटल रहुवे. लइकाइऐं में चलत चारा मशीन में खेल-खेल में हाथ डलला से दु गो अंगुरी कट गइल रहल.
‘त शादी का पहिलहीं ई बात लड़िका वालन के बता दीहल चाहत रहुवे.’ मुनमुन लड़िकी के हाथ अपना हाथ में ले के ओकर अंगुरी देखत बोलल, ‘ई लुकावे छिपावे वाली बात त रहल ना.’
‘लुकावलो ना गइल रहुवे.’ लड़िकी के पिता बोललन, ‘शादी का पहिलहीं बता दिहले रहीं. ’
‘तब काहे छोड़ दिहलसि?’
‘अब इहे त समुझ नइखे पावत आदमी.’ लड़िकी के पिता बोललन, ‘अब ओह लोग के कहना बा कि बिआह से पहिले अन्हारे में राखल गइल.’
‘त अब का इरादा बा?’
‘इहे त बहिनी रउरा से पूछे आइल बानी सँ कि का कइल जाव?’
‘जे लोग अगुआ रहल ओह लोग के बिचवनिया बनाईं. कुछ नाते रिश्तेदारन के लगाईं. समुझाईं ओह लोगन के. शायद मान जाव लोग.’
‘ई सब करिके हार गइल बानी सँ.’ लड़िकी के पिता बोललन, ‘इहो कहनी सँ कि हमनी का ब्राह्मण हईँ, लड़िकी के दोसर बिआहो ना करा सकीं. लड़िका आ उनुका बाप के गोड़धरियो कइनी सँ. बाकिर सब बेकार रहल.’ ई कह के ऊ बिलखे लगलन.
‘त अब?’
‘हमार त अकिले हेरा गइल बा बहिनी! तबहियें त अब रउरा शरण में आइल बानी सँ.’
‘फेर त थाना पुलिस, कचहरी वकील करे के पड़ी. बोलीं, तइयार बानी?’
‘एह सब का बिना काम ना चली?” ऊ घिघियइलन.
‘देखीं जेकरा आँखि के पानी मर जाव. समाज के लाज हया पी जाव, घर परिवार के मरजादा भूला जाव, अइसन सुकुमार लड़िका का साथे जानवर जस बेवहार करे ओकरा साथे क़ानून के डंडा चलावे से परहेज कइल अपने साथे छल कइल होखी, आत्मघाती होखी.’
‘तबहियों ऊ लोग एकरा के ना राखे तब?’
‘एकरा के अब ओहिजा रखला के कवनो जरुरते नइखे.’ मुनमुन बोलल, ‘ओहनी के सबक़ सिखाईं आ एकर दोसर बिआह करावे के तइयारी करीं.’
‘दोसरी बिआह?’ पिता के ठकुआ मार दिहलसि. ऊ फेरु दोहरियवलन, ‘हमनी का ब्राह्मण हईँ.’ ऊ तनिका थथमलन आ फेरू बुदबुदइलन, ‘के करी बिआह? आ फेर लोग-बाग का कही?’
‘कुछ ना कही.’ मुनमुन बोलल, ‘राउर बेटी जब सुख चैन से रहे लागी त सभकर मुंह सिआ जाई. हँ, अगर रोज अइसने छोड़-पकड़ लागल रही त ज़रूरे सभकर मुंह खुलल रही. अब रउरा सोच लीं कि का करे के बा?’ ऊ बोलल, ‘जल्दबाजी में कवनो फैसला मत करीं. अबहीं घरे जाईं. सोचीं विचारीं. आ घर में पत्नी से, बेटी से, परिजनन से राय-विचार करीं. ठंडा दिमाग़ से. दू-चार-दस दिन में आईं. फेर फ़ैसला कइल जाई कि का कइल जाव?’
‘ठीक बहिनी!’ कहिके ऊ बेटी के लेके चल गइलन.
दू दिन बाद फेर अइलन बेटिओ के साथे लिहले आ मुनमुन से बोललन, ‘हमनी का फ़ैसला कर लिहले बानी सँ. अब जवन रउरा कहब तवन सबकुछ करे के तईयार बानी सँ.’
‘ठीक बा.’ मुनमुन उनुका बेटी ओरि देखत पुछलसि, ‘का तूहूँ तइयार बाड़ू?’
ऊ कुछ बोलल ना. चुपचाप कुर्सी पर बइठल नीचे के ज़मीन गोड़ के अंगूठा से बखोरत रहल. मानो कुछ लिखत होखो गोड़ के अंगूठा से.
‘गोड़ के अंगूठा से ना, हौसला से आपन किस्मत लिखे के पड़ेला.’ मुनमुन बोलल, ‘अगर तूं तइयार होखऽ त साफ-साफ बोलऽ ना त मना कर द. तोहरा मर्जी बिना हम कुछऊ ना करब.’
ऊ अबहियों चुपे रहल. हँ अंगूठे से ज़मीन बखोरल बंद कर दिहले रहल.
‘त तइयार बाड़ू?’ मुनमुन आपन सवाल दोहरवलसि.
‘जी दीदी!’ ऊ गँवे से बोलल.
‘त चलऽ फेर थाना चलल जाव.’ ऊ तनिका रुकल आ बोलल, ‘बाकिर पहिले एगो वकील करे के पड़ी.’
‘ऊ काहे ला?’ लड़िकी के पिता अकबका के पूछलन.
‘एफ़.आई.आर. के ड्रा़फ्ट लिखवावे ला.’
‘त वकील त पइसा ली. ’
‘हँ ली त. बाकिर ढेर ना.’ मुनमुन बोतवलसि.
‘बाकिर अबहीं त हम किराया भाड़ा छोड़ कुछ अधिका ले नइखीं आइल.’
‘कवनो बाति ना.’ मुनमुन बोलल, ‘वकील के पइसा बाद में दे देब. अबहीं सौ पचास रुपिया त होखबे करी, ऊ टाइपिंग ला दे देब.’
‘ठीक बा!’
वकील किहां जा के, पूरा डिटेल बता के, नून मरीचा मिला के एफ़.आई.आर. के तहरीर टाइप करवा के मुनमुन बाप बेटी के ले के थाना चहुँपल. थाना वाला ना नुकुर पर अइलन त मुनमन बोलल, ‘का चाहत बानीं कि सोझे डी.एम., एस.एस.पी भिरी जाईं सँ भा अदालती आदेश ले के आईं सँ?’ ऊ बोलल, ‘एफ़.आई.आर. त रउरा लिखहीं के पड़ी आज लिखीं भा दू चार दिन बाद!’
अब थानेदार तनिका घबराइल आ बोलल, ‘ठीक बा. तहरीर छोड़ दीं. जांच का बाद एफ़.आई.आर. लिख दीहल जाई.’
‘आ जे एफ़.आई.आर. लिखला का बाद जाँच करब सभे त का बेसी दिक्कत बा?’ मुनमुन थानेदार से पूछलसि.
‘देखीं मैडम हमनी के हमहन के काम करे दीँ!’ थानेदार फेर टालमटोल कइलन.
‘रउरा से फेरु बिनती करत बानी सँ कि एफ़.आई.आर. दर्ज कर लीँ. मामला डावरी एक्ट के बा. एहमें रउरा बचे के रास्ता नइखे. आ जे अबहीं ना लिखब त अबहिएं शहर जा के डी.एम. आ एस.एस.पी. से राउर ओरहन करे के पड़ी. राउरो फजीहत होखी. हमनी के बस दौड़-धूप बढ़ जाई!’
थानेदार मान गइलन. रिपोर्ट दर्ज हो गइल. लड़िकी के ससुराल पक्ष के पूरा परिवार फ़रार हो गइल. घर में ताला लगा के ना जाने कहवां चल गइले सँ. रिश्तेदारी, जान-पहचान सहित तमाम संभावित ठिकानन पर पुलिस छापा डललसि बाकिर कतहीं ना भेंटइले सँ. महीना बीत गइल. महीना भर बादे पारिवारिक अदालत में मुनमुन लड़िकी का ओर से गुज़ारा भत्ता खातिरो मुक़दमा दर्ज करवा दिहलसि. अब ससुराल पक्ष का ओर से एगो वकील मिलल बाप बेटी से. वकील लड़िकी के पिता से कहलसि कि, ‘सुलहनामा कर ल आ ऊ लोग तोहरा बेटी के विदा करा ले जाई.’
लड़िकी के पिता मुनमुन से पूछलन, ‘का करीं?’
‘करे के का बा?’ ऊ बोलल, ‘मना कर दीं आ कवनो बात मत करीं. अबहीं जब कुर्की के नौबत आई तब पता चली. देखल जाव, कहिया ले फरार रहत बाड़न स.’
‘बाकिर ऊ लोग बेटी के विदा करावे ला तईयार त हो गइल बा.’
‘कुछ ना. ई मजबूरी के पैंतरेबाज़ी बावे. कुछऊ कर लीं ओहिजा अब राउर बेटी जा के कबहियों खुश ना रहि पाई.’
‘काहें?’
‘काहेंकि गांठ अब बहुत मोट पड़ गइल बा.’ मुनमुन बोलल, ‘तनिका दिन अउरी सबुर कर लीं आ दोसर बिआह ला रिश्ता खोजीं. एहनी के भुला जाईं.’
आ आखिरकार सुलहनामा लिखा गइल. मुनमुन के कहला मुताबिक़ लड़िकी के पिता बतौर मुआवजा दस लाख रुपिया मंगलन. बात पाँच लाख पर तय भइल. दुनू का बीच तलाक हो गइल. लड़िकी के पिता एही पाँच लाख से ओकर दोसर बिआह करवा दिहलें. लड़िकी के बारे में सब कुछ पहिलहीं बता दीहल गइल, कटल अंगूरी से ले के पहिलका बिआह तक ले. कुछऊ लुकावल ना गइल. एक दिन लड़िकी अपना नयका पति का साथे मुनमुन से मिले आइल. लिपट के रो पड़ल. मुनमुनो रोवे लागल. ई खुशी के आंसू रहल. बाद में लड़िकी बोलल, ‘दीदी रउरा त हमरा के नरक से निकाल के सरग में बईठा दिहनी. ई बहुते नीमन हउवन. हमरा के बहुते मानेलन.’ फेर ऊ गँवे से जोड़लसि, ‘दीदी अब रउरो बिआह कर लीं!’
मुनमुन चुप रह गइल. कुछ देर ले दुनु चुप रहली. आ ऊ जे कहल जाला कि इतिहास अपना के दोहरावेला त उहे होखत रहल. मुनमुन कुर्सी पर बइठल-बइठल गोड़ के अंगूठा से नीचे के माटी बखोरत रहली.
‘दीदी बुरा ना मानीं त एगो बात कहीं”‘चुप्पी तूड़त लड़िकी पूछलसि.
‘कहऽ.’ मुनमुन गँवे से बोलल.
‘छोटा मुंह आ बड़ बात!’ लड़िकी बोलल, ‘बाकिर दीदी रउरे एक बेर एहिजे बइठल हमरा से कहले रहनी कि गोड़ के अंगूठा से ना अपना हौसला से आपन किस्मत लिखे के होला!’
‘अच्छा-अच्छा!’ कहि के मुनमुन धीरे से मुसुकाइल.
‘त दीदी रउरो बिआह कर लीं!’ लड़िकी मानो मनुहार कइलसि.
‘अब हमरा नसीब में ना जाने का लिखल बा बहिन !’ कहि के मुनमुन ओह लड़िकी के पकड़ के फफके लागल. ‘समुझावल आसान होला, समुझल मुश्किल!’ कहि के ऊ दुनू हाथ जोड़ले, रोवत घर का भीतर चल गइल. रोना घोषित रूप से छोड़ दिहला का बाद आजु मुनमुन पहिलके बेर रोवले रहल. से खूब रोवलसि. देर तक. तकिया भींज गइल.
जल्दिए मुनमुन फेरु रोवल. चनाजोर गरम बेचे वाला तिवारी जी के गंगा लाभ हो गइल. ऊ पता लगा के उनुका घरे गइल आ तिवारी जी के विधवा बूढ़ पत्नी का विलाप में उहो शामिल हो गइल. फेर बड़ी देर रोवलसि. तिवारी जी ओकरा नाम से चनाजोर गरम बेच के जवन मान सम्मान आन बखसले रहलें, ऊ ओकरा जिनिगी के संबल बन गइल रहुवे. ई बाति ऊ तिवारी जी के निधन का बाद उनुका घरे जा के महसूसलसि. शायद एही चलते ओकर रोवाई तिवारी जी के विधवा का रोवाई से अनायास एक हो गइल. अइसे जइसे छलछलात जमुना गंगा से जा मिलेली. मिल के शांत हो जाली. फेरु साथे साथ बहत एकमेव होके गंगा बन जाली. आ ऊ जे कहल जाला नू कि नदी के पाट जमुना का चलते चाकर होखेला, बाकिर नाम होला गंगा के. त एहिजो बाद में बेसी रोवलसि मुनमुन बाकिर तिवराइन के विलाप लोग अधिका सुनल. गंगा के पाट आ तिवराइन के विलाप के ई एकमेव संजोग ना जाने काहें मुनमुन के रोवल रोक ना पावत रहल. घर में त तकिया भींजल रहल. एहिजा का भीँजल? का ई मुनमुन के ढेर दिन ना रोवला का जिद का चलते भइल? आ कि सावन भादो में सूखा पड़ल आ कुआर कातिक में बाढ़ आ गइल. अतना कि बांध टूट गइल! ई कवन मनोभाव रहल?
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(डाढ़ से टूटल पतई आ बिआहल बेटी के हाल एके जइसन होखेला. डाढ़ि पर लवटि ना सके आ जमीन पर उधियाइल छोड़ दोसर विकल्प ना होला ओकरा सोझा. त का मुनमुन ओह लड़िकी के बात मान लीही? एह सवाल के जबाब अगिला कड़ी में. कोशिश रही कि अगिला कड़ी एह उपन्यास के पूरा करा दी – संपादक.)

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