बांसगांव की मुनमुन – 19 वीं कड़ी

बांसगांव की मुनमुन – 19 वीं कड़ी

( दयानन्द पाण्डेय के बहुचर्चित उपन्यास के भोजपुरी अनुवाद )

धारावाहिक कड़ी के उनइसवां परोस
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( पिछला कड़ी में पढ़ले रहीं कि मुनमुन के ममेरा भाई दीपक बांसगांव जवन देखि के आइल ओकरा बाद बहुते परेशान हो गइल. मुनमुन के भाइयन से बात क के कवनो राह निकालल ओकरा जरुरी लागल. मुनमुन से वादा क के आइल रहुवे कि घबरा मत. कवनो राह निकालत बानी. बाकिर का राह निकल पावल ई एह कड़ी में पढ़ीं. पिछलका कड़ी अगर ना पढ़ले होखीं त पहिले ओकरा के पढ़ लीं.)

 


हालां कि दीपक चलल त रहुवे शहर जाए खातिर बाकिर शहर गइला का बजाय ऊ अपना गाँवे लवटि आइल. घरे चहुँप के दीपक अपना अम्मा बाबू जी के मामा-मामी अउर मुनमुन के व्यथा-कथा बतवलसि. दीपक के अम्मा आ बाबू जी एह पर अफसोस त जतवलन बाकिर अम्मा गँवे से बोलली – ‘बाकिर मुनमुनवो कम ना हियऽ.’

दीपक एहपर कवनो प्रतिवाद ना कइलसि. बाकिर मामा-मामी अउर मुनमुन के दुख ओकरा के परेशान कइले रहुवे. बाद में ऊ अपना छोट भाई जितेंद्रो से एह बारे में बतियवलसि. त जितेंद्रो मनलसि कि, ‘मुनमुन के शादी ग़लत हो गइल बा.’

‘बाकिर जब मुनमुन तोहरा से कहलसि कि एक बेर बिआह से पहिले लड़िका त देख लऽ त तोहरा चाहत रहुवे कि लड़िका देख के असलियत बता देतऽ.’

‘का बतइतीं ?’

‘काहें? का दिक्क़त रहुवे?’

‘दिक्क़त ई रहल कि हम बियहकटवा डिक्लेयर हो जइतीं.’

‘का बेवकूफी बतियावत बाड़ऽ?’ दीपक कहलसि, ‘ई बिआह होखला से नीमन रहीत कि भलहीं तूं बियहकटवा डिक्लेयर हो जइतऽ, ई बिअहवा त रद्द हो जाइत.’

‘हम मामा से बतियवले रहनी मुनमुन के कहला पर कि एक बेर हमहूं चलल चाहत बानी लड़िका के देखे. बाकिर मामा कहलन कि सब ठीक बा. तिलका में चल के लड़िका देख लीहऽ. फेर हम धीरज भइया से बतियवनी त उनुकर कहना रहल कि रमेश भइया के पुरान मुवक्क़िल हवे. सब जानल पहिचानल बा, घबराए के कवनो बात नइखे. त हम का करतीं?’ जितेंद्र बोलल, ‘जब सगरी घर तइयारे रहल त हम अकेले का करतीं?’

‘तूँ रमेश से बतियवलऽ?’

‘ना. उनुका से बतियावे के हिम्मत ना पड़ल हमार.’

‘त एक बेर हमरा से कहले रहतऽ.’ दीपक बोलल, ‘तहरा का लागत बा कि ई सब जवन हो रहल बा मुनमुन का साथे ओकरा में हमहनो के बेईज्जति नइखे होखत? आखिर ममहर ह हमनी के. हमहन के देहि में ओहिजो के खून बा. ओह दूध के करजा बा हमनी पर. ई बाति तू भुला कइसे गइलऽ? हमहनो के कुछ जिम्मेदारी बनत रहल’

‘हँ, ई गलती त हो गइल भइया.’ जितेंद्र मूड़ी गोत के गँवे से कहलसि.

ओह रात दीपक के खाना नीक ना लागल. दिल्ली लवटलो पर बहुते दिन ले ऊ अनसाइल रहल. एक दिनऊ अपना पत्नी से मुनमुन के समस्या बतियवलसि आ कहलसि कि, ‘तूंही बतावऽ का रास्ता निकालल जाव?’

‘उनुका घर में एक से एक जज, कलक्टर बइठल बाड़ें. ऊ लोग जब राह नइखे निकाल पावत त रउरा निकालब?’ ऊ कहलसि, ‘हमनी के अपने समस्याएं कम बा का?’

‘से त ठीक बा, बाकिर हमनियो के त कोशिश करिये सकीलें.’

‘चलीं सोचत बानी.’ कहि के दीपक के पत्नी सूत गइल.

बाकिर दीपक के नींद ना आइल. ऊ रमेश के फोन लगवलसि आ बतवलसि कि,‘पिछला दिने बांसगांव गइल रहीं. मुनमुन का बारे में जान के दुख भइल. तूं लोग आखिर सोचत का बाड़ऽ?’

‘हम त भइया कुछ सोचिये नइखीं पावत.’ रमेश बोलल, ‘हमनी में रउरा सबले बड़ हईं. रउए कुछ सोचीं आ रास्ता निकालीं. रउआ जवन आ जइसन कहब हम तईयार बानी.’

‘बाकिर तूं लोग अइसन बेवकूफी वाला बिआह कइसे करा दीहलऽ आँख मूंद के?’

‘अब त भइया ग़लती हो गइल.’

‘तहरा लोगन के पता बा कि मुनमुन के हसबैंड पी पा के जब-तब बांसगांव आ जाला आ मुनमुन अउत मामी के पीट-पिटाई क के, गाली गुफ्ता क के लवट जाला. जीयल मुश्किल क दिहले बा ओहिजा ओह लोगन के.’

‘अरे ई का बतावत बानी रउरा? ई त मालूमे ना भइल.’

‘अब सोचऽ कि तूं अब अपना घर के ख़बरो से बेख़बर बाड़ऽ. बूढ़ माई-बाप आ जवान बहीन कइसे रहत बावे लोग, एहसे तोहरा सगरी भाइयन के कवनो सरोकारे नइखे रहि गइल?’ दीपक बोलल, ‘भई ई त ठीक बात नइखे.’

‘का बताईं भइया.’ रमेश सकुचाइल बोलल, ‘देखत बानी.’

‘कम से कम तू त घर में सबका ले बड़ हउवऽ, तोहरा त ई सब सोचहीं के चाहीं.’ दीपक बोलल, ‘चलऽ मुनमुन के समस्या त बड़ बा, दू चार दिन में सलटावल संभव नइखे. बाकिर मामा-मामी के वेलफ़ेयर के इंतज़ाम त तोहरा लोगन के करहीं के चाहीं. समुझऽ कि ऊ लोग साक्षात नरक में जी रहल बावे. आ तोहरा लोगन के जियते जिनिगी में! कम से कम हमरा त ई बात ठीक नइखे लागत.’

बाकिर ओने से रमेश चुपे रह. दीपके ओकरा के कउँचलन, ‘चुप काहे हो गइलऽ, बोलत काहे नइखऽ?’

‘जी भइया.’ रमेश धीरे से बोलल.

‘ना, हमार बात अगर नीक नइखे लागत त फोन राखत बानी.’

‘ना-ना. अइसन बात नइखे.’

‘त ठीक बा. सोचीहऽ एह बातन पर. आ हँ, मुनमुनो का बारे में.’

‘ठीक भइया. प्रणाम.’

‘ख़ुश रहऽ.’ कहि के दीपक फ़ोन रख दिहलन. ऊ रमेश के एह सर्द बातचीत से बहुत उदास हो गइलसि. बाद का दिनन में दीपक धीरज आ तरुणो से एह बारे में बतियवलन. एहू दुनू के बातचीत में उहे बेरुखी आ ठंडापन देखत दीपक समुझ गइल कि अब मुनमुन के समस्या के समाधान सचहूं बहुत कठिन बा. एक दिन ऊ मुनमुन के फ़ोन कइलसि आ राहुल के फ़ोन नंबर मांग लिहलसि.

‘का एह तीनो भाइयन से राउर बात हो गइल बा राउर?’

‘हँ, हो गइल बा.’ दीपक टारत बतवलसि.

‘का बोलल ई लोग?’ मुनमुन जाने चहलसि.

‘ऊ सब बाद में बताएब, तू पहिले राहुल के नंबर दऽ.’ दीपक खीझिया के बोलल. ।

‘लीं, लिखीं.’ कह के ऊ राहुल के नंबर आई.एस.डी. कोड समेत लिखवा दिहलसि. फेर दीपक राहुल के फ़ोन लगवलसि. राहुल कहलसि, ‘भइया प्रणाम. अबहीं गाड़ी ड्राइव कर रहल बानी. थोड़िका देर बाद हम खुद रउरा के फोन करत बानी.’ कहि के राहुल फोन काट दिहलसि. दीपक परेशान हो गइल. बावजूद एह परेशानियन के ऊ मुनमुन के समस्या के समाधान चाहत रहुवे. ई समस्या ओकरा दिल पर बोझा बनि गइल रहल. ऊ जइसे एगो घुटन में जीयत रहल. ओकरा आँखिन का सोझा गहिराह धुंध रहुवे आ एही धुंध का बीचे में से ओकरा कवनो राह निकाले के रहल. दिल्ली के बेकार के भागदौड़ भरल जिनिगी आ एहिजा के आपाधापी से ऊ वइसहूं तनावे मे रहल. तवना पर से मुनमुन ओकरा दिलो-दिमाग़ पर सांघातिक तनाव बन के सवार हो गइल रहुवे. ओकरा बुझाए कि ओकरा दिमाग के नस फाट जाई. जब-तब तिल-तिल मरत मुनमुनो ओकरा सोझा ठाढ़ हो जाव आ पूछल करे, ‘भइया कुछ सोचनी हमरा बारे में?’

आ हर बार ओकरा लगे एकर कवनो जवाब ना रहत रहे.

ई का रहुवे?

बचपन में मामी के खिआवल पकवानन के कर्ज़?

आ कि ममहर के नेह आ माई के दूध के वेदना?

भा मुनमुनवा का साथे भइल अन्याय के प्रतिकार के जुनून?

आ कि ई सब कुछ एके साथ सतमेझरा हो गइल रहल? जवनो होखो ओकर जिनिगी गडमड हो गइल रहल. कुछ देर बाद राहुल के फोन आइल त ऊ राहत के सांस लिहलसि. राहुल बतावत रहुवे, ‘भइया राउर फोन पा के त हम भउँचक हो गइनी. पहिला बेर एहिजा राउर फोन आइल आ माफ करींं ओह बेरा हम रउरासे बतिया ना पवनी.’

‘कवनो बात ना, कवनो बात ना.’ दीपक कहलन.

‘आ भइया सब ठीक बा नू!’

‘राहुल अगर सब ठीके रहीत त तोहरा के फोन काहे करतीं भला?’

‘हँ, भइया बताईं का हो गइल?’

‘हम पिछला महीने बांसगांव गइल रहनी’

‘अच्छा-अच्छा.’ राहुल पूछलसि, ‘का हालचाल बा ओहिजा के?’

‘त तहरा कुछऊ नइखे मालूम?’

‘ना एतना ते मालूमे बा कि बाबू जी मुनमुन के विदा करवा के ले आइल बानी.’

‘बस!’

‘का कुछ अउर गड़बड़ हो गइल का?”

‘हो त गइल बा.’ कहि के दीपक ऊ सगरी बात राहुलो से कहलसि जवन ऊ रमेश,धीरज आ तरुण से कहले रहल.

राहुल पूरा बात सुनलसि आ परेशान हो गइल. बाकी तीनों भाइयन का तरह बेरुखी ना देखवलसि जबकि आई.एस.डी. काल के ख़र्चा रहल. तबहियों ऊ बोलल, ‘भइया मामला त बहुते गंभीर हो गइल बा. अगर राधेश्याम घरे आ के अम्मा अउर मुनमुन के पिटाई आ गाली गलौज करत बावे तब त बात अउर गंभीर हो गइल बा. रहल बात अम्मा-बाबू जी के वेलफ़ेयर के त ओने त हम जब तब रुपिया पठावते रहलीं. रउरा त जानते होखब कि मुनमुन के शादी में पूरा ख़रच लगभग हमरे करे के पड़ल रहुवे. उहे करजा उतारे में लागल बानी. आ हम सोचत रहीं कि भइया लोग ख़याल राखत होखी.’

‘देखऽ तोहार बहुत पइसा खरच हो रहल होखी फोन पर.’ राहुल के उत्सुकता देखत दीपक बोलल, ‘तू आपन मेल आई.डी. बतावऽ. हमनी का ओही पर बतियावल जाव भा तू याहू मैसेंजरो पर आके बतिया सकेलऽ. तब हमनी का सीधा आ इत्मीनान से बतिया पाएब सँ.’

‘हँ, भइया रउरा ठीके कहत बानी.’ कह कि ऊ आपन याहू आई.डी. लिखवा दिहलसि आ दीपको के आई.डी. लिख लिहलसि. आ कहलसि कि, ‘हमनी का अब नेटे पर बतियावल जाव.’

‘हँ, काहे कि बात लमहर बा आ मामिला गंभीर!’

‘ठीक भइया. प्रणाम!’ कह के ऊ फ़ोन काट दिहलसि.

राहुल से बतियवला का बाद दीपक, जे गहिरा डिप्रेशन में जात रहुवे, उबर गइल. ओकरा लागल कि अब कवनो ना कवनो रास्ता जरुरे निकल जाई. घुप्प अन्हार में कवनो रोशनी त लउकल. आ सचहूं दुसरके दिने राहुल के लमहर ईमेल दीपक के मिलल. राहुल विस्तार से सगरी बात बतवले रहुवे आ घर के प्लस-माइनस बतवले रहल. मनले रहल कि मुनमुन के साथ पूरा घर मिल के अनजानहीं में सही बाकिर अन्याय कर दिहले रहल, जवना में सबले बड़का दोषी ऊ खुद बा. ओकरा लागल कि पइसा खरचले ओकर जिम्मेदारी बा. घर बार आ वर देखहूं के ज़िम्मेदारी ओकरा निभावे के चाहत रहल जवन ऊ समय का कमी आ बाकी घरवालन पर भरोसा का चलते निभा ना पवलसि. फेर ऊ मुनमुन के दीहल एगो तर्को जोड़लसि कि बिआह से पहिले आदमी एगो कपड़ो खरीदेला त दस बीस कपड़ा देखला का बादे आ ठोक बजा के. आ हमनी का त मुनमुन के लाइफ़ पार्टनर तय करत रहनी सँ. आ तबहियों ना देखनी जा. जबकि मुनमुन लगातार अनेसा जतावत रहुवे आ सभका से चिरौरी करत रहुवे कि लड़िका के ठीक से देख-जांच लीहल जाव. बाकिर सभे एक दोसरा पर टार दिहलसि. आ मान लिहलसि कि बाबूजी देख लिहले बानी त सब ठीके होखी. शायद अति विश्वास आ संयुक्त परिवार में ज़िम्मेदारियन के एक दोसरा पर टार देबे के त्रासदी हउवे ई. फेर एगो लड़िका से मुनमुन के बढ़त मेल जोल एक बड़हन दबाव रहल सभका पर जे ओकरा शादी में जल्दबाज़ी के कारण बन गइल आ सभे एगो ड्यूटी का तरह शादी शायद ना करावल, बस शादी के कार्रवाई निपटवलसि. ई केहू ना सोचल कि कहीं मुनमुन का साथे कवनो बेजाँय मत हो जाव. आ उहे हो गइल. त ऊ एही परिवार के ज़िम्मेदारी होखी आ जवन दाग लागी तवब सभका दामन पर लागी. फेर राहुल अपना चिट्ठी में दीपक से एह बात पर बेहद ख़ुशी आ संतोष जतवले रहल कि हमनी का परिवार आ एह पीढ़ी में रउरा सभका से बड़ हईं आ रउरा एह तरह शिद्दत से जुड़ाव महसूस करत बानी त एह समस्या के कवनो सम्मानजनक समाधानो निकलबे करी. फेर ऊ सुझवले रहल कि ओकरा राय में मुनमुन के ससुराल में बातचीत क के ओकर सम्मानजनक ढंग से विदाई करवाईए के एह समस्या के सझूरावल ठीक रही. मुनमुन ओहिजा जा के अपना बिगड़ैल पति के सुधारियो सकेले. अइसन कई बेर देखलो गइल बा कि पत्नी का प्यार में बहुत सारा बिगड़ल लोगो सुधर गइल बा. बस कोशिश सकारात्मक होख के चाहीं.

राहुल के एह साफ़गोई, सुझाव आ परिपक्वता के कायल हो गइल दीपक आ रमेश के फोन कइलसि कि, ‘तनिका समय निकालऽ त बांसगांव चलि के मुनमुन के ससुराल वालन का साथे मिल बइठ के कवनो रास्ता निकालल जाव.’ रमेश सहमत हो गइल आ बोलल, ‘हम रउरा के बतावत बानी आ हम खुदही फोन करब.’

दीपक के लागल कि अब त बात बनिए जाई. कुछ दिन बादे रमेश के फोन आइल कि, ‘भइया हम मुनमुन के विदाई के दिन तय करवा दिहले बानी. रउरो फलां तारीख के चहुँपी आ विदाई संपन्न करवा दीं.’

‘चलऽ ई त बहुते नीक कइलऽ.’ दीपक बोलल, ‘बाकिर हमार चहुँपल त कवनो जरूरी बा ना. आ जब विदाई के दिन तये हो गइल बा त विदाई होइये जाई. हमरा अइला ना अइला से कवन फरक पड़े वाला बा ?’

‘फरक पड़ जाई भइया.’ रमेश बोलल, ‘हम मुनमुन के ससुराल वालन के विदाई ला राजी करवा लिहले बानी, अपना घरवालन के ना.’

‘त ओहू लोग के राजी करवा लऽ.’

‘कइसे राज़ी करवाईं?’ रमेश चिढ़ के बोलल, ‘मुनमुन कवनो हालत में जाए ला तइयार नइखे आ अम्मा ओकरा के शह देत बाड़ी. आ बाबूजी हमेशा का तरह तटस्थ हो गइल बानीं.’

‘ते फेर विदाई होखी कइसे?’ दीपक चिंतित होके बोलल.

‘कुछ ना भइया, रउरा आ जाएब त सब ठीक हो जाई.’

‘कइसे भला?’ दीपक आश्चर्य से पूछलसि, ‘हमरा लगे कवनो जादू के छड़ी बा का?’

‘हँ बा नू!’

‘का बेवक़ूफ़ी के बात करत बाड़ऽ?’

‘अरे भइया रउरा नइखीं जानत बाकिर हम जानत बानी कि राउर बात ना त मुनमुन टारी, ना अम्मा, ना बाबू जी. रउरा शायद नइखे मालूम कि हमरा घर में जतना स्वीकार्यता राउर बा शायद केहू दोसरा के नइखे. भगवान झूठ मत बोलवावसु आ माफ़ करसु त हम कहब कि शायद ओतना भगवानो के ना होखी.’ ऊ बोलल, ‘बस रउरा तय दिने चहुँप भर जाईं.’

‘भई हमरा त ई बात सही नइखे लागत.’ दीपक बोलल, ‘अगर मुनमुन के सहमति नइखे त हम नइखीं समुझत कि विदाई होखे के चाहीं.’

‘फेर?’ रमेश हताश हो के बोलल.

‘फेर का?’ दीपक बोलल, ‘पहिले त मुनमुनवे के समुझावल जरुरी बा. ऊ छोट हियऽ आ हमनी का बड़. ओकरा के समुझावल बतावल हमहन के धरम हवे. आ फेर ऊ वयस्क बिया, पड़ल-लिखल हियऽ, आपन नीक-बाउर बूझ सकेले. ओकर आपन जिनिगी आ आपन स्वाभिमान बा. तुहूं पढ़ल लिखल हउवऽ. एगो ज़िम्मेदार पद पर बाड़ऽ. केहू का साथे एह तरह के जोर-जबरदस्ती! भई हमरा त समुझ में नइखे आवत ना ही तोहरा के शोभा देत बा.’ ऊ बोलल, “आ फेर ई मसला अतना नाजुक बा कि बहुत जल्दबाजिओ कइल हमरा ठीक नइखे लागत.’

‘कुछ ना भइया रउरा चहुँपी.’

‘अच्छा चलऽ हम चहुँप जाईं आ मुनमुन अउर मामी वग़ैरह हमरो बात ना मानल तब?’

‘तब का?’ राहुल के जबाब ओही दिन आ गइल. ऊ रमेश के गाली गलौज वाली भाषा पर हैरत जतवलसि आ अफ़सोस कइलसि. लिखलसि कि ओह लोग के मुनमुन का साथे एह तरह से पेश ना आवे के चाहीं. बाकिर अब ऊ लोग बड़ हवे से कुछ कहतो नइखे बनत. अम्मा बाबूजी के हाल सुन के ऊ दुखी भइल. बाकिर मुनमुन के फ़ोन हरदम स्विच आफ़ रहला का चलते ऊ बांसगांव बतियाइए ना पावत रहुवे. रहल बात मुनमुन के ससुराल से बतियावे के त एहसे नीमन का होखी? ऊ लिखलसि कि रउरा लगे कवनो पूर्वाग्रह नइखे, कवनो गांठ भा कवनो इगो नइखे रउरा लगे. रउरा बात करीं दुनु फरीक से. हमार मतलब बा कि मुनमुनो से आ मुनमुन के ससुरारियनो से. का मालूम कवन बात बन जावऽ, कवनो राह निकल जाव. दीपक दू एक दिन ले लगातार राहुल के चिट्ठी पर सोचत रहल. सोचत रहल कि ऊ करे त का? आखिरकार ऊ मुनमुन के ससुरारी फ़ोन कइलसि. मुनमुन के ससुर घनश्याम राय फ़ोन पर भेंटइलें. ऊ बहुत खुश भइलें कि, ‘अतना लमहर गैप का बाद केहू त बतियावे ला आगे आइल.’ कहलन, ‘ना, हमहीं दू बेर गइनी आ बेइज़्ज़त हो के लवट अइनी.’

‘अइसन त नइखे.’ दीपक बोलल, ‘रमेश एह बीच त रउरा से विदाई के बाबत बतियवलहीं बा.’

‘हं-हं. फ़ोन आइल त रहुवे जज साहब के. बाकिर उहो भभक के बुता गइलन.’

‘मतलब?’

‘मतलब ई कि विदाई भइल ना आ ऊ कहत रह गइलन कि ई कर देब, ऊ कर देब.’

‘देखीं. बात अचानक विदाई के कइलो ठीक नइखे.’ दीपक बोलल, ‘पहिले जवन राह के रोड़ा बाड़ी सँ ओहनी के साफ कर लीहल जाव आ तब बात आगा बढ़ावल जाव.’

‘समझनी ना हम.’ घनश्याम राय तनिका बिदकत बोललन.

‘मतलब ई कि जवना कारणन से विदाई रुकल पड़ल बा भा रउरा किहां से मुनमुन के लवटे के पड़ल बा, पहिले ओह समस्यन के वाजिब हल ढूंढ लीहल जाव. समाधान हो जाव त फेर विदाई में कवनो समस्ये ना रही.’

‘देखीं दीपक जी, हमार मानना बा कि विदाई हो जाव त बाकी समस्या अपने आप हल होखे लगिहें स.’

‘ना हमरा समुझ से पहिले जवन कोर इशू बाड़ी सँ, जवन रुट कॉज बा पहिले ओकरा के सलटावल जाव.’

‘का बा रूट काज़? का बा कोर इशू?’ घनश्याम राय बिदक के बोललन, ‘रउरा त पाकिस्तानी मुशर्रफ का तरह बोलत बानी कि जइसे ऊ आतंकवाद पर ब्रेक लगावे का बजाय कश्मीर-कश्मीर चिल्लात रहन आ कोर इशू, रूट काज़ कश्मीर बतावत रहलन. रउरो वइसने बोलत बानींं. बताईं राउर कश्मीर, राउर रूट काज़, कोर इशू का बा?’

‘देखीं हमरे ना राउरे हवे कश्मीर, राउरे बावे रूट काज़ अउर कोर इशू।’

‘मतलब?’

‘राउर बेटा राधेश्याम हवे कश्मीर. राधेश्याम के पियक्कड़ई हवे रूट काज़ आ ओकर बदतमीज़ी हवे कोर इशू. एकरा के निपटा लीं. सगरी समस्या के समाधान भइले समुझीं!’

‘कोशिश त हम करत बानी दीपक बाबू।’ घनश्याम राय बोललन, ‘पर दोष अकेले हमरा बेटवे के नइखे.’

‘समझनी ना.’

‘समझे के ई बा कि पहिले हमार बेटा पियक्कड़ ना रहुवे. बिआह का बाद, बलुक गवना का बाद जब बहू चल गइल त लोग ताना मारे लागल. किसिम किसिम के ताना. हमरे से लोग कहेला कि का घनश्याम बाबू राउर पतोहू भाग गइल का? त हम मुड़ी नवा दिलें. ऊ सुन ना पावे. फ्रस्ट्रेट हो जाला. फ्रस्ट्रेशन में पीए लागेला. बवाल करे लागेला. घरहूं में. बाहरो. त हम एही ले बार बार कहिलें कि विदाई हो जाई त सब ठीक हो जाई.’

‘चलीं. कुछ सोच विचार करत बानी फेर रउरा के फोन करऽतानी.’

‘ठीक बा दीपक बाबू. हम इंतजार करब रउरा फोन के.’ घनश्याम राय बोललन, ‘अरे दीपक बाबू एगो बात अउर कह दीं कि हमरा घर में रहे खातिर मुनमुन के आपन नौकरी छोड़े के पड़ी. आ एहमें कवनो तर्क-वितर्क ना. कवनो इफ़-बट ना. काहे कि हमार मानना बा कि ओकर ई शिक्षा मित्र के टुंटपुंजिया नौकरिए सगरी समस्या के जड़ बावे. इहे ओकर दिमाग खराब क के रखले बा. ना त हमरा घरे रहल रहीत त अबले बाल बच्चा हो गइल रहते सँ. ओही में अझूराइल रहीत. बगावत ना करीत एह तरह से. त कोर इशू इहो बावे.’

‘चलीं देखत बानी.’

‘देखत बानी ना ई फ़ाइनल बा.’

‘बिलकुल.’ कह के दीपक फ़ोन काट दिहलसि. फेर बांसगांव फ़ोन लगवलसि. जवन हमेशा का तरह स्विच आफ मिलल. आखिर कार ऊ एगो एस.एम.एस. कर दिहलसि मुनमुन के कि बात करे. दोसरा दिने मुनमुन के मिस काल आइल. सुबह-सुबह. दीपक मार्निंग वाक का तइयारी में रहल तब. बाकिर ऊ तुरते मुनमुन के मोबाइल मिलसलसि. ई सोच के कि पता ना फेर कबले बंद मिलो. मुनमुन के घनश्याम राय से भइल सगरी बात बतवलसि आ पूछलसि कि, ‘तोहर राय का बा? आमने सामने एक बेर बतिया लीहल जाव?’

‘रउरो भाई काहे पानी पीटत बानी?’ मुनमुन बोलल, ‘हमरा नइखे लागत कि ऊ सुधरे वाला बा आ कवनो रास्ता निकल पाई.’

‘काहें? अइसन काहे लागत बा?’ दीपक पूछलसि.

‘अबहीं काल्हुए ऊ आइल रहुवे. गारी गुफ्ता कर के दरवाजा पीट के गइल. आ रउरा सुधार के उम्मीद करत बानी!’

‘देखऽ मुनमुन, उम्मीद पर दुनिया क़ायम बा. त हमहूँ एहिजा नाउम्मीद नइखीं.’ दीपक बोलल, ‘अतना सब भइला का बावजूद भारत-पाकिस्तान से बतिया सकेला त हमनियो के औह लोग से काहे ना बतिया सकीं?’

‘बिलकुल कर सकीलें रउरा कहत बानी त.’ मुनमुन बोलल, ‘बाकिर भइया ई जान लीं कि बातचीत के बाद जवन नतीजा पाकिस्तान भारत के देला उहे नतीजा एहिजो ऊ सब दीहें.’

‘ठीक बा. चलऽ देखत बानी एक बेर बतियाइओ के.’

‘हँ, बाकिर ई बातचीत कवनो तेसर जगरा राखन. ना हमरा घरे बांसगांव में ना ओकरा घरे.’ मुनमुन बोलल, ‘आ हां, इहो कि ऊ पी के मत आवे.’

‘ठीक बात बा.’ दीपक बोलल, ‘अच्छा एगो बात अउर. ऊ लोग चाहत बा कि तू ई शिक्षा मित्र के नौकरी छोड़ द.’

‘ई नौकरी त भइया हरगिज ना छोड़ब.’ मुनमुन बोलल, ‘इहे त एगो आसरा बा हमरा लगे जिये खातिर. इहे त एगो हथियार बा हमरा लगे आपन जंग लड़े खातिर.आ एकरे के छोड़ दीं?’

‘त एह टुंटपुंजिया नौकरी ला आपन पति आ घर-बार छोड़ देबू?’

‘टुंटपुंजिए सही. हवे त हमार नौकरी!’ मुनमुन बोलल, ‘अइसन अभागा पति खातिर हम आपन ई नौकरी ना छोड़ब. भतार छोड़ देब बाकिर नौकरी ना. हरगिज ना.’ मुनमुन पूरा सख़्ती से बोलल, ‘रउरा सभे चाहत बानी कि हम जीहीं आ आपन पंख काट लीं. जेहसे अपना खाए ला उड़ियो के दानो ना ले आ सकीं. माफ करीं भइया हम अइसन ना कर पाएब. जान दे देब बाकिर नौकरी ना छोड़ब. इहे त हमार स्वाभिमान बा.’

‘ठीक बात बा.’ दीपक बोलल, ‘बाकिर मुनमुन एगो बात बताईं कि तनिका नव गइला में कवनो नुकसन नइखे.’

‘केकरा सोझा?’

‘अपना पति आ ससुराल का सोझा.’

‘रउरो नू भइया!’

‘देखऽ मुनमुन, जवन औरत अपना पति का सोझा ना झुके ओकरा आगे चल के सगरी दुनिया का सोझा झुके के पड़ेला. आ बार बार झुके के पड़ेला.’

‘का भइया!’ ऊ बोलल, ‘चाहे जवन हो जाव हम नइखीं झुके वाला केकरो सोझा.’

‘चलऽ ठीक बा. बाकिर एक बेर हमरा बात पर सोचीहऽ जरुर.’ कह के दीपक फ़ोन काट दिहलन. मुनमुन के बात पर ऊ चिंता में पड़ गइल. ई एगो नया बदलाव रहुवे. अगिला दिने धीरज के फ़ोन मिलवलसि. संजोग से धीरज फ़ोन उठा लिहलन. दीपक अबले रमेश, राहुल, मुनमुन, घनश्याम राय से भइल बातचीत के डिटेल्स देत ओकरा के बतवलसि कि, ‘एगो फ़ाइनल बातचीत आमने सामने के होखे के बा, आ हम चाहत बानी कि एह मौका पर तुहूँ रहऽ त अच्छा रही.’

‘ठीक बा भइया. हम रह जाएब बाकिर बातचीत के ज़िम्मा रउरे सम्हारब.’

‘ठीक बा. बस तू आ जा.’ कहि के दीपक धीरज के फ़ोन काट के घनश्याम राय के फ़ोन लगवलसि. आ कहलसि कि, ‘भई देखीं. अगिला महीना के दुसरका अतवार का दिने हमनी का बतियावे ला मिलल जाई. बातचीत में मुनमुन आ ओकर अम्मा बाबू जी, धीरज आ हम रहब. आ रउरा अपना तरफ से राधेश्याम आ उनुका मम्मी के ले के आएब. ई बातचीत ना त रउरा किहां होखी ना बांसगांव में. ई होखी कौड़ीराम के डाक बंगला में. आ हँ, राधेश्याम को समुझा लेब कि पी के ना अइहें.’

‘ठीक बा दीपक जी. अइसने होखी बाकिर अबकी बात फाइनल हो जाए के चाहीं. आ जे कहब त एगो वकीलो लेले आएब. फेर जवन फैसला होखी तवना के स्टैम्प पेपर पर दर्ज कर लीहल जाई. जेहसे ी रोज रोज के चिक-चिक ख़तम हो जाव.’ घनश्याम राय बोललन.

‘ई बताईं कि पारिवारिक बातचीत में वकील आ स्टैम्प पेपर के बात कहां से आ गइल भला?’ दीपक बिदक के बोलल.

‘अब बात पारिवारिक कहां रहल?’ घनश्याम राय बोललन, ‘बात पारिवारिक होखीत त अबले विदाई हो गइल रहीत. बात पारिवारिक रहीत त रउरा बीच में ना आवे के पड़ीत.’

‘घनश्याम जी रउरा भूलात बानी कि हमहूं परिवारे के हईं. परिवार से इचिको बहरा के ना हईं. ममहर ह हमार. हमरा देह में दूध आ खून ओहिजे के बा.’

‘ममहर हऽ राउर दीपक बाबू! रिश्तेदारी भइल. घर ना. ओहिजा के विरासत रउरा ना मुनक्का राय के लड़िका सम्हरिहें.’ घनश्याम राय तल्ख़ हो के बोललन, ‘का मुनक्का राय के लड़िका चूड़ी पहिन रखले बाड़ें जे अब रउरा बतियावे के पड़त बा?’

‘घनश्याम जी रउरा बात में मसला सलटावे का अझुरावे के गंध आ रहल बना. माफ करब अइसे त हम बाते ना कर पाएब. ना ही आ पाएब.’

‘मामला सलटावहीं खातिर ई सब करे के कहत बानी दीपक बाबू.’ घनश्याम राय बोललन, ‘बाकिर रउरा त नाराज हो गइनी. आ जे रउरा एकरा के पारिवारिक मामिला बतावत बानी ऊ सचहूं पारिवारिक मामिल रह कहां गइल बा? समाज में त हमार पगड़ी उछल गइल बा. आ बांसगांव में?’ ऊ तनिका रूक के बोललन, ‘बांसगांव में आदमी-आदमी का ज़बान पर बावे मुनमुन के किस्सा. विश्वास ना होखे त कवनो पान वाला, खोमचा वाला, ठेला वाला से जा के पूछ लीं. आँख मूंद के बता दी. आ रउरा तबहियों कहब कि मामला पारिवारिक बा?’

‘हं, बावे त ई मामला पारिवारिके. आ परिवारे का स्तर पर मामला सलटावल जाई.’ दीपक बोलल, ‘आ अगर रउरा लागत बा कि हम बाहर के हईँ त चलीँ हम अपना के एह बातचीत से अलग कर लेत बानी. हम ना आएब. सिर्फ धीरजे जइहें.’

‘अरे तब त ग़ज़ब हो जाई!’ घनश्याम राय बोललन, ‘रउरा जरुरे आईं. ना त धीरज बाबू होखसु चाहे रमेश बाबू ई लोग त हरदम अइसे बतियावेला जइसे कवनो आदेश लिखवावत होखो. डिक्टेशन दे देबेलें आ मामला खतम. अगिला पक्ष के बाते ना सुनसु.’

‘बाकिर रउरा हिसाब से त हम बाहरी आदमी हईं.’

‘हईं त बाकिर रउरा आईं परिवारे के बन के जेहसे ई झंझट खतम होखो.’

‘चलीं ठीक बा.’ दीपक खीझियात बोलल, ‘बाकिर कवनो वकील ना, कवनो स्टैम्प पेपर ना.’

‘ए भाई, ई त रउरो डिक्टेशन देबे लगनी.’ घनश्याम राय बोललन, ‘रउरो मास्टर हईं, हमहूं मास्टर हईं. हमनी का त मास्टरे लेखा बतियावल जाव. अधिकारियन लेखां ना.’

‘घनश्याम जी हम प्रोफ़ेसर हईं मास्टर ना जइसन कि रउरा समुझत बानी.’

‘चलीं प्रोफ़ेसर साहब अब राउर लेक्चरे सुन लेते बानी डिक्टेशन का जगहा.’ घनश्याम राय बोललन, ‘बाकिर बातचीत में कवनो सुलहनामा त करहीं के पड़ी. भले सादे कागज पर कइल जाव. आ हँ, एक बात अउऱ जे हम पहिलहूं कह चुकल बानी कि हमरा घर में रहे खातिर मुनमुन के आपन नौकरी छोड़े के पड़ी.’

‘चलीं, कवनो रास्ता निकली त इहो देख लीहल जाई.’ दीपक कहलन, ‘त हमनी का ओह दिन, दिन के 11-12 बजे मिलल जाव.’

‘जइसन राउर हुकुम प्रोफ़ेसर साहब!’

‘ओ.के. घनश्याम जी!’ कह कर दीपक फ़ोन काट दिहलन. फेर मुनमुन आ धीरज के तारीख़, समय अउर जगह के सूचना देत एस.एम.एस. कर दिहलन. धीरज के एगो एस.एम.एस. अउर क दिहलन कि ऊ कौड़ीराम के डाक बंगला ओह दिन लाब आरक्षित करवा ले. बाद में धीरज के त कन्फर्मेशन आ गइल बाकिर मुनमुन के कवनो जबाब ना आइल.

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(लमहर उपन्यास में सोचे के पड़त बा कि कहवां रोकीं अगिला कड़ी ला. अबहीं ले त रउरो बूझा गइल होखी कि मामला – बतिया पंचे के रही बाकिर खूंटवा रहिये पर रही – वाला लागत बा. बाकिर आजु एहिजे रोकत बानी. आगे का भइल ई जाने ला अगिला कड़ी पढ़े जरुर आईं. – संपादक.)

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