भोजपुरी लोकजीवन-कला में समरसता

भोजपुरी लोकजीवन-कला में समरसता

– प्रो.(डॉ.) जयकान्त सिंह ‘जय’

#लोकजीवन #सांस्कृतिक-पक्ष #भोजपुरी #रविदास #तुलसीदास #जयकान्त-सिंह-जय

कला मनुष्य के सौंदर्यपरक कुशल भावात्मक आ क्रियात्मक व्यापार ह. जवन जीवन के सुन्दर, सुखद आ समरस बना देला. ओकरा के जीवंत आ दीर्घायु कर देला. अइसहूं एगो काल – अवधि भर कइसहूं अस्तित्व में रहके मेट गइल जीवन ना ह. जीवन त अस्तित्व में रहके भौतिक रूप से मेटे का पहिले अपना समय में अरजल ग्यांन, बिग्यांन , अंतर्ग्यांन वगैरह के अपना भावी पीढ़ी खातिर परोस के खुद के काल के कपाल पर टांक दिहला के नाम ह. जवन एह लोक अर्थात् भूमंडल भा भू-भाग के लोक ( लोग ) यानी अपना वर्तमान आ भावी जन समुदाय का जीवन के अपनो से सहज, सरल आ सुन्दर संभव बना सके. अतीत, वर्तमान आ भविष्य के लोक जीवन में समरसता के प्राणवायु प्रवाहित कर सके. एही चीज के सुन्दर से सुन्दर रूप, रंग आ रस में ढ़ाले के ढंग के कहल जाला कला. जीवन के जरूरत के अनुसार एकर मोट – मेंही मतलब स्थूल आ सूक्ष्म रूप बनेला. स्थूल रूप के विद्वान लोग उपयोगी कला कहेला आ सूक्ष्म रूप के ललित रूप. उपयोगी कला के सम्बन्ध मनुष्य के बाह्य कौशल से होला आ ललित कला के सम्बन्ध मनुष्य के आंतरिक आत्मा के आनंद से. जीवन के भौतिक जरूरत के पूरा करेवाला घर, कपड़ा – लत्ता, खाये के समान , चढ़े के गाड़ी वगैरह के रचना उपयोगी कला में आवेला आ जवन कला भौतिक जरूरत के बजाय मानसिक, आत्मिक आ आध्यात्मिक सुकुन, सुख आ आनंद से जुड़ल होला ललित कला में गिनाला. घर में दीवार के ढ़ंग्गर रंगल, कमरा में कवनो सुन्दर तस्वीर के सुन्दर ढंग से सजावल – टांगल, कवनो वाद्ययंत्र भा पुस्तकन के सजा – संवार के रखल वगैरह सब ललित कहा के गिनती में आवेला. कला के पारखी लोग स्थापत्य, वास्तु, मूर्ति, चित्र, संगीत आ साहित्य आदि के ललित कला के भेद बतवले बा.

सांच कहीं त असभ्य से अर्ध सभ्य, अर्ध सभ्य से सभ्य आ सभ्य से सुसभ्य के क्रमवार सीढ़ी – खेंढ़ी चढ़े का सिलसिला के बोध करावेला उपयोगी कला के बेवहार आ असंस्कृत से अर्ध संस्कृति अर्ध संस्कृति से संस्कृत आ संस्कृति से सुसंस्कृत के क्रमवार सीढ़ी – खेंढ़ी चढ़े का सिलसिला के बोध करावेला ललित कला के बेवहार. आदमी के देह – दिमाग केतना सजल – धजल बा ई उपयोगी कला के बेवहार जना दी आ मनुष्य के आत्मा केतना पवित्र, भावुक आ संवेदनशील बा ई जनावल ललित कला के काम ह. कहे के अभिप्राय ई बा कि उपयोगी कला भौतिक जरूरत से पैदा होके बुद्धि से नियंत्रित होले आ ललित कला सौन्दर्यानुभूति आ मानसिक – आत्मिक मधुरिमा से उत्पन्न होके प्रतिभा – भावना से अनुशासित होले. घर बनावल स्थापत्य आ वास्तु कला के प्रकार ह. जवन मनुष्य का भौतिक जरूरत के पूरा करे का चलते उपयोगी कला के सीमा में आवेला. बाकिर घर, दीवार, छत आदि बनवला के बाद ओकरा भीतर के कसीदाकारी, ऊपर के कलश – कंगूरा आ गुम्बद आदि मानसिक आ आत्मिक आनंद देवे वाला नक्काशी के लालित्य ललित कला के प्रकार मानल जाला. एही से स्थापत्य आ वास्तु निर्माण के ललित कला के सबसे स्थूल रूप मानल जाला.

मूर्ति भा शिल्पजन्य आनंद के अनुभूति आँखि वाला के होला. मूर्ति निर्माण के बाद चित्र कला के क्रम आवेला जवन मूर्ति निर्माण से सूक्ष्म ललित कला मानल जाला. एह तरह से स्थूल से सूक्ष्म होखे का क्रम में ललित कला उत्तम से उत्तमोत्तम रूप लेत चल जाला. चित्र कला के बाद संगीत के बारी आवेला. काहे कि ईंटा, बालू, सीमेंट, छड़, छेनी, हथौड़ी, कपड़ा, कागज, रङ्ग, कूंची आदि से सूक्ष्म नाद ( ध्वनि ) होला. जवना के सम्बन्ध संगीत से होला. एह से संगीत स्थापत्य, वास्तु, मूर्ति आ चित्र से अधिक सूक्ष्म ललित कला के प्रकार मानल जाला. काव्य कला सबसे सूक्ष्म ललित कला मानल जाला. एकर मूर्त्त आधार नादो से सूक्ष्म शब्द – संकेत ह. एकरा शब्द – संकेतन के आधार पर मानस – पटल पर वास्तु, शिल्प, चित्र, नृत्त, नृत्य, संगीत हर कला के काम सम्पन्न हो जाला. कवन शब्द कवना बस्तु भा भाव विशेष के बिम्ब चाहे प्रभाव हमरा हृदय में टीस पैदा कर दे सकऽता. एकर परिचये कवि के बड़ शक्ति ह. कवनो खास शब्द के कवि उचारल आ ओकर चित्र तत्क्षण मानस में उभर आई. एकरा में कल्पना के बेवहार ढ़ेर होला आ एह में हर कला के समन्वय आ समाहार पावल जाला. एही से काव्य कला के ललित कला के मुकुट मणि कहल जाला.

एह कुल्ह कला के दरसन लोक जीवन का संस्कार आ व्यापार में पावल जाला. जदि लोक जीवन का हर संस्कार आ व्यापार के नजदीक से देखब – परखब भा महसूस करब तब ओकरा भीतर का समता आ समरसता के भान हो सकेला. लोक जीवन से जुड़ल उपयोगी कला होखे चाहे ललित कला. ओकर सम्यक् जानकारी खातिर लोक में अमा – समाके जानल – महसूसल जा सकेला. जवना के ओर संकेत करत वेद व्यास जी महाभारत में बतवलें कि ‘ जे लोक के खुद अपना आँखिन देखेला उहे ओकरा के सम्यक् रूप से जान सकेला. – प्रत्यक्षदर्शी लोकानां सर्वदर्शी भवेन्नर:. ‘ पच्छिम के प्रभाव में लोक संस्कृति आ साहित्य पर काम करेवाला भारतीय विद्वान लोक के फोक के पर्याय मानेलें. जबकि लोक फोक जइसन आदिम मानव खातिर प्रयुक्त ना होला. आर्यावर्त में लोक के मान वेद से कवनो गईं कम नइखे. लोक वेद का पहिले से आपन अस्तित्व कायम रखले बा. ऋषि – मुनि, संत – महात्मा , ग्यांनी – बिद्वान जेकरा के पढ़ीं – देखीं, लोक वेद से पहिले उपस्थित रहेला. ई चीज लोक महिमा आ प्राचीनता दूनों दरसावेला. सांच पूछीं त वेद – शास्त्र लोक के परिष्कृत आ परिवर्धित रूप ह. जवन लोक के बनस्पति रूप बा उहे वेद के बगवानी रूप ह. लोक से अति उपयोगी विषय – बिचार के मंत्र भा श्लोक ( असलोक ) रूप में वेद – शास्त्र में रखल बा. वेद में त ‘ श ‘ से अधिका ‘ स ‘ के साम्राज्य बिस्तार बा. असलोक ( श्लोक ) अर्थात् लोके जइसन. जवन लोक संस्कार, संस्कृति आ परम्परा में बेवहार से सिद्ध बा. असलोक मतलब लोक सिद्ध, लोक मान्य उक्ति भा सिद्धांत. उहे श्लोक ह. उहे मंत्र ह. उहे ऋचा ह. ना तनिको ऊंच ह आ ना तनिको नीच ह. एही से एह दूनों में सामंजस्य बइठावत गोसाईं जी अपना मानस में साफ – साफ लिख देलें – ‘ लोकहु बेद न आन उपाऊ. ‘ एह से वेद से लोक ले एक रस समभाव से बहत आइल बा. बस बारीक बोध के दरकार बा.

अइसे त लोक जीवन आ शिष्ट जीवन में द्वन्द्व नजर आवेला. जवन देश, काल आ परिस्थिति से पैदा होला. इहो दुनिया का अस्तित्व के कायम रखले बा. दुनिया शब्दे में द्वन्द्व के दरसन होला. ई द्वन्द्व सामासिक होला. एकरा में संधि जइसन बीचे बिकार ना पनके. एह द्वन्द्व के बिस्तार बिराट बा. जइसे ऊपर – ऊपर दिख रहल प्रकृति आ संस्कृति के द्वन्द्व.

प्रकृति में दूगो शब्द बा – प्र आ कृति. प्र कारन ह आ कृति कार्य. प्र यानी कारन एक बा बाकिर अब्यक्त बा आ कृति यानी कार्य अनेक बा बाकिर ब्यक्त बा. ई कृति सीधे उपयोग के चीज ह. एह एक के अनेक आ अब्यक्त के ब्यक्त हो गइल ही सृष्टि ह. बाकिर संस्कृति त एकरा से आउरो बहुत सूक्ष्म चीज ह. एकर सम्बन्ध उपयोग से ना सूक्ष्म योग से होला. उपयोग आ योग के भेद बतावत बिद्वान लोग पृथ्वी आ सूरज के इयाद करेला. हमनीं का उपयोग में त सीधे पृथ्वी आवेले, सूरज ना. बाकिर पृथ्वी बिना सूरज का योग के उपयोग लायक होइए ना सके. एह तरह से पृथ्वी प्रकृति जइसन आ सूरज संस्कृति जइसन बा . दूनों में द्वन्द्व समाज जइसन सम्बन्ध बा. दूनों एक दोसरा से सम्बद्ध होइयो आपन – आपन अस्तित्व बनवले राखेला आ लोक जीवन में समरस रूप में समाइल रहेला. एही से भगवान श्रीकृष्ण गीता में अपना विषय में कहले बाड़न कि हम समास में द्वन्द्व समास हईं – ‘ द्वन्द्व: समासिकस्य च ‘ ( गीता – 10/33 ). अइसने द्वन्द्व लोक संस्कृति आ नागर संस्कृति में समुझे के चाहीं.

लोकजीवन आ भोजपुरी लोकजीवन के समरसता पर ढ़ंग्गर बिचार करे खातिर एह लोक शब्द के समझ लिहल जाव. ई ‘ लोक ‘ शब्द ऋग्वेद में ‘ जन आ आम जनता ‘ के अर्थ में कई जगह प्रयुक्त बा. ( ऋग्वेद -3/56/12 )

पुरुष सुक्त में एकर प्रयोग ‘ जन ‘ आ ‘ जगह ‘ दूनों अर्थ में भइल बा –

‘ नाभ्या आसीदंतरिक्षं शीर्ष्णो द्यौ: समवर्तत.
पद्भ्यां भूमिर्दिदश: श्रोत्रात्तथा लोका: अकल्पयन्॥

( ऋग्वेद – 10/90/14 )

जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण में कहल गइल कि ई लोक कई तरह से फइलल बा. प्रयत्न कइयो के, के एकरा के समुझ सकत बा?

‘ बहु व्याहितो वा अयं बहुशो लोक:.
क एतद् अस्य पुनरीहितो अयात्॥ ‘

अष्टाध्यायी में पाणिनि ‘ लोक ‘ आ ‘ सर्वलोक ‘ शब्द के उलेख करत एकरा से ‘ठञ् ‘ प्रत्यय करके लौकिक आ सार्वलौकिक शब्द के निष्पति कइलें – ‘ लोक सर्वलोकाट्ठञ् ‘( 5/1/44 ) . तत्र विदित इत्यर्थे. लौकिक:. अनुशतिकादित्वादुभयपदवृति:. सार्वलौकिक:. ‘

ऊ लोक आ वेद के अलग-अलग सत्ता मानत अनेक शब्द के व्युत्पत्ति बतावत लिखले बाड़न कि वेद में एकर रूप अइसे बा आ लोक में एकरा से अलग अइसे बा. आजुओ शब्द के बेवहार में इहे पावल जाला.

आचार्य भरत मुनि अपना नाट्यशास्त्र के चउदहवां अध्याय में अनेक नाट्यधर्मी आ लोकधर्मी प्रवृत्ति के चर्चा कइले बाड़न. महर्षि वेदव्यास अपना ग्रंथ महाभारत के विशेषता बतावत लिखलें कि ई ग्रंथ अग्यांन रूपी अंधकार से आन्हर होके व्यथित आम जनता ( लोक ) के आँखिन के ग्यांन रूपी आजन ( अंजन ) के श्लाका लगा के खोल देवेला –

‘ अज्ञान तिमिरान्धस्य लोकस्य तु विचेष्टत:.
ज्ञानांजलशलाकाभिर्नेत्रोन्मीलनकारकम्॥ ‘

श्रीमद्भगवत गीता में लोक आ लोक संग्रह ( लोक संग्रह मतलब आम जनता के आचरन, बेवहार, आदर्श आदि ) के कई जगह प्रयोग भइल बा. एकरा में भगवान कृष्न अर्जुन के उपदेस करत लोक संग्रह पर बहुत जोर देले बाड़न –

‘ कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय:.
लोकस़ग्रहमेवापि संपश्यन् कर्तुमर्हसि॥ ‘

( गीता – 3/20 )

एह तरह से प्राचीन भारतीय वाङ्मय से लेके आधुनिक समय के साहित्य आदि तक में लोक आ लोक संग्रह के अर्थ जन, आम जनता आ आम जनता के सुभाव, बेवहार, आदर्श आ अनुभूत ग्यांन परम्परा बतावल गइल बा.

लोक, लोक जीवन, लोक संस्कृति आ लोक साहित्य के विद्वान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखले बाड़न कि लोक शब्द के अर्थ जनपद चाहे ग्राम्य ना ह, बल्कि नगरन आ गांवन में फइलल ऊ सउंसे जनता ह जेकरा बेवहारिक ग्यांन के आधार पोथी ना हई स. ई लोग नगर में परिष्कृत रुचि सम्पन्न आ सुसंस्कृत समुझे जाए वाला लोगन के अपेक्षा सरल आ अकृत्रिम जीवन के अभ्यस्त होलें आ परिष्कृत रुचिवाला लोगन के सब विलासिता आ सुकुमारता के जीया के रखे खातिर जवन बस्तु जरूरी होला, ओकरा के पैदा करेलें. ( जनपद पत्रिका, अंक -1 पन्ना 65 )

लोक शब्द के बारे में डॉ. कृष्ण देव उपाध्याय लिखले बाड़न कि ‘ आधुनिक सभ्यता से दूर, अपना प्राकृतिक परिवेस में निवास करे वाली, तथाकथित अशिक्षित आ असंस्कृत जनता के लोक कहल जाला. , जिनका आचार- बिचार जीवन परम्परा से जुड़ल नियमन से नियंत्रित होला. ( लोक साहित्य की भूमिका, पन्ना -11 ) एही लोक अर्थात् सहज, सरल, स्वाभाविक प्राकृतिक परिवेस में जीए वाला निसोख, निदाग, निरइठ आ एह विज्ञापनी आधुनिकता से अछूता आम जन समुदाय का जीवनानुभूति से जुड़ल साहित्य ह लोक साहित्य. जवन आदिम साहित्य ( फोक लिटरेचर ) आ जन साहित्य से बहुते अलग आ महत्त्व के चीज ह.

डॉ. नामवर सिंह आदिम साहित्य, लोक साहित्य आ जन साहित्य में बहुत महत्वपूर्ण आ बारीक अन्तर समुझावत बतवले बाड़न कि

‘ आदिम साहित्य सामान्य जन के ओह जुग के साहित्य ह, जब मानव – समाज के संगठन बहुते गझिंन ( घनिष्ठ ) आ उच्च कोटि के पारस्परिक सहकारिता पर आधारित रहे. नगर आ गाँव के बिभाजन त रहे, बाकिर समाज शिष्ट आ सामान्य व्यक्तियन में बँटल ना रहे.

‘ लोक साहित्य, आदिम साहित्य के अपेक्षा अधिका बिकसित समाज – बेवस्था के उपज ह. जन साहित्य औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न समाज के भूमिका में प्रवेश करेवाला सामान्य जन के साहित्य ह, लोक साहित्य जहाँ जहाँ जनता खातिर जनता के द्वारा रचल साहित्य ह उहँवा जन साहित्य जनता खातिर व्यक्ति द्वारा रचल साहित्य ह. लोको साहित्य व्यक्तिये द्वारा रचाला, लेकिन ऊ रचयिता व्यक्ति अपना समहर श्रोता समाज के प्रतिनिधि – मात्र होला. ‘ ( लोक साहित्य समग्र – सं. रामनारायण उपाध्याय, पन्ना – 11 )

लोक साहित्य के रचयिता के विषय में डा. विद्यानिवास मिश्र साफ – साफ लिखले बाड़न – ‘ लोक खातिर, लोक के भाषा भा शैली में कविता करके केहू कवि त हो सकऽता. बाकिर ओकर काव्य तबे बन सकऽता, जब अपना कवि के ऊ लोक के गंगा में बिल्कुल घुला देवे आ लोककवि के रूप में भी आपन अलग सत्ता एकदम मिटा देवे. तब ओकर गीत लोककंठ द्वारा संस्करण बनी, बिगड़ल आ बनत – बिगड़त लोकगीत के आख्या जब तक धारन करी, तब तक लोक कवि के व्यक्तित्व पूरा तरह से बिलियन हो जाई. ‘ ( लोक साहित्य समग्र – रामनारायण उपाध्याय, पन्ना – 11 )

विद्वानन के इहो मत बा कि लोक साहित्य जनपदीय भाषा में होइयो के जनपदीय साहित्य ना रहके सर्वदेशिक आ देशातीत हो जालें. काहे कि एकर मूल त मानवीय वृत्तिये सब नू होलें. एकरा में उहे व्यक्तित्व कहाला – गवाला, जे लोक – मानस के कवनो उदात्त कल्पना के मूल आधार बन चुकल होला. शिव, पार्वती, राम, सीता, कृष्ण, राधा, कोसिला, जसोदा भा देवकी जइसन दिव्य व्यक्तित्वो – चरित्र लोक साहित्य के बधार में में उतरते आपन गौरव – गरिमा गँवा – भुला के लोक के बाना धारन करत लोक में मिल जालें. लोक का सुख – दुख, रीति – रिवाज, आस्था – मान्यता आदि के अपना ऊपर ओढ़ लेलें. एही लोक साहित्य दैविक साहित्य ना होके मानुषी साहित्य कहल जाला.

डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल त लोक आ लोक साहित्य के विषय आ विशेषता पर आपन महत्वपूर्ण बिचार राखत लिखले बाड़न कि ‘ हमरा इतिहास में जवन भी सुन्दर- तेजस्वी तत्व बा, ऊ सब लोक में कहीं ना कहीं सुरक्षित बा. हमार कृषि, अर्थशास्त्र, ग्यांन, साहित्य, कला के नाना स्वरूप, भाषा सब आ शब्दन के भंडार, जीवन के आनंदमय पर्वोत्सव, नृत्य, संगीत, कथा, वार्ता सब-कुछ भारतीय लोक में ओतप्रोत बा. लोक के गंगा जुग – जुग से बह रहल बाड़ी. लोक हम सबका जीवन के महासमुद्र ह. ओकरा में भूत, भविष्य आ वर्तमान सब-कुछ संचित रहेला. लोके राष्ट्र के अमर स्वरूप ह. लोक के धारन करेवाली ( धात्री ) सर्वभूत माता पृथ्वी आ लोक के व्यक्त रूप मानव – इहे हम सबका नवीन के अध्यात्म – शास्त्र ह. ‘( लोक साहित्य का समग्र – राम नारायण उपाध्याय पन्ना -12 )

अब एह लोक आ लोक संग्रह अर्थात् लोक परम्परा, संस्कृति, जीवन – मूल्य, आस्था – मान्यता, रीति-रिवाज आदि के जाने – बूझे खातिर या त लोक में मतलब सामान्य जन समुदाय में भा ओकरा जीवन का विविध आयामन से जुड़ल लोक साहित्य; जइसे – लोक गीत, लोक कथा, लोक गाथा, लोकनृत्य, लोकनाटक, लोकोक्ति, कहाउत, मुहावरा, बुझौवल ( पहेली ), खेल के बोल आदि के परायन करेके पड़ी. एकरा सम्यक् अध्ययन से लोक जीवन में व्याप्त समता आ समरसता का भव्य आ विराट रूप के दरसन हो सकऽता. एह से भोजपुरी लोक जीवन, कला भा साहित्य में समरसता के दरसन करे खातिर समरसता के समझ लेके के चाहीं.

समरसता कवनो लोक जीवन का सामाजिकता के प्राणवायु ह. जब जन – समुदाय का एक – एक जन भीतर के ‘ मैं ‘, लोक जीवन रूपी नारायणी नदी के धारा में पत्थर अस घिसत – घिसत शालिग्राम रूप हम भा हमसब में परिवर्तित हो जाला, आ जहां एक मुँह के ना, बल्कि समूह के चलेला. लोक के सहज स्वाभाविक जीवन देह, मन, बुद्धि आ आत्मा के बीच के समरस भाव – क्रिया से संचालित होला. भोजपुरी लोक जीवन के एगो सम्बन्ध – सूत्र प्रचलित बा – ‘ मैं मैं करब मेमिआत रहब. हम हमनीं से अघात रहब. ‘

यूरोपीय अवधारणा के अनुसार जन समूह जब कवनो समझौता के लेके एकट्ठा होला त समाज बनेला. जन समूह खुद मिल के आपसी समझौता के आधार पर समाज बनावेला. जवना के सामाजिक समझौता सिद्धांत ( Social contract theory ) कहल गइल. एह से यहां आदमी महत्वपूर्ण बा. जइसन आदमी होई ओइसने समाज बनी. भारतीय अवधारणा ह कि जइसे आदमी पैदा होला ओइसहीं समाज पैदा होला. आदमी समझौता के आधार पर कवनो क्लब, रजिस्टर्ड सोसाइटी, ज्वाइंट स्टाक कम्पनी जइसन कृत्रिम संगठन त बना सकऽता, बाकिर जल्दी समाज ना बना सके.   समाजो के व्यक्ति नियन देह, मन, बुद्धि आ आत्मा होला. आज पच्छिम भी सामूहिक मन ( Group mind ) के बात करे लागल बा.   जन समुदाय भा समूह के एक साथ रहत – रहत एके स्वभाव – आदत हो जाए से ओकरा सोचे – बिचारे के एगो ढ़ंग बन जाला. ओकरा बीच पोढ़ात एकता, ममता, समता आदि के बदौलत समान अनुपात में एके तरह के जीवन – रस बने लागेला. जवन अपना – अपना प्रतिभा आ पेशा से अरजल ओहदा आ उन्नति के बावजूद आपुस में कवनो तरह के भेदभाव ना पनपे देवे. जवन अपना बीच देश, काल आ परिस्थिति से उत्पन्न विपरीत हालात के भी अपना ओही जीवन – रस समरसता के आधार बनाके आपसी सम्पर्क, संवाद, समझ, सहमति आ सहकार से हर समस्या के समाधान बिना संघर्ष कइले खोज लेवेला.

एह समरसता के भाव के विषय में शास्त्रो कहऽता – ‘ समान शील व्यसनेषु सख्यम्. ‘

पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी अपना पुस्तक ‘ एकात्म मानववाद ‘ में एह समरसता शब्द के बहुत व्यापक अर्थ में प्रयोग कइलें बाड़न. जब हर मनुष्य में एक आत्मा के बोध हो जाई त रामानुजाचार्य जइसन केहू कही कि जाति ना गुने कल्याण के कारन ह, जाति- भेद से बड़ मनुष्य के आउर केहू मुदई नइखे- ‘ न जाति: कारणं लोके गुणा: कल्याण हेतव: . ‘ ( श्रीरामानुज चरित, पन्ना – 232 ) भोजपुरी के पहिले संतकवि कबीर के गुरु कासी वासी स्वामी रामानंद के मुख से समरसता के भाव – धारा अइसहीं ना फूटल रहे – ‘ जात पात पूछे ना कोई, हरि के भजी से हरि के होई. ‘ कबीर के बानी हर केहू स्वीकार कइल कि भले केहू अपना गुन आ कर्म से अलग-अलग दिख रहल बा, बाकिर सब में एके तत्व, एके रस बा. सभे समरस बा. एके रचनाकार बा –

एके मटिया एक कुम्हार. एके सभकर सिरजनहार॥
एक चाक सब मूरत गढ़ाई. नाद – बिंदु के मध्य समाई॥

चाहे

एके चाम हाड़ मल मूता. एके रुधिर एक गूदा॥
एक बूँद से सृष्टि रची हव. के बाभन के सूदा॥

संत शिरोमणि रविदास कहलें –

रविदास जनम के कारन, होत ना केहू नीच.
नर के नीच करि डारिहें, ओछे करम के कींच॥

गोस्वामी तुलसीदास त सबमें के सियाराम अर्थात् आत्मा के जान के दसो नोह जोड़ प्रनाम करत बाड़न –

‘ सियाराम मय सब जग जानी.
करहू प्रनाम जोरी जुग पानी॥’

एह तरह से भोजपुरी लोक के हर संत – महात्मा लोक में समसामयिक विकट परिस्थिति से पनकल भेद-भाव, ऊंच – नीच, छुआछूत के दुर्भावना के मिटावे आ आपसी प्रेम, सौहार्द, एकता आ ममत्व के भाव के हृदय – हृदय में प्रवेश कराके समरस समाज बनावे के उपदेस देले बा लोग. जे खुद जोलाहा, चर्मकार, दर्जी, धोबी, नाई आदि के पेशा अपनवले रहे आ जेकरा नियरा बइठ के बांधवगढ़ के सेठ धरमदास, चितौड़गढ़ के रानी मीरा बाई, कासी के राजा आदि सरधा भाव से आत्मबोध पाके एकात्मकता के सूत्रधार बन जात रहलें.

संघ के द्वितीय सर संघचालक माधव राव सदाशिव  गोलवलकर अर्थात् गुरु जी जब कहलें कि ‘ हिन्दवो सोदरा सर्वे न हिन्दू पतितो भवेत्, मम दीक्षा हिन्दू रक्षा, मम मंत्र: समानता. ‘ अइसने मंत्र के माध्यम से लोक में अर्थात् समाज में समरसता के अबाध संचार होला. संघ के स्वयंसेवक खातिर ई सुग्गा रटंत के चीज ना ह. ई आत्मसात करेवाला सामाजिक, सांस्कृतिक आ राष्ट्रीयता के जीवन – सूत्र ह. ई आचरन में आवेला त दुनिया देखेले कि इहाँ बिना भेद-भाव के कामेश्वर चौपाल जी राम जन्मभूमि के पहिल शिला रखिले आ कासी के संत लोग डोमराज के घरे भोजन करेलें. बिना समरसता के ना त समाज आकार ले सके आउर ना साहित्य बन सके.

भोजपुरी लोक जीवन के मूलाधारे ह समरसता. एकरे बदौलत वैदिक काल में बक्सर के ऋषि विश्वामित्र अपना यजमान वैदिक भोज गण के सहयोग से आर्यावर्त के कल्याण खातिर जग करत रहलें. एही पूरब से पच्छिम का प्रदेशन में गइल अठारहो भोज कुल परम्परा का लोगन के भगवान कृष्ण के परिचय करवला पर राजसूय जग में धर्मराज युधिष्ठिर चरन धोवले रहलें. नउवीं सदी से एगारहवीं सदी तक कन्नौज आ मालवा के भोज एही समरस समाज के बदौलत सभकर चिंता – चिंतन करत बरिसन राज्य कइलें. एह भोज लोग के पंघत पद्धति में बिना कवनो भेद-भाव के भोजन करावे के सामूहिक परम्परा के आजुओ भोज करावल कहल जाला. ई एकता, सामूहिकता आ समरसता एह भोजपुरी लोक के सांस्कृतिक विशेषता ह जवना के बदौलत ई लोग हर काल में संगठित होके राष्ट्र के प्रति अपना कर्तव्य के सफलता पूर्वक पालन कइले बा. भोजपुरिया पुष्यमित्र अपना एही एकता आ समरसता के बदौलत संगठित भोजपुरिया जवानन के बल पर ग्रीक बिजेता मीनांदर के भुभुन भसकवले रहलें. एही पिपली कानन अर्थात् चम्पारन के भोजपुरिया वीर चन्द्रगुप्त अपना भोजपुरी सेना के नेतृत्व देत हिन्दू कुश तक कुल्ह राज हथिअवले रहलें आ अपना विजय के प्रतीक रूप लोहा खंभ ( लौह स्तम्भ ) दिल्ली के महरौली में गड़ववलें. सिकन्दर डरे व्यास नदी के ओही पार से भाग पराइल. ओकर सेनापति सेल्युकस अपना बेटी से चन्द्रगुप्त से बिआह करके जान के भीख मँगलस.   एही भोजपुरिया चन्द्रगुप्त के पोता चक्रवर्ती राजा होके भगवान बुद्ध का प्रेम, करुणा, अहिंसा, मानवता आदि उपदेश के भारते ना, बल्कि भारत का बाहर के कई देशन में प्रचारित करके समरस मानवता खातिर नेक उद्यम कइलें.

भोजपुरी लोक ( लोग ) शक – कुषाण के दसो बेर हरा के दस गो अश्वमेध जग कइल. जवना के प्रमाण कासी के दशाश्वमेध घाट बा. स्कंदगुप्त भोजपुरी जवानन का जोर पर हुणन के हुलिया बिगड़ले रहस. भोजपुर सासाराम के शेरशाह सूरी अपना समर्थन वाली सर्वजातीय भोजपुरिया सेना के सहयोग से ही चौसा के मैदान में मुगल हुमायू का सेना के पराजित करके सामाजिक एकता आ समरसता के महत्व के सउंसे भारत के परिचित करवलें. हुमायूं के दिल्ली से खदेड़ के इरान भागे खातिर मजबूर कर देले रहस. शेरशाह सूरी कलकत्ता से दिल्ली तक रोड बनववलें. सड़क के किनारे – किनारे हर मनुष्य यात्री खातिर कुआं खोदवलें, फल आ छाया खातिर बड़ बड़ पेड़ लगववलें आ सराय बनववलें.   अइसहीं अंगरेजन के काल में फतेहबहादुर शाही, मंगल पाण्डेय, वीर कुंवर सिंह जइसन केतने भोजपुरिया महापुरुष अपना जीवन काल में देस – राष्ट्र के सेवा खातिर हर वर्ण – वर्ग के सहयोग लेले रहलें.

भोजपुरी लोक जीवन के मूल स्वभाव धार्मिक आ आध्यात्मिक ह. जरूरत के अनुरूप अपने आप के परिष्कृत आ परिवर्तित करत प्रेम आ पराक्रम के परोसत रहेलें. जब जब समाज अउर राष्ट्र पर कालगत आ परिस्थितिगत विकृति उत्पन्न भइल बा तब तब एकरा भीतर से स्व परिष्कार खातिर कवनो सूत्रधार संत – महात्मा निकल के आगे आइल बाड़ें. जब भोजपुरी लोक जीवन में जाति भेद, छुआछूत, ऊंच – नीच आदि बढ़ल त लोक परम्परा के सिद्धांत आ शास्त्र ओकरा विरोध में खड़ा हो गइल. रूढ़ि मुक्त लोक मान्यता आ शास्त्र सिद्धांत के समय आ समाज के अनुकूल ढ़ाल के बड़ व्यक्तित्व के महापुरुष ओह तमाम समस्यन के समाधान अपना आचरन से संपोषित उपदेस के जरिए प्रस्तुत कर देलें. एकरा में हर पेशा – वृत्ति के जीये वाला लोग रहल बा. स्वामी रामानंद ब्राह्मण, पीपा राजपूत, कबीर जुलाहा, रविदास चर्मकार, संत सेन नाई, धन्ना जाट आदि द्वारा भोजपुरी लोक में समरसता पैदा करे के दिसाईं कइल सफल प्रयास अनुकरणीय रहल बा.

इस्लाम के प्रचंड वेग के इहे भोजपुरी लोक जीवन के आदर्श व्यक्तित्व कुंद कइल. विविध पंथन में आइल कर्मकांड, अनावश्यक बाह्याचार, आडम्बर से लोक के रक्षा कइल. सभे धर्मान्तरण आ मतान्तरण के के रोकल.

रविदास पंथ आ जातिगत कर्मकांड आ देखावा पर चोट करत सिद्ध कइलें – ‘ मन चंगा त कठवत में गंगा. ‘ हर प्रलोभन के ठुकरावत कबीर कहलें – ‘ हम त कुतिया राम के. ‘ कुम्भन कहलें – ‘ मोको का सिकड़ी में काम, आवत – जात पनहिया घीसत, बिसर जात हरिनाम. ‘ तुलसीदास त साफे कह दिहलें –

‘ हम चाकर रघुवीर के पढ़ो लिखो दरबार.
तुलसी अब का होइहें नर के मनसबदार॥ ‘

एह तरह से ऊ अकबर का मनसबदारी के लात मरलें. ओह समय के कुल्ह संत – महात्मा श्रमजीवी रहलें. कबीर कपड़ा बुनलें. रविदास चर्मकारी कइलें. दरिया दर्जी के काम अपनवलें. एह सभे का उच्च आचरन – उपदेस आ सादा जीवन के आगे बड़ – बड़ राज रजवाड़ा माथ रख दिहल. कबहूं समरस समाज बनावे खातिर अगिला कतार का लोगन के आपन स्वार्थ त्यागे के पड़ेला . माननीय संघ सर चालक मोहन भागवत जी के बिचार बा कि ‘ अपना समाज बन्धुजन का हित के संवेदना, जवना आंतरिक संस्कार के व्यक्ति का हृदय के झंकृत करेला, ओकरे के समरसता कहल जाला ‌आंतरिक संस्कार बहुत बड़ चीज ह. एही के बदौलत विविधता से भरल भारत आ हिन्दू समाज अपना एक एक जीवन के निर्वाह करत आइल बा. जब जब सामाजिक समरसता लचरल बा तब तब ई देस कमजोर भइल बा. लुटाइल बा. आ जब जब सामाजिक समरसता मजबूत भइल बा. तब तब भारत के सामर्थ्य आ समृद्धि आसमान छुवले बा. भारत का आत्म परिष्कार आ बाह्य विकृतियन का प्रतिकार के सूत्र लोक जीवन, लोक संस्कृति आ लोक साहित्ये से मिलेला. भोजपुरी लोक कला आ साहित्य अपना विविध रूपन में एह सूत्र के संजो के रखले बा. आज जब परिवार रूपी भारत पर आघात हो रहल बा. पर्यावरण के चिंता आ चिंतन जीवन व्यापार से अलग हो रहल बा. कर्तव्य बोध के भाव मेट रहल बा. स्वदेशी के प्रति अनुराग कम होत जा रहल बा छोट – छोट स्वार्थ खातिर जाति भेद पैदा करेवालन का कुबिचार आ कुकृत्य से सामाजिक समरसता खतरा में पड़त नजर आ रहल बा. अइसन प्रतिकुल परिस्थिति में लोक साहित्य में परोसल समरसता सम्बन्धी दृष्टिकोण के सामने ले आवल जरूरी बा.

भोजपुरी लोक कला, गीत, कथा, गाथा, नाटक, नृत्य आ लोकोक्ति, कहाउत, मुहावरा, बुझौवल में त समरसता के तत्व बड़ले बा. भोजपुरी संत कवि लोग भी लोक के बीच रह के लोक भाषा- शैली, लय – धुन में लोक के स्व परिष्कार खातिर काव्य रचत रहलें. ऊ कुल्ह लोके कला – साहित्य के रूप बा. लोक कवि के कहनाम बा बिना ग्यांन आ कर्म सभे शूद्र चर्मकार बा –

‘ बड़ के गयो बड़प्पन, रोम रोम हंकार.
सतगुरु के परिचय बिना, चारो बरन चमार॥

( बीजक, साखी – 139, पन्ना – 407 )

तुलसीदास के अनुसार,

‘ स्वपच सबर खस जमन जड़ पाँवर कोल किरात.
राम कहत पावन परम होत भुवन विख्यात॥ ‘

भोजपुरी लोक में व्याप्त बा ई संत बानी –

‘ करनी पार उतारि धरनी कियो पुकार
साकित बाम्हन नाहिं भला, भक्त भला चमार
मांस अहारी बाभना सो पापी बहि जाउ
धरनी सूद्र बइस्नवा, ताहि चरन सिर नाउ. ‘

( हिन्दी संतकाव्य : समाजशास्त्रीय अध्ययन, पन्ना – 124 )

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– विभागाध्यक्ष-स्नातकोत्तर भोजपुरी विभाग, बी. आर. अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर ( बिहार )
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मो. न. -9430014688
राष्ट्रीय महामंत्री, अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन, पटना ( बिहार )
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आवासीय पत्राचार-‘प्रताप भवन ‘महाराणा प्रताप नगर
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