आवऽ लवटि चलीं जा! - 14

डा॰ अशोक द्विवेदी के लिखल उपन्यास अँजोरिया में धारावाहिक रुप से प्रकाशित हो रहल बा.

चउदहवाँ कड़ी

जइसे पानी खाला में अपना आपे डुगरल चलि आवेला, जइसे कमजोर का कपारे मय अछरंग अपना आपे लागि जाला, ओही तरे रमेसर राउत का दुआरे गाँव के अंडे-बच्चे क झमेल लागि गइल. नवछेटिहा छरकि-छरकि कूदँ स, कँवाड़ी अबहिन ले बन्ने रहे रमेसर के.

टोला के लइकी, मेहरारु कबो जंगला से, कबो इनार का बेदी से, आ कबो घूर प खाड़ होइ होइ एनिये तिकवँ स. सबकर आँखि-कान एनिये लागल रहे.

फजीरे के सुनुगल घाम गँवे गँवे तिक्खर हो चलल रहे. आदमी जब बोलेला त प्रकृति कान रोपेले, बाकिर प्रकृति के बोली आदमी सुनल ना चाहे. सुनियो लेला त महँटियाइ जाला भा अनमनाहे अइसे चलि देला जइसे कुछ सुनलहीं ना होखे.

रमेसर पगरी बन्हले, दुआरी प धइल चउकी पर ओही तरे बइठल रहले. लोग आवे, एक बार घुइरे, फेरु बन कँवाड़ी का ओरि ताकि के पहिले से जुमल भीड़ में सामिल हो जाव. सबकर बात सुनत रहले ऊ. सबकर बाति उनहीं पर होत रहे. गाँव भर का मुँहे सूरन लागल रहे बाकिर ऊ ना दोचित रहलन ना त परेसान!

जब सब जानिये गइल त जवन होई तवन देखल जाई. अइसहूँ जाने के त सभके रहबे कइल हा. आजु ना त काल्हु. जब अतना दिन कौलेसर इनहन के आसाम में सरन दिहलन हम त उनकर बाप हईं. अब का जानत रहुवीँ कि आवते ओकरा पेटे दरद उठि जाई आ किरपवा बो चमाइन के चिचियाए में बात एतरे खोलि से छटकल रेंड़ी अस घरे घरे डगरे लागि? अतना जल्दी बात फइलि जाई एकर कयासे ना रहल हा हमरा! खैर अब त ऊहे होई जवन होखे वाला होई!

बचना से उनकर चुप्पी अखरि गइल. ओठ के खइनी अँगुरी से निकाल के भूँईंयाँ पटकलस, अँगुरी गमछी में पोंछलस फेरु गमछी अँगुरी में लपेट के दू बेर मुँह का भीतर घुमवलस आ माहुर मुँह कइले उनका लग्गे आ गइल. धार के मइला अस बटुराइल लोग ओकरा पाछा-पाछा निगिचा सरकि आइल.

- 'सुनलीं हा जे पनवा आइल बिया!' बचना अइँठ के बोलल.

रमेसर के आँखि सिकुरली स. ऊ नजर उठाइ के उमखल उखमँजल भीड़ का ओरि एक बेर तकलन आ कुछ ना बोललन. चउधरी के छोटका भतीजा ढेमन, जेकर अबहीं बियाह ना भइल रहे, खीसिम पागल रहे. रमेसर के चुप्पी अब ओकरा बरदास से बाहर हो गइल. बचना के धसोरत ऊ रमेसर पर चढ़ि आइल, 'बहुत भइल! बड़ बूढ़ गुने सभ तोहके नइखे बोलत त एकर माने ई ना भइल कि तूँ जवन चहबऽ ऊहे होई! तोहरा जगह पर आजु दोसर केहू रहित त टँगरी चीरि देले रहितीं!'

रमेसर के खून खउलि गइल. बचना फेरू टोकलस, 'गाँव से रार बेसाहि के तूँ नीक नइखऽ करत काका!'

रमेसरो उबियाइल रहलन, उबाल के थिर करत कहलन, 'हम का करऽतानी ए बाचा? हम त अपना दुआरे चुपचाप बइठल बानी आ आपन धरम निबाहऽ तानी, बेकारे नू तोहन लोग अतना परेसान भइल बाड़ऽ जा.' जनाइल जइसे सउँसे उमिर के तेज उनका बोली में समाइल होखे, ऊ निडर होके कहलन.

गाँव के एकदम पुरुब अलँगे रमेसर के घर. खनहन पलिवार. दू गो पतोहि, एगो बेटी सुनैनी आ मलिकाइन. तीन बेटा, तीनू कमासुत! कौलेसर आसाम में, गोबर्द्धन कलकत्ता आ छोटका धरमनाथ पंजाब रहेला. चार पाँच बिगहा के खेतो बा. रहे बसे में लगाइत खाए-पहिने के कवनो कमी नइखे. सुनैनी के बियाह परुवे जेठ मे हो गइल. कूल्हि से सलतंत. लड़िका चार-पाँच महीना पर घरे आवल करेले स आ घर-दुआरि सहेजि-सिंगार के फेरु चलि जाले स. घर गिरस्थी से जवन समय बाँचेला रमेसर ओके रमायन बाँचे आ सतसंग में खरच करेले. सरजू मिसिर के सिवाला प रोज साँझि का बईठकी जमेले. कबो कभार भजन-गवनई हो जाला ना त आपन खेत आपन दुआर. ना हरहर ना पटपट. रमेसर कठिन से कठिन घरी में नइखन घबड़ाइल. बाकि आजु... ऊ आसमान का ओरि तकले, 'का बिधाता, इ कवन परिच्छा लेत बाड़ऽ?'

बचना एकदम निगिचा चढ़ि आइल, 'बिरवो आइल बा हो?'

'ऊ कहाँ जाई?' सवाल के जवाब सवाले में देत रमेसर खड़ा हो गइलन. लोग बवंडर अस उनके घोरियावे लागल. ऊ सभ के सुनावत कहलें, 'देखु भइया, जाके तुहूँ लोग आपन काम देखु. बेकारे नू मछरी बेंच कइले बाड़े. कहि त दिहनी, पनवा आइलि बिया. ओकर मरद बिरवो आइल बा. कौलेसर के सँगाति हऽ, हमरा घरे रुकल बा. राह बाट के थकइनी, अभी दिन उबरी त अपना आपे बहरी निकलिहें स. फेरु घरे दुआरे जइहें स. तब्बे भरि आँखि देखि लिहऽ जा. हो गइल न? अब जा लोग!'

एह निठोठ जवाब के केहू के आसा ना रहे. लागल जइसे उमखल भीड़ सुनुगत होखे इ कवनों झोंका में बरि जाये के तइयार होखे.

- 'जा लोग भइया, कहि दिहनी न, अब आपन काम धाम देखऽ जा!'

बहोरन तिवारी के जीभि ककुलात रहलि. मोका मिलते मोंछि पूरत बेंगुचि के बोलले, 'काम त आपन सभ देखते बा ए रमेसर, बाकी पानी जब नाकल से उपर चढ़ि जाला त आदमी गोड़ हाथ पटकबे करेला. अब हर ममिला में तहरे राज ना न चली? बहरियाव उनहन के, ना त कुछ ऊँच नीच हो जाई!'

- 'का कहलऽह हा हो?' साही के काँट अस रमेसर के रोआँ रोआँ तरना उठल, 'धावा मरबऽ जा का?'

- 'जरुरत परीत ऊहो होई! उन्हनी का मय रीति नीति आ आचार विचार के त नासिये दिहले बाड़न स. बहरा मुँह करिखी लगवले रहले हा स त दोसर बात रहे. अब गाँवो में ई सब केहू कइसे बरदास क ली? जें तू ढेर खरखाह बनबऽ त कहि दे तानी, फेरु हमरा दोस जिन दीहऽ!'

- 'सुनऽ सुनऽ ए बहोरन! तनी फेर से कहिहऽ त! हमार का क लेबऽ तूँ?'

- 'तोहके त हम दरि देइबि!'

सुनते भीड़ अमानि हो गइलि. रमेसर के धसोरि के लोग दुआरे ले पहुँचिगइल. कवाँड़ि ढकचे लागलि. ईंटा पत्थर चले लागल. अस झउँझार मचल जे रुखि पराइ के फेंड़ का सबसे ऊँच डेंहुगी पर चढ़ि गइली स. निचहूँ से देखला प उन्हनीं के पोंछि उठावल गिरावल लउकत रहे. अनुभवी रमेसरो के अक्किल हेराये लागल. भजन के झूठ आ फरेब के साँच, पहिला बेर उनका सोझा रहे. एक छिन खातिर उनकर दूनो आँखि मुना गइली स अब का होई रामजी! तुहईं इन्साफ करऽ!