गाँव-गान : गउँआ के देखि मन चिहाला

गाँव-गान : गउँआ के देखि मन चिहाला

– – प्रो.(डॉ.) जयकान्त सिंह ‘जय’

#भोजपुरी #कविता #गाँव #जयकांत-सिंह-जय

गउँआ में गउँआ के दरसन दुलम भइलें
गउँआ के देखि मन चिहाला।

प्रोफेसर जयकान्त सिंह 'जय'

ए भइया, गउँआ के हाल ना कहाला।।
रङ्ग ढ़ङ्ग आ रीत – रमन के का बताईं,
गउँआ का नवहिन के सुन के चिन्हाईं।
पहिले वाला बात ना बुझाला।।
गउँआ के देखि मन चिहाला।

सोझा के जामल दे सोझे में आदर,
पीछा में तार – तार करे लागे चादर।
खर-खानदान ले नपाला।।
गउँआ के देखि मन चिहाला।

ब्लौक बैंक थाना के करे जे दलाली,
ओही के मान – दान अउर खुशहाली।
अझुरा के लोग मुस्काला।।
गउँआ के देखि मन चिहाला।

लउके इनार नाहीं बर पीपर गाछी,
पूछ नाहीं बूढ़न के मारस बस माँछी।
ओसारा में असरा दिआला।।
गउँआ के देखि मन चिहाला।

खपड़ा के घर ना, दलान ना बथानी,
सभकर बा कोठा में कैद जिन्दगानी।
केहू के ना केहू भेंटाला।।
गउँआ के देखि मन चिहाला।

लइकन के खेले ला ना बा फरदाना,
डर बाटे बिगड़े के बंद आना – जाना।
लइकन के बचपन छिनाला।।
गउँआ के देखि मन चिहाला।

लइकन के छूट गइल फुफुहर आ ममहर
रिश्तन में जागल बा सढ़ुआना अगहर
दिदिया के दिन ना धराला।।
गउँआ के देखि मन चिहाला।

गइये से गाँव अउर गोयेंर के गोतिया।
गइये गोबंस वाला गोबर से खेतिया।
नाद-खूंटा गाँव से पराला।।
गउँआ के देखि मन चिहाला।

धनहर ना खेती ना लगहर दुआरे,
चिउरा – दही नाहीं भेंटल सकारे।
पाकिट के दूध भइल आला।।
गउँआ के देखि मन चिहाला।

फगुआ आ चइता बस टीवी सुनावे
झूमर आ कजरी ना नवकी के आवे
बिआह में बस फिल्मी सुनाला।।
गउँआ के देखि मन चिहाला।

ईंटा के भाठा रेहाँठ कइल माटी,
होत गइल पोखरा रहे खेत खाँटी।
बस मछरी छोड़ाला बिकाला।।
गउँआ के देखि मन चिहाला।

दादा स्कूल के जे दिहलें जमीन के,
पोता नपवावे अब फेरु अमीन से।
बेकागज के दान अब छिनाता।।
गउँआ के देखि मन चिहाला।

कहा-सुनी भर में थाना बोलवावल,
कमाई के जरिया लगावल-बझावल।
मुदई आ मीत ना चिन्हाला।।
गउँआ के देखि मन चिहाला।

एम पी विधायक के राइफल जे ढ़ोये,
मुखिया सरपंच सब पंचाइत के होवे।
डिलरसिप से उहे कमाला।।
गउँआ के देखि मन चिहाला।

पढ़ल – लिखल लोग इज्जत बचावे,
गउँआ के लफरा में नाँव जनि आवे।
एतने ला गूङ्गी नाधाला।।
गउँआ के देखि मन चिहाला।

फंड कवनो आवे जब गाँवे सरकारी,
काम से का काम बन्दरबाँट मारामारी।
सड़क नाला कुल्ह धँस जाला।।
गउँआ के देखि मन चिहाला।

कवि लोग सहरे से गउँआ पर रीझल,
जय उनके गीत सुनी मनवा ई खीझल।
जे गउँवा में आवे ना जाला।।
गउँआ के देखि मन चिहाला।

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