बांसगांव की मुनमुन – 21 वीं कड़ी

बांसगांव की मुनमुन – 21 वीं कड़ी
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( दयानन्द पाण्डेय के बहुचर्चित उपन्यास के भोजपुरी अनुवाद )

धारावाहिक कड़ी के इकइसवां परोस
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( पिछला कड़ी में पढ़ले रहीं कि मुनमुन के ससुराल वालन आ मुनमुन के घर वालन का बीच विवाद सलटावे खातिर मिले के दिन समय आ जगहा तय हो गइल. एकरा बाद के कहानी नीचे दीहल जा रहल बा. अगर पिछला कड़ी नइखीं पढ़ले त पहिले पिछलका कड़ी पढ़ लीं.)

बगल का गाँव के एगो औरत रहल सुनीता. पिता मिलेट्री में रहलन. अब रिटायर्ड रहलन. बाकिर सुनीता जब नउवां क्लास में रहल तब सेंट्रल स्कूल में पढ़त रहुवेे.ओकरा कवनो कापी मेें ओकरा महतारी केे मिल गइल कवनो मैगज़ीन से काट के निकालल अमिताभ बच्चन केेे फ़ोटो. ऊ बहुते डँटली. फेेर कुछ दिन बाद उनुका आमिर ख़ान के फ़ोटो मिल गइल ओकरा कवनो कापी में. बस महतारी बवाल क दिहली. बाति बाप लेे चहुँपल. आनन फ़ानन ओकर बिआह क दीहल गइल. जाहिर रहल कि तब लड़िको छोटे रहल आ इंटर में पढ़त रहल. संयोग अइसन बनल कि दुर्भाग्य सेे शादी के दस बरीस बादो ले कवनो बच्चा ना भइल. सास के ताना सुन-सुन केे ऊ आजिज़ आ गइल. ओकर पतिओ जब-तब तलाक़ के धमकी देबे लागल. बाकिर ससुर सरकारी नौकरी में रहलन सेे बच-बचा के रहसु. फेर अचानक जानेे का भइलकि ओकरा पेेट रह गइल, माने कि प्रिगनेंट हो गइल. अब सभकर बेेवहार बदल गइल ओकरा सेे. ऊ वह कुलच्छिनी से लक्ष्मी हो गइल. बाकिर जल्दिए लक्ष्मी होखेे केेे इहो भाव उतर गइल जब ऊ एगो लक्ष्मी के जनम दे दिहलसि. बाकिर बांझ होखे केे कलंक त मेटिए गइल रहेे. जल्दिए ऊ फेर पेेट सेे रह गइल. उम्मीद फेेरु बनल बाकिर अबकियो लक्ष्मी के आ गइला सेे ओकर दुर्दशा बढ़ गइल. मार पीट आ तानन में इज़ाफ़ा हो गइल. ससुर रिटायर हो चुकल रहलन. खरचा बढ़ गइल रहुवेे आ मरद पियक्कड़ आ निकम्मा हो गइल रहुवे. हार थाक केे सुनीता अपना बेटियन केे लेके नइहर आ गइल. प्राइवेट से हाई स्कूल के इम्तहान दिहलसि. पास हो गइल. त दू बरीस बाद इंटर के इम्तहान दिहलसि. फेर पास हो गइल. बी.ए. के प्राइवेट फ़ार्म भरलसि. अब मरद आ के सुनीता के नइहर में मायके में आ कर तंग करे लागल. आजिज आ के सुनीता के पिता ओकरा के ससुराल विदा कर दीहलन. कुछ दिन बाद सुनीता काे पति एक दिन सुनीता के पिता का लगे चहुँपल. बोलल कि, ‘ठेकेदारी शुरू कइल चाहत बानी.’

‘त शुरू करऽ.’ सुनीता के पिता कहलन.

‘रउरा से मदद चाहीं.’

‘का मदद चाहत बाड़ऽ?’ सुनीता के पिता बिदकलेे.

‘पइसा के मदद।’

‘ऊ हम कहवां से दीं?’

‘अबहियें अबहीं त रउरा रिटायर भइल बानी. फंड, ग्रेच्युटी मिलल होखी.’

‘त ऊ हमरा बुढ़ापा ला मिलल बा, तोहरा के शराब पिआवेे ला ना.’

‘उधारे समुझ के दे दीं.’ सुनीता के पति बोलल, ‘जल्दिए लवटा देेब.’

शराबी पइसा कहां सेे दी आ कइसे दी सोचत सुनीता के पिता साफ कह दीहलन, ‘हम ना देब. अपना बाप सेे माँग लऽ.’

‘ऊ नइखन देेत, रउरे दे दीं.’ कहि के ऊ ससुर के गोड़ पर गिर पड़ल.

‘चलऽ, जहां ख़रचा लागी बता दीहऽ हम खरच कर देब बाकिर पइसा तोहरा हाथ में ना देब.’

‘ठीक बा रउरे खरच करी. बाकिर कतना एमाउंट देब ई त बता दी.’

‘तोहरा चाहीं कतना?’

‘चाहीं त दस लाख रुपिया.’

‘अतना पइसा त हमरा मिललो नइखेे.’

‘तो फेर?’

‘हम बेेसी सेे बेेसी तोहरा केे पचास हज़ार दे सकिलेें. बस!’

‘पचास हज़ार में कइसन ठेकेदारी होखी भला?’ ऊ उदास हो के बोलल.

‘जा पहिलेे कवनो ठेकेदार किहां नौकरी करऽ. ठेकेदारी सीखऽ. फेर ठेकेदारी करीहऽ.’

‘पइसा देबे के होखो त दे दीं.’ सुनीता के पति बोलल, ‘ज्ञान आ उपदेश मत दीं!’

‘चलऽ इहो नइखीं देत.’

घरे जा केे सुनीता के पति सुनीता के ख़ूब मरलसि-पीटलसि. बाद मेे अपना बाप-महतारी से अलगा रहे लागल. सुनीता के साथ शहर में अलग किराया पर घर ले केे. अब सुनीता के उपवास के दिन आ गइल. ससुर का घरे लाख ताना, लाख मुश्किल रहल बाकिर दू जून के रोटी आ बेटियन के पाव भर दूध तो मिलिए जाव. एहिजा उहो मयस्सर ना रहल. तवना पर से मार पीट रोज दिन के बात हो गइल. हार पाछ के सुनीता के पिता बाल पुष्टाहार में एगो लिंक खोजलन आ दस हज़ार रुपिया केे रिश्वत दे के बेटी के ओह गाँव केे आंगनवाड़ी कार्यकर्त्री बनवा दीहलन.

रोटी दाल चले लागल. बस दिक्क़त इहेे रहल कि शहर छोड़ के सुनीता केे गांव में आ के रहे पड़ल. बाकिर भूख अउर लाचारी का क़ीमत पर शहर में रहला केे कवनो मतलबो ना रहल. बाकिर सुनीता के मरद एहिजा आंगनवाड़ीओ में ओकरा केे चैन से रहेे ना दिहलसि. आंगेनवाड़ी के दलिया बिस्कुट बेच केे शराब पीयल शुरू कर दिहलसि. सुनीता विरोध कइलसि त आंगनवाड़ी कार्यालय में ओकर लिखित शिकायत कर दिहलसि कि ऊ निर्बल आय वर्ग के ना हीय. हम बी ग्रेड के ठेकेदार हईं. घर में खेती बारी बा वगैरह-वगैरह. से सुनीता केे आंगनवाड़ी से बर्खास्त कर दीहल जाव. सुनीता के नोटिस मिल गइल कि उनुकर सेवा समाप्त काहेें ना कर दीहल जाव! ऊ भागल भागल अपना पिता किहां चहुँपल. सब जनला-सुनला का बाद पिता जवना आदमी केे दस हज़ार रुपिया देे के सुनीता के आंगनवाड़ी में भर्ती करववले रहलन ओकरेे केे दू हजार रुपिया अउर देे केे मामला रफ़ा-दफ़ा करवलन.

अब सुनीता के पति कहे लागल कि, ‘तोहरा आंगनवाड़ी में काम कइला सेे हमार बेइज़्ज़ती हो रहल बा. या त आंगनबाड़ी छोड़ दऽ भा हमरा केे छोड़ द.’

सुनीता घबरा गइल. केेहू ओकरा के मुनमुन से मिले के सलाह दीहल. सुनीता बांसगांव आ के मुनमुन से मिलल. सगरी वाक़या बतवलसि आ पूछलसि कि, ‘का करीं? एने खंदक, ओने खाई? पति छोड़ीं कि आंगनवाड़ी?’

‘खाना दे केे रहल बा?’ मुनमुन पूछली, ‘पति कि आंगनवाड़ी?’

‘आंगनवाड़ी!’

‘त पति के छोड़ द.’ मुनमुन बोलली, ‘जवन पति अपना पत्नी के प्यार आ परिवार के भरण पोषण कइला का जगहा ओकरा पर बोझा बन जाव, उलुटेे मारपीट करेे, अइसना मरद केे इहे इलाज होखेेला. अइसनका पति केे कह द कि हवा में बोवेे बावन बीघा पुदीना आ खाए ओकर चटनी. हमरा नइखेे खाए के ई चटनी!’ मुनमुन सुनीता के रघुवीर सहाय के एगो कवितो सुनवलसि, ‘पढ़िए गीता/बनिए सीता/फिर इन सब में लगा पलीता/किसी मूर्ख की हो परिणीता/निज घर-बार बसाइए।’ कविता सुना केे मुनमुन बोलली, ‘हमहन के नइखे बसावे के अइसन घर-बार, नइखे बने के अइसन सीता, अइसन गीता पढ़ि के. समुझलु हमार बहिन सुनीता।’

‘हूं.’ कहिके सुनीता संतुष्ट आ निश्चिंत हो गइल. फेर मुनमुन सुनीता के आपन कथा सुना के कहलसि, ‘तोहरा लगे त दू गो बेेटी बाड़ी सँ, एहनी का सहारेे जी लेबू. हमरा लगे त बूढ़ बाप महतारी बाड़ेें जेे हमरेे सहारेे जीयऽता लोग. सोचऽ भला कि हम केेकरा सहारेे जीयब?’ कहि केे मुनमुन उदास हो गइल.

‘हम बानी मुनमुन दीदी रउरा साथ!’ कहिके सुनीता रो पड़ल आ मुनमुन से लिपट गइल. बाकिर मुनमुन ना रोवल. ई सुनीतो गौर कइलसि. मुनमुन समुझ गइल. सुनीता सेे बोलल, ‘तूं सोचत होखबू कि आपन विपदा कथा बता के हम काहेें ना रोवनी? बा नू?’ सुनीता जब सकारत मूड़ी हिलवलसि त मुनमुन बोलल, ‘पहिले हमहूं बात-बेबात रोवल करीं. बहुतेे रोवल करीं. बाकिर समय पत्थर बना दिहलसि. अब हम ना रोईं. रोवला सेे औरत कमज़ोर हो जाले. आ ई समाज कमजोरन केे लात मारेेला. सेे हम ना रोईं. तुहूं मत रोवल करऽ. उलुटेे कमज़ोर औरत के लात मारे वाला समाज के लतियावल करऽ. सब ठीक हो जाई!’

बाकिर सुनीता फेर रो पड़ल. बोलल, ‘सब कइसे ठीक हो जाई भला?’

‘हो जाई, हो जाई. मत रोवऽ. ’ मुनमुन बोलल, ‘भरोसा राखऽ अपना पर आ ई सोचऽ कि अब तूं अबला नइखू.काहेेंकि खुद कमालू, खुद खालू. अपना बारे मेें अइसेे सोच केे देखऽ त सब ठीक हो जाई.’

‘जी दीदी!’ कहि केे सुनीता मुसुकाइल आ मुनमुन से विदा मांग के चल गइल बांसगांव से अपना गांवे. आ फेर सुनीतेे काहें? रमावती, उर्मिला, शीला अउर विद्यावती जइसन जाने कतना महिला मुनमुन से जुड़त जात रहली सँ. आ मुनमुन सभका के सबला बने के पाठ पढ़ावत रहल. ऊ बतावल करे, ‘अबला बनल रहबू त पिटाइल करबू, बेेइज्जत होखत रहबू. ख़ुद कमा, ख़ुद खा त सबला बनबू, पिटइबू ना. अपमानित ना होखबू. स्वाभिमान से रहबू.’

मुनमुन शिलांग जइसन जगहन के हवाला दीहल करेे. बतावेे कि उहवाँ मातृ सत्तात्मक समाज बा, मातृ प्रधान समाज बा. प्रापर्टी औरतन का नामे रहेला, मरदन का नामेे ना. मरदन सेे जतना एहिजा के औरत कांपेेली सँ, ओह से बेेसी ओहिजा शिलांग में औरतन से पुरुेष कांपेलेें. जानेलू काहें?’ ऊ साथी औरतन से पूछल करेे. आ जब ऊ ना जानेे का कारण डोलावऽ सँ त मुनमुन ओहनी के बतावेे, ‘काहेें कि ओहिजा सगरी शक्ति, जायदाद औरतन का हाथे होला. अतना कि शादी के बाद ओहिजा औरत पुरुष का घरेे ना जा सँ, पुरुष औरत का घरे जा के रहेला. बड़हन-बड़हन आई.ए.एस. अफ़सरानो बीवी का घरेे जा के रहेलेें आ दब के रहे के पड़ेला. काहेें कि ओहिजा औरत सबला बाड़ी.’ ऊ बतावेे कि, ‘वइसेे ओहिजा अधिकतर लोग क्रिश्चियन हो गइल बा लेकिन ऊ सभे लोग मूल रूप से दरअसल आदिवासी लोग हवे. त जब दबल कुचल आदिवासी औरत सबला बन सकीलें त एहिजा हमहन काहें ना बन सकीं?’ मुनमुन बतावल करे कि, ‘अइसहीं थाईलैंडो में होला. ओहिजो औरत मरदन के कूकूर बना के राखीलेें सँ. ओहिजो मातृ सत्तात्मक परिवार आ समाज बावे. औरत ओहिजो सबला बाड़ी सँ.’

‘रउरा शिलांग आ थाईलैंड गइल रहनी का मुनमुन दीदी?’

‘ना त!’

‘त फेेर कइसे जानीलेें?’

‘तूं लोग दिल्ली का बारे में जानेेलू?’

‘हं, थोड़-बहुत!’

‘त का दिल्ली गइल बाड़ू?’ मुनमुन बोलल, ‘ना नू? अरे कहीं के बारे में जाने ला ओहिजो गइलो जरुरी होला का? पढ़ के, सुनियो के जानल जा सकेला.हम एह दुनू जगहा का बारे मेेें पढ़िए जनले बानी.’ ऊ बोलल, ‘हम त चनरमो पर नइखीं गइल आ अमेरिको नइखीं गइल. त का ओहिजा का बारेे मेें जनबो ना करीं का?’ ऊ पूछलसि आ खुदही जबाबो दिहलसि, ‘बाकिर जानीलेें. पढ़ के, टी.वी. देख के.’

मुनमुन के छवि अब गँवेे-गँवेे मरद र्विरोधी बनल जात रहुवेे. त का ऊ अपना पति, ससुर आ भाइयन से एकही साथ बदला लेत रहुवे? ई एगो बड़हन सवाल बन गइल रहल बांसगांव का हवा में. बांसगांव का सड़कन पर समाज में. हालां कि ऊ साथी औरतन से कहल करेे, ‘जइसे पुरुष औरत के ग़ुलाम बना के, अत्याचार आ सता केे रखलेे त ई ठीक नइखेे. ठीक वइसहीं औरतो मरद केे कूकूर बना के राखेे इहो ठीक ना कहाई.’ ऊ जइसे जोड़ल करेे, ‘हमनी के संविधान स्त्री आ पुरुष के बराबरी के दर्जा दिहले बा, हमहन के उहे बरोबरी चाहीं. उहेे सम्मान आ उहे स्वाभिमान चाहीं जे कवनो सभ्य समाज में होखल चाहीं.’

(त का मुनमुन राय अब राजनीति केे रुख करत रहुवे? एह सवाल केे जबाब अगिला कड़ी में. – संपादक.)

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