लघुकथा संग्रह थाती
भगवती प्रसाद द्विवेदी
अनेसा
गौरैया जीव-जान से अपना अंडा के सेवत रहे. चाहे ऊ अँगना के मुड़ेरा प चहचहात होखे, फुर्र से उड़िके बगइचा में दाना चुगति होखे, भा पाँखि फड़फड़ावत बालू में नहातो होखे - ओकरा दिल-दिमाग में हरपल अपना अंडवे के फिकिर समाइल रहत रहे. ऊ त ओह दिन के बाट जोहति रहे, जब अंडा से बच्चा निकलि के ओकरा खोंता में चहचहा उठी.
आखिर ऊ घरी आइये गइल. अब गौरैया बड़ा जतन से ठोर में दाना दबा के ले आवे आ चीं-ची करत चूजा के चुगावे लागे. ओकरा के निरखि के ओकर मन बेरि-बेरि उमगि उठत रहे.
बाकिर अचक्के में गौरैया के मन में उदासी के बदरि मँड़राये लागलि. एगो अनजान डर से ऊ बेरि-बेरि थरथरा उठति रहे. ना जाने कब दुख के बरखा बरिसे लागे!
बगलगीर गौरैया ओकरा उदासी के कारन जाने के गरज से पूछलसि, "बहिना! अब त तहरा बचवन के पांखियो लागि गइल. आज त ऊ खुदे फुदुकि-फुदुकि के दाना बीनत रहल हा. बाकिर तबो तू काहें उदास बाड़ू?"
"इहे त उदसी के कारन बा बहिनी!" गौरैया के डबडबाइल आँखि से बेचारगी टपके लागल, "अब ओकर का भरोसा कि शहर का ओरि भागत गँवई लरिकन नियर दीगर घर बसावे ऊ कब उड़न-छू हो जाई! "
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