बतकुच्चन १०२


पिछला हफ्ता एक जने के पटावे खातिर दोसरा जने के पठा दिहल गइल. जिनका के पठावल गइल से ओह राज्य के पालक रहलें आ लोग कहत बा कि एह बहाने उनुका के पटावे के कोशिश कइल गइल बा जिनकर सहारा अगिला साल के चुनाव का बाद लेबे के जरूरत पड़ सकेला.

राजनीति में हर तरह के पट्टी पढ़ावत रहेला लोग बाकिर कूटनीति में चालबाजी के एगो अइसन नमूना देखे के मिलल बा कि जीव सन्न दे रहि गइल. सुनत पढ़त देखत आइल रहनी कि सगरी खूदाई एक तरफ जोरू के भाई एक तरफ. अब कूटनीतिओ में एकर पालन होखे लागल बा. मलकिनी का नइहर के हर अपराधी हमनी के ठेंगा देखावत आजाद होखत जात बा आ हमनी के बूता नइखे कि ओहन के विरोध कर पाईं स. मलकिनी के गोल के लोगो मुँह पर पट्टी बान्ह लिहले बा. केकर मईया बाघ बियानी कि मलकिनी के नइहर से जुड़ल मुद्दा पर आपन मुँह खोल सको. से सभे पटा गइल बा. केहू के आँख पर पट्टी पड़ल बा त केहू मुँह पर पट्टी बान्ह लिहले बा. जानत बा लोग कि ओह लोग के बात रउरा सभे पतियाएब ना से ऊ लोग रउरा के पटियावे के कोशिशे छोड़ दिहले बा एह मुद्दा पर. जानत बा कि रउरा के एह बात पर पटकनिया दिहल संभव ना हो पाई त पटकुनिया पड़ गइल बा ऊ लोग.

अब एतना देर के पटपटाहट से रउरो बहुत कुछ साफ हो गइल होई कि हम कवना पट्टी के बात करत बानी. आ हो सकेला कि एह फेर में पटावल, पठावल, पटियावल, पतियावल, पट्टी पढ़ावल, पट्टी बान्हल, पट्टी पड़ल, पट्टी, पटाइल, पटकुनिया, वगैरह पर से धेयान हट गइल होखी. अपना विद्यार्थी जीवन में हमनी के वाक्य में खाली जगहन के शब्दन से भरे के कहल जात रहुवे परीक्षा में. बाकिर बतकुच्चन में हम कुछ शब्द ले लिहिलें आ फेर ओह शब्दन के गोलियावत वाक्य भरत रहीलें. ई त भइल बतकुच्चन के रचना प्रक्रिया आ हम त हमेशा इहे चाहब कि रउरो सभे राजनीतिक गोलबंदी भूला के एह शब्दन के मतलब आ ओकर इस्तेमाल पर धेयान दी सभें. सामयिक मुद्दन के इस्तेमाल त बस सुभीता खातिर कर लिहल जाला कि बतियावे आ समुझे में आसानी होखे. ओकर कवनो निहितार्थ निकलला के जरूरत ना होखे.

दू हफ्ता में फगुआ आवत बा से ढेरे कादो पाँकी फेंकल लगावल जाई. कुछ दोसरा पर लागी कुछ रउरो पर पड़ सकेला. दोसरा के गोबर लगावे में आपनो हाथ त गंदा होखहीं के बा. केकर केकर लीहीं नाम कमरी ओढ़ले सगरी गाँव. बाकिर तकलीफ एह बात के बा कि जब कवनो देश अपना बात से मुकर जाव त फेर केकर भरोसा रहि जाई. बाते से आदमी पान खाला बाते से लात खाए के नौबत आ जाला. आ एहसे बोलत घरी बहुते सम्हर के रहे के चाहीं. आ फेर कवनो बात के लमरलो के सीमा होखे के चाहीं. बात ह हनुमान जी के पोंछ त ह ना कि जतना मन करे बढ़वले चल जाईं. से अब एहिजे रोकत बानी आजु के बतकुच्चन.

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