भोजपुरी लोकजीवन के सांस्कृतिक पक्ष
– प्रो.(डॉ.) जयकान्त सिंह ‘जय’
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आज के घोर वैज्ञानिक, आधुनिक भौतिकवादी, उपयोगितावादी आ उपभोक्तावादी समय-समाज में भोजपुरी लोकजीवन का सांस्कृतिक पक्ष पर विचार साझा कइल केतना रुचिकर आ प्रसांगिक होई ई त श्रोते-पाठक लोग बताई. एकरा मनोहारी छवि के जड़-विज्ञान के भौतिक रूप आ अतिशय कृत्रिमता के आग्रह नीरस बनावत जा रहल बा. एकरा आत्मीय-भाव, आत्मोन्नति के विचार आ दार्शनिक-आध्यात्मिक धारा के सोता सूखत जा रहल बा. एकर सहजता, सरसता, सादगी, सौम्यता, स्वाभाविकता सब कुछ समाप्ति के ओर बा.
साँच कहीं त आज के दिन में लोकजीवन आ लोक-संस्कृति से जुड़ल सामग्री लोके साहित्य में पढ़े-गुने जोग बचल बा. हं, उहँवा मिल सकऽता, जहँवा आधुनिक यूरोपीय शिक्षा, यातायात के यांत्रिक साधन, टी वी, मोबाइल, कम्प्यूटर, इंटरनेट आदि नइखे पहुँचल. उहँवा के धर्ममय आ श्रममय संस्कार, रहन-सहन, रीति-रिवाज, आस्था-मान्यता, तीज-त्यौहार, पारंपरिक खेल-मनोरंजन आदि में एकर साक्षात् दर्शन हो सकऽता आ बिना ओकरा साक्षात् दर्शन के ओकरा के ढ़ंग से जानलो नइखे जा सकत. एही से अपना ग्रंथ महाभारत में व्यास जी का कहे के पड़ल-‘ प्रत्यक्षदर्शी लोकानां सर्वदर्शी भवेन्नर: ‘.
वनस्पति से वृहस्पति तक में तारतम्यता के सङ्गे अनेक रूप में व्याप्त आ एक-एक विचार-वस्तु में प्रभूत एह लोक अउर लोक-सामग्री के पूरा-पूरा जानलो नइखे जा सकत. एही चीज के अपना शब्दन में ऋषि जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण में कहलें -‘ बहु व्याहितौ वा वयं बहुशो लोक:. क एतद् पुनरीहतो अयात् ‘ ( 3/28 ) एही वजह से गीता में श्रीकृष्ण कहलें कि सामान्य जन का व्यवहार, आचरण, आदर्श आदि के महत्व पर बल देत लोक-संग्रह करत रहे के चाहीं –
‘ कर्मणैव हि संसद्धिमास्थिता जनकादय:
लोक संग्रहमेवापि संपश्यन् कर्तुमर्हसि॥ ‘
बाकिर हमनीं का मन-मानस में लोक से जुड़ल पक्षन का महत्वन के लेके भ्रम आ हेय-हीन भाव तबे से घर करे लागल, जब हमनीं पच्छिम के नजर से लोक के ‘फोक (folk)’ आ लोक-ज्ञान के ‘फोकलोर (folklore) मानके सोचे-विचारे लगनीं. एह से सबसे पहिले लोक विषयक भारतीय अवधारणा आ फोक विषयक पच्छिमी अवधारणा के भेद जान लिहला से आगे लोकजीवन का सांस्कृतिक पक्ष पर भोजपुरी के संदर्भ में बात रखे-बतावे आ समुझे-समुझावे में सहुलियत होई.
दुनिया के सबसे पुरान आ प्रामाणिक ज्ञान-विज्ञान वाला ग्रंथ ह – ‘ऋग्वेद ‘. जवना में ‘लोक’ शब्द के प्रयोग जीव, जन-समुदाय आ स्थान तीनों के अर्थ में आ तीनों से जुड़ल मनुष्य के आत्मिक आ आध्यात्मिक प्रकृति आधारित जीवनानुभूति से उत्पन्न स्वाभाविक ज्ञान-सामग्री के अर्थ में कइल गइल बा. ऋग्वेद का पुरुष सुक्त में एकर प्रयोग जीव, जन-समुदाय आ जगह तीनों अर्थ में कुछ एह तरह से कइल बा –
‘ नाभ्या आसीदंतरिक्षं शीर्ष्णो द्यौ समवर्तत.
पद्धयां भूमिर्दिदश: श्रोत्रात्तथा लोकारू अकल्पयम्॥
( ऋ. 10/90/14 )
लोक साहित्य आ लोक संस्कृति के अध्ययन के क्रम में भारतीय विद्वान लोग लोक, जन समुदाय आ ग्राम ( गाँव-देहात ) तीनों शब्द के प्रयोग पर्याय अर्थ में कइले बा. लोक के ‘लोकृदर्शने’ धातु से माने वाला स्थान के वाचक मानत कहलस – ‘देहि लोकम्’ अर्थात् ‘जगह दऽ’. आ बाद में तीन आ चउदह लोक के गिनावल .
अब जहां तक पच्छिमी शब्द फोक (Folk) आ फोक से जुड़ल फोकलोर (folklore), फोक कल्चर, फोक लिटरेचर, फोक सांग आदि के बात बा त ई ऐतिहासिक सच्चाई बा कि सत्रहवीं सदी में नृवंशविज्ञान ( मानव विज्ञान ) आ पुरातत्व के अध्ययन-अनुसंधान के क्रम में ई कुल्ह शब्द गढ़इलें स. सबसे पहिले विलियम टाम्स सन् 1848 ई. लोकप्रिय पुरातत्व सामग्री ( Popular Antiquities ) खातिर फोकलोर शब्द का प्रयोग के प्रस्ताव देलें. एह फोकलोर शब्द के फोक (Folk) शब्द जर्मन के वोक ( Volk ) शब्द के बिगड़ल एंग्लो सेक्शन रूप ‘फोक ( Folc )’ से बनल बतावल जाला. जवना के अर्थ बतावल बा – आदिम, बर्बर, असभ्य, असंस्कृत, जंगली जन समुदाय. आ एही तरह का जन समुदाय से जुड़ल जानकारी, ओकरा जीवन-जगत से जुड़ल तमाम चीज फोकलोर के हिस्सा ह. जवना में पिछड़ापन, मइलापन, रूढ़िवादिता, अंधविश्वास आदि के अम्बार पावल जाला.
अब एक ओर लोक अपना श्रममय-धर्ममय संस्कार-संस्कृति, आत्मिक, आध्यात्मिक अनुभवजनित परम्परागत विरासत खातिर आपन महत्त्व दरसावता आ दोसरा ओर पच्छिमी फोक अपना के असभ्य, असंस्कृत आदिम जन समुदाय के रूप में परिचय देत बा. एह से फोक का नजरिया से लोक जीवन का सांस्कृतिक पक्ष आ बोध पर बात ना हो सके. भारत में जीये वाला आरण्य संस्कृति होखे चाहे कृषि संस्कृति, सब के सब प्रारंभिके काल से प्रकृति के सङ्गे तालमेल बइठावत आपुस में आत्मीय भाव बनाके जीयत आ जीये के सनेस देत आइल बा. कवनो जन समुदाय के आचार, रहन सहन, रीति-रिवाज आस्था-मान्यता, पहनावा-ओढ़ावा आदि लोक संस्कृति के स्थूल रूप ह. सभ्यता के अंगो कहल जा सकेला. संस्कृति भा लोक संस्कृति के सम्बन्ध त मनई के मन-मिजाज आ हिरदय-आत्मा के संस्कार-विचार से होला. जवना के विधान ओकरा जनम के पहिले से लेके मरन के बाद तक अनवरत चलत रहेला.
लोकजीवन का सांस्कृतिक पक्ष के अध्ययन खातिर ओकरा जवना मूल तत्वन पर विचार करेके होई ऊ बाड़ें स – जन समुदाय के प्रकृति के प्रति प्रेम, प्रकृति के उपासना, प्रकृति आधारित जीवन-व्यापार के संस्कार, सत्य के प्रति सरधा भाव, सबमें एक जीवात्मा होखे के चलते सबसे आत्मीयता, आत्मोन्नति के आग्रह, आध्यात्मिक जीवन-दर्शन, पुनर्जन्म के प्रति आस्था, पर्यावरण-सुरक्षा के प्रति जागरूकता, देह के नाशवान होखे के वजह से मुक्ति के विश्वास, भिन्नता में एकता के दर्शन, पुरखन के पुरुषार्थ पर अटूट विश्वास, अपना आदर्श के जीये के कामना आदि. लोकजीवन के ई कुल्ह सांस्कृतिक तत्व देह रूपी गोचर सभ्यता में अगोचर आत्मा रूपी संस्कृति आ दृश्य कपड़ा के बाती आ तेल से भरल माटी के दीआ रूपी सभ्यता में लौ आ प्रकाश रूपी संस्कृति जइसन विराजमान रहेलें.
एह संसार में दूगो प्रवृत्ति-संस्कृति वाला मनुष्य मिलेलें – केन्द्रोन्मुखी आ वृत्तोन्मुखी. भारतीय आ खास करके भोजपुरी लोकजीवन के जीये वाला मनुष्य केन्द्रोन्मुखी मतलब बाहरी-दिखावा आ बनावटीपन के परिधि के बदले भीतर केन्द्र में मतलब आत्मस्थ होलें. सबमें एके आत्मा के महसूस करत सबसे आत्मीयता के भाव राखेलें. जवना से उनका भीतर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के विचार सहजे आकार लेले रहेला. जवना खातिर भोजपुरी में लोकोक्ति प्रचलित बा – ‘ कहऽ दिल के, रहऽ मिल के ‘. वृत्तोन्मुखी प्रवृत्ति के मनुष्य भीतर से बाहर परिधि के ओर ज्यादे ध्यान देत आगे बढ़ेलें. उनका जीवन के आदर्श आत्मशुद्धि, आत्मोन्नति, आचरण के पवित्रता आ अंत: प्रवृत्ति के विकास के बदले बाहरी कृत्रिमता, बनावटीपन, दिखावा, आडम्बर, दोसरा पर जबरन प्रभुत्व कायम कइल आदि होला. एह वृत्तोन्मुखी प्रवृत्ति के प्रसार प्रायः पच्छिम में अथवा पच्छिम के प्रभाव में जीये वाला भारतीय लोग में पावल जाला. एह से जइसन प्रकृति ओइसन प्रवृत्ति, जइसन प्रवृत्ति ओइसन संस्कृति, जइसन संस्कृति ओइसन कृति आ जइसन कृति ओइसने लोकवृति होले.
सामान्य रूप से कवनो जन समुदाय के समान भौगोलिक क्षेत्र आ समान रोजी-रोजगार आ पेशा-प्रथा के अनुरूप संस्कार-विचार आ आचार-व्यवहार आकार लेवेला. ओकरा आधार पर ओकर एगो खास टोली, मंडल भा वृत्त बने लागेला. जवना से ओकर खास पहचान बनेला. एकरे के संस्कृत में कहल गइल – ‘ लोकवृत्त अयं लोक.’ एही भाव से सूर्य लोक, चंद्र लोक, नरलोक, नागलोक, गंधर्वलोक आदि के बंटवारा कइल गइल.
भोजपुरी भाषा-भाषी जन समुदाय भा समाज के आपन खास तरह के लोकजीवन आ संस्कृति आदि बा. भोजपुरी भाषी भौगोलिक क्षेत्र प्रारंभ में वन-पर्वत वाला क्षेत्र रहे. वैदिक भोज लोग आरण्य संस्कृति के जीयत अपना पुरोहित ऋषि विश्वामित्र के सान्निध्य में खेती-किसानी, अन्नोपार्जन आ सामूहिक भोजन-पानी के बेवस्था कइल. इनार ( इन्द्रागार अर्थात् जल संग्रह) आ पोखर खोनावल, फलदार-छायादार आ जिनगी के प्राणवायु देवे वाला देवतुल्य बट, पीपर, पाकड़, नीम के गाछ-विरीछ लगावल. एक से अनेक होके जगत में विस्तार खातिर वैवाहिक संस्कार विधान के बेवस्था कइल. जवना के बोध भोजपुरी लोक साहित्य के अध्ययन से सहजे हो जाला. जवना भोजपुरी लोकगीत में एह प्रसंग के उल्लेख बा, ऊ प्रस्तुत बा –
” इनरा खोनाये कवन फल ए मोरे साहेब,
झोंकवन भरे पनिहारिन, तबे फल होइहन हे.
पोखरा खोनाय कवन फ़ल ए मोरे साहेब,
गउँवा पिअहिं जुड़ पानी, तबे फल होइहन हे.
बगिया लगाये कवन फ़ल ए मोरे साहेब,
राहे बाटे अमवा जे खइहें तबे फल होइहन हे.
तिरिया के जनमे कवन फ़ल ए मोरे साहेब,
पुतवा जनम जब होइहें तबे फल होइहन हे.
पुतवा के जनमे कवन फ़ल ए मोरे साहेब,
दुनिया आनंद जब होइहें तबे फल होइहन हे. ”
भोजपुरी भाषी समाज लोक आ वेद दूनों के बीच सामंजस्य बइठावत धर्म-कर्म प्रधान संस्कार-संस्कृति के जीयेला. इहे एह समाज के खास सांस्कृतिक पक्ष बा. बल्कि भोजपुरी समाज वेद-शास्त्र से अधिक लोक-परम्परा आ लोक-ज्ञान के महत्व देवेला. अइसहूं वेद अर्थात् परम्परा से आइल आर्य लोग के जीवनानुभूतियन से निकलल मौखिक-वाचिक सिद्ध ज्ञानधारा. लोको ज्ञान त परम्परा से आइल मौखिक-वाचिक ज्ञानधरे के नाव ह. खोजल जाए त जवन वेद में बा ऊ कवनो ना कवनो रूप से लोक में जरूर बा आ जवन लोक में नइखे ऊ वेद में नइखे. वेद लोक के परिष्कृत आ शिष्ट-शास्त्रीय रूप बा. शास्त्र कहेला कि वेद-निंदक मिल सकेलें लोक के निंदक ना मिलस-‘ नास्तिको वेद निन्दकरु. शास्त्र आगे कहऽता कि कार्य भले शुद्ध आ शास्त्र सम्मत होखे, जदि लोक-विरुद्ध बा त ऊ करे जोग नइखे-‘ यद्यपि शुद्धं लोक विरुद्धं मा करणीयं मा करणीयम्. ‘ ई शास्त्रोक्ति भोजपुरी लोक के बहुते हृदयग्राही जीवन-सूत्र ह. भोजपुरी लोक अपना आदर्श आ पुरातन आस्था-मान्यता पर एतना ना विश्वास करेला कि वेद-शास्त्र आ गीता-ग्रंथ पर हाथ रखके मिथ्या बोलियो सकऽता. बाकिर अपना देवल के देव-देवी के ऊपर आ अपना आत्मीय के माथ पर हाथ रखके, गंगा मइया के जल हाथ में लेके आ दक्खिन दिसा के ओर मुंह करके झूठ नइखे बोल सकत. अइसन ओकरा भीतर प्रकृति के प्रति श्रद्धा भाव होला. श्रद्धा शब्द बनले बा श्रत् शब्द से, जेकर अर्थ होला साँच यानी सत्य. एह से ऊ एह सांच से एह चलते प्रेम करेला भा डरेला कि अइसन करे से अपसगुन भा अशुभ अनहोनी हो जाई.
सांच पूछीं त लोक-ज्ञान दूध ह आ वेद मलाई ह. लोक का अनुभव के आंच पर गरमा के आ पझा के दही जमावल जाला आ ओह दही के मथके वैदिक भा शास्त्रीय ज्ञान रूपी घीव तइयार होला. जवना के सिद्ध लोक अथवा श्लोक (अस लोक यानी लोक के समान) मनुष्य के सांस्कृतिक जीवन खातिर मंत्र के काम करेला. डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल श्री कुमार स्वामी के हवाले से बतवले बाड़न कि ‘मास्को के केन्द्रीय लोकवार्ता परिषद्’ साइबेरिया में खोज के बारह लाख श्लोक के बराबर लोकसाहित्य के सामग्री एकट्ठा कइले बा. ‘ भोजपुरी लोकजीवन में त अइसन सामग्री ओकरा कई गुना अधिका मिल सकेला. कुछ के बानगी रूप में इहँवो दिहल जरूरी बा. जइसे भोजपुरी के कुछ लोकोक्ति आ कहाउत के समान अर्थ वाला संस्कृत श्लोक के देखीं –
आपन हाथ जगरनाथ – ‘ अयं मे हस्तो भगवान्.’ ( ऋग्वेद-10/60/12 ), नौ नगद नीमन, ना उधार हजार – ‘ सहस्त्रादर्धकाकिणी श्रेयसी. ‘( उधार के हजार से नगद के आधा कउड़ी नीमन ), बिन घरनी घर भूत के डेरा. घर से घरनी घरनी से घर-जाये दस्तम्. ( ऋग्वेद -315/3/4 ) गुहिणी गृहम् उच्चते., हाथ कंगन के आरसी ( ऐनक ) का -;’ हत्थकंकणे किं दप्पणोणपेक्खी. ‘ ( कर्पूरमंजरी-1/18 ), बांझ का जाने परसउती के पीड़ा – नहि वन्धया विजानाति गुवीं प्रसववेदनाम्., जइसन खइबऽ अन्न ओइसन होई मन, जइसन पीयबऽ पानी, ओइसनी होई बानी. – अन्न के रस से खून, खून से मांस, मांस से चर्बी, चर्बी से हड्डी, हड्डी से मज्जा, मज्जा से वीर्य आ वीर्य के निर्मलता से गर्भ उत्पन्न होला. –
‘ रसाद्रक्तं ततो मांसं मांसान्मेदस्ततोऽस्थि च.
अस्थ्नो मज्जा तत: शुक्रं शुक्राद्गर्भ: प्रसादज:॥’ ( चरक संहिता ). एकरा तह में जेतने जाएब ओतने विस्तार लेत जाई.
डॉ. श्रीधर मिश्र अपना शोधग्रंथ ‘भोजपुरी लोकसाहित्य का सांस्कृतिक अध्ययन’ में भोजपुरी लोकजीवन के छव भाग में बँटले बाड़न – ‘ प्राकृतिक जीवन, सामाजिक जीवन, धार्मिक जीवन, आर्थिक जीवन, राजनीतिक जीवन आ सौन्दर्यानुभूति. भोजपुरी के हर छवो लोक जीवन का विविध पक्षन के सहज, सरस आ स्वाभाविक चित्रण भोजपुरी लोक कला के विविध विधन; जइसे-लोकनृत, लोकनृत्य, भूमि-चित्र, भित्तिचित्र, लोक वाद्य आदि आ लोक-साहित्य के विविध रूपन-गीत, गाथा, कथा, लोकोक्ति मुहावरे कहाउत, दिव्य-सपथ आदि में पावल जाला.
भोजपुरी लोक के प्राकृतिक जीवन में वन ( अरण्य ), पर्वत, नदी, पोखर, अहरा, पइन, पेड़-पौधा आदि के का मान-महत्व बा – ई लोक में जाके भा लोक-साहित्य के अध्ययने से जानल जा सकेला. भोजपुरी क्षेत्र के विविध स्थानन के नाम वन क्षेत्र के आधार पर पड़ल बा; जइसे आरण्य से आरा, सारण्य भा सारंगारण्य से सारन, चम्पकारण्य से चम्पारण, देवारण्य से देवरिया, वारसारण्य से बनारस आदि. बुद्ध के समय चम्पकारण्य के पिप्पलीकानन कहात रहे. जहां आचार्य चाणक्य का मोरिया क्षत्रिय कुल के तेजस्वी बालक चंद भेंटाइल रहे जेकरा के गढ़ के ऊ चन्द्रगुप्त मौर्य बना दिहलें जे मगध के निरंकुश आततायी राजा घनानंद के त पराजित कइबे कइलस, सिकंदरो जइसन आक्रांता ओकरा से मात खाके वापस लौट गइल. वन प्रदेश अनेक तरह का बहुमूल्य वनस्पतियन के भंडार होला. एही से अयोध्या से निकलत समय राम कहले रहस – ‘ पिता दीन्हीं मोहे कानन राजू. ‘
नदियन से त भोजपुरी लोकजीवन के सङ्गे अइसन सांस्कृतिक सम्बन्ध बनल बा कि हर एक नदी से ओकरा कवनो ना कवनो आराध्य के नाम आ सम्बन्ध जुड़ल बा; जइसे गंगा से ब्रह्मा,विष्णु आ शिव तीनों के जुड़ाव बा त सरजुग के नाम मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम से जुड़ल बा. अइसहीं गंडक के नारायणी, विष्णु प्रिया, सदानीरा, रेवा आदि कई नाम से जानल जाला. अइसहीं सोन, राप्ती, घाघरा आदि नदियन के आपन-आपन सांस्कृतिक पक्ष बा. बिना पानी जिनगानी के कल्पना ना हो सके. पहिले भोजपुरी जन समुदाय के घर नदियन के किनार पर बनत रहे. आजुओ हर संस्कार मुंडन, जनेऊ, बिआह, श्राद्ध आदि नदियन के किनारे सम्पन्न होला. गंगा नदी के एतना पवित्र मानल जाला कि इहाँ हर नदी के गंगे मान के लोग कार्तिक पूर्णिमा के नहान करे जाला. गंगा नदी सहित हर नदी के भोजपुरी लोक माई मानके पूजेला. उनके ऊंच अड़ार-किनार पर लोग आपन छान-छप्पर तान लेत रहे. जवना के सबूत देलन स भोजपुरी के पारम्परिक गीत सब. जब सुनाला – ‘गंगा मइया के ऊंची रे अररिया, अररिया पर घररिया नू हे.’ भोजपुरी क्षेत्र के बीचे जमुना जी त नइखी बाकिर जब भोजपुरी लोक इनार खोनवावेला त ओकरा नीचे गोल चक्राकार जामुन का लकड़ी के जमवट बनवा के डालेला. पोखरा के बीचे जामुने के जमवट गड़ाला. जवना पानी से मनुष्य सहित हर प्राणी के आयुर्वेदिक चिकित्सा हो सके. एह इनार आ पोखरा के पानी पियला से मधुमेह के रोग आदि ना होत रहे.
अपने आप बिना लगवले जामे वाला विरीछ बर आ पीपर बरमहल मनुष्य सहित हर प्राणी ला आक्सीजन आ छाया देनों देवे लें. एकर ज्ञान भोजपुरी लोक के रहे आ ऊ बर के बरहम आ पीपर के बासुदेव मानके पूजेलें. नीम के हवा आउर गुनकारी होला. केतना तरह के विषाणु, कीटाणु, वायरस के नाश नीम के हवा से ओकरा पतई आ छाल के उपयोग से हो जाला. ओकरा हवा आ डाढ़-पात के छुअन में एतना ना शीतलता रहेला कि सभे अपना दुअरा पर भा सार्वजनिक स्थान पर नीम के गाछ जरूर लगावेला आ एकरा पर शीतला माई के बास आ उनका झुलुआ झूले से सम्बन्धित गीत गाके उनका के गोहरावेला आ आशीष मांगेला – ‘ निमिया के डाढ़ मइया, झूलेली झूलुअवा हो कि झूली झूली. मइया गावेली गीतऽ कि झूली रे झूली.’
भोजपुरी लोक अर्थात् जन समुदाय के पारिवारिक-सामाजिक जीवन के विस्तार तब भइल जब ऊ कृषि संस्कृति के जीयल प्रारंभ कइलस. मैदानी भूभाग के जंगल साफ करके अपना सामूहिक श्रम के बदौलत खेती-किसानी प्रारंभ कइल. ओकरा जीवन के हर संस्कार, पर्व, तीज-त्योहार के सम्बन्ध ओकरा खेती-किसानी से रहे आ आजुओ बा. भोजपुरी लोकजीवन में खेती के उत्तम, खेती आधारित उद्योग का बेवसाय के मध्यम, खेती आधारित बेवसायी किहां चाकरी करेके अधम आ कुछ ना करके भीक्षा वृत्ति अपना के जीवन बसर करेके नीच कर्म मानल जात रहे. एकरे से जुड़ल भोजपुरी के लोकोक्ति प्रचलित बा – ‘ उत्तम खेती, मध्यम बान, अधम चाकरी, भीख निदान.’ ई खेती-किसानी खाली संयुक्ते परिवार के ना बल्कि हर भोजपुरी जनसमुदाय का जीये के बेवस्था करत रहे. गाँव आत्मनिर्भर रहे आ नगरो के पेट पालत रहे. एह पारिवारिक-सामाजिक जीवन में जब लरिका के विद्या आरंभ करावे के सिरी गनेस होखे त ओकरे हाथे पटरा पर खल्ली से लिखवाके बोलवावल जात रहे – ‘ रामऽ गती देहू सुमती.’ अर्थात् हमार जीवन राम के जीवन जइसन मर्यादित होखे आ हमार मति सुमति होखे ताकि हमार घर, परिवार आ सकल समाज हर तरह के सुख-सम्पत्ति से भरल-पूरल रहे. एही के तुलसीदास जी लिखलें – ‘जहां सुमति तहां सम्पत्ति नाना.’ चूंकि भोजपुरी लोकजीवन कृषि आधारित ह आ खेती खातिर पानी के बरिसल जरूरी होला. काहे कि बिना पानी के धान-गेहूं आदि कवनो अन्न ना उपराजल जा सके. तब लोग-लरिका आसमान के ओर हाथ उठा-उठा के पानी के देवता इन्द्र से बरिसे के मिनती करेलें –
‘ हाली हाली बरिसऽ इनर देवता, पानी बिना पड़ल बा अकाल हो राम.
चेंवर सुखले चांचर सुखले, सुखी गइले भइया के धान हो राम.
केकरा पोखरवा में छिपिर छिपिर पनिया, बभना करेला असनान हो राम.’
चाहे ‘एक मुठ्ठी सरिसो झम्मर झम्मर बरिसो’ के लरिका दोहरावेलें स. इहाँ का संयुक्त परिवार में खाली माइये-बाप आ बेटा-बेटी ना होलें. बल्कि कौटुंबिक सम्बन्धन के एगो लमहर लड़ी बनल होला. जवना में जे जेतन बुजुर्ग होला ओकर ओतने सम्मान-आदर होला. एह से इहाँ के लरिकन के पच्छिमी गीत-कविता ना सुनावे, पढ़ावे भा रटावे के चाहीं. काहे कि ऊ भोजपुरी लोकजीवन के अनुकूल ना होखे.
अंग्रेजी के कुछ कविता आजकल का लरिकन के पढ़ावल-रटावल जाला; जइसे –
‘जानी जानी, एस पापा,
इटिंग सूगर? नो पापा.
ओपेन योर माउथ, हा हा हा.’
मतलब लरिका मुंह में चीनी रख के अपना बाप से झूठ बोल रहल बा. एह तरह से ओकरा में बचपने से झूठ बोले के कुसंस्कार पड़ रहल बा. जबकि भोजपुरी जन समुदाय राम के गति आ सुमति से आपन पाठ प्रारंभ करऽता. इहां ‘ सत्यं वद आ धर्मं चर ‘ के व्रत दिआला.
‘रेन रेन गो अवे, कम अगेन अनदर डे, लिटिल नीतू, वांटस टू प्ले.’ मतलब – हे बरखा तूं जा, कबो दोसरा दिन अइहऽ. अबहीं नीतू खेले के चाहऽता. बारिस खातिर अइसन मनाही इहां होई त खेती-किसानी सब खतम हो जाई. एही से इहां ‘ हाली हाली बरिसऽ इनर देवता ‘ आ ‘ एक मुठ्ठी सरिसो झमर झमर बरिसो ‘ कहत लरिका बरखे में मस्ती करेलें स.
भोजपुरी लोकजीवन के प्राकृतिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक आ सौन्दर्यपरक जीवन का एक-एक पक्ष के भोजपुरी का लोक कला आ लोक साहित्य में देखल जा सकऽ ता. इहाँ त कुछ नमूने भर परोसल जा सकऽता. भोजपुरी लोकजीवन में धरती अर्थात् पृथ्वी के आ गंगा नदी के आ गाय के माई मानके पूजल जाला. भोजपुरी में सिनेमो बनल बा -‘धरती मइया’, ‘गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो’. भोजपुरी में कहाला -‘ दूध पियावस माई साल-दू साल, गइया मइया से सउंसे जिनगी खुशहाल.’ वेद शब्द के हर बेर लोक शब्द के बादे प्रयोग होला. तबे नू गोस्वामी तुलसीदास जी लिखलें-जो जानब सतसंग प्रभाऊ. लोकहु बेद न आन उपाऊ. ‘ आ ‘ लोक कि बेद बड़ेरो ‘ आदि.
वेद से पहिले आ वेद से अलग लोक के आपन सत्ता आ महत्ता बतावत कहल गइल बा – ‘ अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम: ‘. लोके जीवन का प्राकृतिक अनुभव के मान्यता देत अथर्ववेद कहलस – ‘ माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:, पर्जन्य: पिता स उ न: पिपर्तु. ‘(12/1/12 )
मतलब माई पृथ्वी आ पिता मेघ दूनों मिलके हमनीं के भा हमार पालन-पोषण करस. इहे दूनों जने त भोजपुरी लोकजीवन का कृषि संस्कृति के आधार बाड़ें. एगो फिल्मी गीत सुनले रहीं-‘ धरती मेरी माता पिता आसमान, हमका तो अपना सा लागे सारा जहान.’
एह तरह से लोकजीवन का सांस्कृतिक पक्ष के कहानी हरि अनन्त हरि कथा अनंता जइसन बा. ओकर एक एक लोकोक्ति, गीत कथा ओकरा एक-एक विशेष पक्ष के बोध करावेला आ जीवन जीये के राह सुझावे ला. एह से हम आगे विषय के विस्तार ना देके भोजपुरी क्षेत्र में प्रचलित एगो छोट लोककथा कह के आगहूं कहे खातिर विषय के छोड़ब. कथा के मुताबिक एगो मनई एहो महात्मा के लगे जाके प्रश्न कइलें – ‘हे महात्मा, हमरा खातिर गिरहस्त के जिनिगी नीमन होई के साधु के?’ ओह मनई के प्रश्न सुनके ओकर बेवहारिक उत्तर देवे के खेयाल से महात्मा जी कहलें – अच्छा, एकर उत्तर हम पाछे देहब. अबहीं तूं हमरा सङ्गे चलऽ. मनई महात्मा जी के पाछे-पाछे चल दिहलें. महात्मा जी अपना कुटिया से सीधे अपना घरे पहुँच गइलें. दिन के दूपहरी रहे. सूरज माथ पर आ गइल रहलें ऊ दुअरे से आवाज लगइलें – हे भाग्यवान, तनी दीआ बारके ले आईं.’ भीतर से उनकर मेहरारू सांचो के दीआ बारके ले अइली आ आगू में ध दिहली. मनई का ई चीज अटपटा बुझाइल. महात्मा जी अपना जनाना से फेर बोललें – एकरा के सेरवा के घरे ध आईं. उनकर जनाना बिना कवनो झुझुलाहट के सहज भाव से दीआ सेरवाके भीतर लेके चल गइली.
अब महात्मा जी ओह मनई से इहां से आगे चले के कहलें आ उहो उत्सुकता से चल दिहलें. अब महात्मा जी एगो साधु का मठिया पर पहुंच गइलें. साधु जी महात्मा जी के बड़ा आवभगत कइलें. महात्मा जी दसो बेर साधु जी से पूछलन – ‘भगत जी, राउर नाव का ह?’ आ साधु जी बिना कवनो झुझुलासट के दसो बेर आपन नाव बतावत गइलन. एकरा बाद महात्मा जी ओह मनई के लेके फेर अपना कुटिया पर आ गइलें आ अपना दैनिक काम में लाग गइलें. ओह मनई के लागल के ई महात्मा दिमाग से कुछ घसकल बुझात बाड़ें. हमरा प्रश्न के इनका पाले उत्तर नइखे, एही से उटपटांग बेवहार कर रहल बाड़ें. बाकिर ओह भोजपुरिया मनई के मन में ई विश्वास जरूर रहे कि जदि एह महात्मा के नाम बा त विद्वान त जरूर होई. अंत में हारपाछ में ऊ एक बेर आउर आपन जिज्ञासा महात्मा जी के सामने रख लें. तब महात्मा जी मुस्कात बोललें – ‘तोहरा प्रश्न के उत्तर अबहीं बाकिए बा. अरे औरत यानी जीवनसाथी बिना कवनो झिझक के आज्ञा मानेवाली होखे चाहे एक दोसरा का इच्छा के सम्मान दूनू जने करत होखस त गिरहस्तो भइल उत्तिम ह आ केहू कतनो गुस्सा दिलवावे खातिर बात के बतंगड़ करे आ मन में तनिको गुस्सा ना होखे. सहज भाव से हरि भजन होखे त साधु के जिनिगी उत्तिम बा. इहे त हमार जीवनसंगिनी आ ऊ साधु जी अपना बेवहार से बतवलें ह. अब आगे तय त तोहरा नू करे के बा.’
एही तरह का कुछ भाव के अपना अंदाज में भोजपुरी के सांस्कृतिक लोक गायक बलेसर जी बिरहा में गावत रहलें –
‘माई उहे मरि जाए जे नान्हे दूध छोड़ावे,
पिता उहे मरि जाए जे बिद्या नाहीं पढ़ावे.
बोलत ना मुस्काए मरे मुंह टुअर नारी,
मरद उहे मरि जाए जे बसे अपनी ससुरारी,
बैल उहे मरि जाए जे जोत के नाहीं हेगांवे
आ भइंस उहे मरि जाए जे दूहत टांग उठावे.’
कहे के माने ई कि भोजपुरी संस्कार-संस्कृति के जीये वाला बिना लाग-लपेट के सही बात कह दी. सोझा वाला का जवन बुझाए. ऊ साफे कह देला-बात कहेब दू टूकी, ना इसलिए ना चूकी, काकी हऊ त हऊ फटक के लेब फटक के देब. भर हाथ चूड़ी चाहे पट रे रांड़.
भोजपुरी लोकजीवन के सांस्कृतिक पक्ष के जाने खातिर रघुवीर नारायण के बटोहिया आ हीरा डोम के ‘अछूत की सिकायत’ काव्य रचना के परायन कर लियाव त ओतने से ढ़ेर तथ्य सोझा आ जाई.
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– विभागाध्यक्ष-स्नातकोत्तर भोजपुरी विभाग, बी. आर. अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर ( बिहार )
पिनकोड-842001
मो. न. -9430014688
राष्ट्रीय महामंत्री, अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन, पटना ( बिहार )
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आवासीय पत्राचार-‘प्रताप भवन ‘महाराणा प्रताप नगर
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