लोक कवि अब गाते नहीं – ४

(दयानंद पाण्डेय के लिखल आ प्रकाशित हिन्दी उपन्यास के भोजपुरी अनुवाद)


तिसरका कड़ी से आगे…..

कहल जाला कि अर्जुन द्रोपदी के एहीसे जीत पवले कि उनुका बस मछरी के आँख लउकत रहे. जबकि बाकी योद्धा पूरा मछरी देखत रहले आ एह चलते मछरी के आँख ना भेद पवले. से द्रोपदियो के ना जीत पवले. बाकिर केहू के जीते के अपना लोक कवि के स्टाइल कुछ दोसरे रहे. ना त ऊ अर्जुन रहले ना अपना के अर्जुन का भूमिका में देखत रहले तबहियो ऊ जीतत जरुर रहले. एह मामिला में ऊ अर्जुनो से दू डेग आगा रहले काहे कि लोक कवि मछरी आ मछरी का आँख से पहिले द्रोपदी के देखसु. बलुक कई बेर त ऊ बस द्रोपदिये के देखसु. काहे कि उनुका निशाना पर मछरी के आँख ना द्रोपदी रहत रहे. मछरी भा मछरी के आँख त बस साधन रहुवे द्रोपदी के जीते के. साध्य त द्रोपदिये रहुवी. से ऊ द्रोपदी के साधसु, मछरी भा मछरी के आँख नाहियो सधे त उनुका कवनो फरक ना पड़त रहे. ऊ गावतो रहन, “बिगड़ल काम बनि जाई, जोगाड़ चाहीं”. एहसे केहू हत होखता कि आहत, एहसे उनुका कवनो सरोकार ना रहत रहुवे. उनुका त बस अपना द्रोपदी से सरोकार रहत रहुवे. ऊ द्रोपदी शराबो हो सकत रहे, सफलतो. लड़कियो हो सकत रहे, पइसो. सम्मान, यश, कार्यक्रम भा जवन कुछ होखो. उनुकर संगी साथी कहबो करसु कि, “आपन भला, भला जगमाहीं !” बाकिर लोक कवि के एहसे कवनो फरक ना पड़त रहे. हँ, कभी कभार फरक पड़ियो जाव. तब जब उनुकर कवनो द्रोपदी उनुका ना भेंटात रहे. बाकिर एह बाति के गाँठ बन्हले ऊ घुमतो ना रहले कि “हऊ वाली द्रोपदी ना मिलल !” बलुक ऊ त अइसन अहसास करावसु जइसे कुछ भइले ना होखे. दरअसल दंद-फंद आ अनुभव उनुका के बहुते पकिया बना दिहले रहुवे.

एक बेरि के बाति ह. लोक कवि के एगो विदेश दौरा तय हो गइल रहे. एडवांसो मिल गइल रहे, तारीख तय ना भइल रहे. दिन पर दिन गुजरत रहे बाकिर तारीख तय ना हो पावे. लोक कवि के एगो शुभचिन्तक बहुते उतावला रहले. एक दिन लोक कवि से कहले, “चिट्ठी लिखीं.”

“हम का चिट्ठी लिखीं. जाए दीं.” लोक कवि कहले, “जे अतने चिट्ठी लिखल जनती त गवैये बनतीं ? अरे साटा पर आपन नाम आ तारीख लिख दिहिलें, उहे बहुत बा.” ऊ कहे लगले “कहीं कुछ गलत सलत हो गइल त ठीक ना रही. जाए दीं मामिला गड़बड़ा जाई.”

“त फोन करीं.” शुभचिन्तक के उतावली गइल ना रहे.

“नाहीं. फोन रहे दीं.”

“काहे ?”

“का है कि बेसी कसला पर पेंच टूट जाला.” लोक कवि शुभचिन्तक के समुझावत कहले.

शुभचिन्तक एह लगबग अपढ़ गायक के ई बाति सुनके हकबका गइले. बाकिर लोक कवि त अइसने रहले.

सगरी चतुराई, सगरी होशियारी, ढेर सगरी गणित आ जुगाड़ का बावजूद ऊ बोलत बेधड़क रहले. ई शायद उनुकर भोजपुरी के माटी के रवायत रहुवे कि अदा, जानल मुश्किल रहे. आ ऊ अनजाने ही सही एकाध बेर नुकसानो का कीमत पर कर जासु आ कुछऊ बोल जासु. आ जे कहल जाला कि “जवन कह दिहनी से कह दिहनी” पर अडिगो रह जासु.

अइसने एक बेर एगो कार्यक्रम ले के लोक कवि का गैराज वाला डेरा पर चिकचिक चलत रहुवे. लोक कवि लगातार पइसा बढ़ावे आ कुछ एडवांस लेबे का जिद्द पर अड़ल रहुवन. आ क्लायंट जे बा से कि पइसा ना बढ़ावे आ एडवांस का बजाय सिरफ बयाना दे के साटा लिखवावल पर अड़ल रहुवे. क्लायंट का सिफारिश में कवनो कार्पोरेशन के एगो चेयरमैनो साहब लागल रहलें. काहे कि एगो केन्द्रीय मंत्री के चचेरा भाई होखला का नाते चेयरमैन साहब चलता पूर्जा वाला रहले. आ लोक कवि के जनपद के मूल निवासिओ. ऊ लोक कवि से हमेशा लगभग अफसरी-सामंती अंदाज में बतियावसु. ओहू दिन “मान जो, मान जो” कहत रहले. फेर लोक कवि के तनिका इज्जत देबे का गरज से ऊ हिन्दी पर आ गइले, ःमान जाओ, मैं कह रहा हूं.”

“कइसे मान जाईं चेयरमैन साहिब ?” लोक कवि कहले,”रउरा त सब जानीले. खाली हमही रहतीं त बात चल जाइत. हमरा साथे अउरियो कलाकार बाड़े. आ ईहाँ के पूरा पार्टियो चाहीं.”

“सब हो जाई. तू घबरात काहे बाड़ऽ ?” कहत चेयरमैन साहब लोक कवि के धीरे से मटकी मरले आ फेर कहले, “मान जो, मान जो !” फेरु अपना जेब से एक रुपिया के सिक्का निकालत चेयरमैन साहब उठ खड़ा भइले. लोक कवि के ऊ सिक्का देत कहले, “हई ले आ मिसिराइन के “हियां” हमरा ओरि से साटि दीहे.”

“का चेयरमैन साहिब, रउरो ?” कहके लोक कवि तनी खिसियइले. बाकिर चेयरमैन साहब के एह फूहड़ टिप्पड़ी के जवाब ऊ चाहियो के ना दे पवले आ बाति टालि गइले. चेयरमैनो साहब क्लाइंट का साथे चल गइले.

चेयरमैन साहब के जातही लोक कवि का गैराज में बइठल उनुकर एगो अफसर दोस्त लोक कवि के टोकले,” रउरा जब ई कार्यक्रम नइखे करे के त साफ मान काहे ना कर दिहनी ?”

“रउरा कइसे मालूम कि हम ई कार्यक्रम ना करब ?” लोक कवि तनी हमलावर होत पूछले.

“रउरा बातचीत से.” ऊ अफसर बोलले.

“अइसे अफसरी करीं ले रउरा ?” लोक कवि बिदकले, “अइसहीं बातचीत के गलत सलत नतीजा निकालब ?”

“त ?”

“त का. कार्यक्रम त करही के बा चाहे ई लोग एक्को पइसा ना देव तबहियो.” लोक कवि भावुक हो गइले. कहले, “अरे भाई, ई चेयरमैन साहिब कहत बानी त कार्यक्रम त करही के बा.”

“काहे ? अइसन का बा एह दू कौड़ी के चेयरमैन में ?” अफसर बोलल. “मंत्री एकर चचेरा भाई ह नू ! का बिगाड़ लीहि. तेह पर रउरा से फूहड़ आ बेइज्जत करे वाला टिप्पणी करत बा. के हई ई मिसिराइन ?”

“जाए दीं ई सब. का करब रउरा जानि के ?” लोक कवि कहले, “ई जे चेयरमैन साहिब हउवें नू, हमरा के बहुते कुरता पायजामा पहिरवले बाड़न एह लखनऊ में. भूखे सूतत रहीं त खाना खिअवले बाड़न. जब हम शुरु शुरु में लखनऊ आइल रहीं त बड़ सहारा दिहले. त कार्यक्रम त करही के बा.” कहि के लोक कवि अउरी भावुक हो गइले. कहे लगले, “आजु त हम इनका के शराब पियाइले त पी लेले. हम उनुका बरोबर में बइठ जानी त खराब ना मानसु आ हमार गानो खूब सुनेलें. आ एहिजा ओहिजा से परोगराम दिलवा के पइसो खूब कमवावेले. त एकाध गो फ्री परोगरामो कर लेब त का बिगड़ जाई ?”

“त अतना नाटक काहे ला कइले रहीं?”

“एहसे कि ऊ जवन क्लायंट आइल रहे ऊ पुलिस में डीएसपी बा. दोसरे एकरा लड़िकी के शादी. शादी का बाद विदाई में रोआरोहट मचल रही. के माँगी पइसा अइसनका में ? दोसरे, पुलिस वाला हऽ. तीसरे ठाकुर हऽ. जे कहीं गरमा गइल आ गोली बंदूक चलि गइल, त ?” लोक कवि कहले, “एही नाते सोचत रहली कि जवन मिलत बा एहीजे मिल जाव. कलाकारनो भर के ना त आवही जाए भर के सही.”

“ओह त ई बाति बा.” कहिके ऊ अफसर महोदय भउँचकिया गइलन.

चेयरमैन प्रसंग पर अफसरके सवाल लोक कवि के भावुक बना दिहले रहे. अफसर त चल गइल बाकिर लोक कवि के भावुकता उनकरा पर सवारे रहे.

चेयरमैन साहब !

चेयरमैन साहब के हालांकि लोक कवि बहुते मान देसु बाकिर मिसिराइन पर अबहीं अबहीं उनुकर टोंट उनुका के आहत कर दिहले रहुवे. एह आहत भाव के धोवे का लिहाज से ऊ भरल दुपहरिये में शराब पियल शुरु कर दिहले. दू गो कलाकार लड़िकिओ उनुकर साथ देबे संजोग से तबले आ गइल रहीं सँ. लोक कवि लड़िकियन के देखते सोचले कि नीमने भइल कि चेयरमैन साहिब चलि गइले. ना त एह लड़िकियन के देखते ऊ खुल्लमखु्ल्ला फूहड़ टिप्पणी कइल शुरु कर देतन आ जल्दी जइबो ना करतन. लड़िकियन के अॡना जाँघ पर बइठावल, ओकनी के गाल मीसल, छाती भा हिप दिहल जइसन ओछ हरकत उनुका खातिर रुटीन हरकत रहे. ऊ कबहियो कुछऊ कर सकत रहले. अइसन कभी-कभार का, अकसरहे लोको कवि करत रहले. बाकिर उनुका एह कइला में लड़िकियनो के मजबूरे सहमति सही, सहमति रहत रहुवे. बाकिर चेयरमैन साहब के एह ओछ हरकतन पर लड़िकियन के खाली असहमतिये ना रहत रहे, ऊ सब बिलबिलाइयो जात रही सँ.

बाकिर चेयरमैन साहब बाज ना आवसु. अंत में लोके कवि के पहल करे के पड़त रहुवे, “त अब चलीं चेयरमैन साहब !” चेयरमैन साहब लोक कवि के बात के तबो अनुसना करसु त लोक कवि हिन्दी पर आ जासु, “बड़ी देर हो गई, जायेंगे नहीं चेयरमैन साहब ?” लोक कवि के हिन्दी बोलला के मतलब समुझत रहले चेयरमैन साहब से उठ खड़ा होखसु. कहसु, “चलत हईं रे, तें मउज कर.”

“नाहीं चेयरमैन साहिब, बुरा जिन मानीं.” लोक कवि कहसु, “असल में कैसेट पर डाँस के रिहर्सल करवावे के रहे.”

“ठीक है रे, ठीक है.” कहत चेयरमैन साहब चल देसु. चल देसु कवनो दोसरा “अड्डा” पर.

चेयरमैन साहब साठ बरीस के उमिर छूवत रहले बाकिर उनुकर कद काठी अबहियो उनुका के पचासे का आसपास के आभास दिआवत रहे. ऊ रहबो कइलन छिनार किसिम के रसिक. सबसे कहबो करसु कि, “शराब आ लौंडिया खींचत रहऽ, हमरे लेखा जवान बनल रहबऽ”.

चेयरमैन साहब के अदा आ आदत कई गो अइसनो रहे जे उनुका के सरेआम जूता खिया देव बाकिर ऊ अपना बुजुर्गियत के भरपूर फायदे ना उठावसु बलुक कई बेर त ऊ अउरी सहानुभूति बिटोर ले जासु. जइसे ऊ कवनो बाजार में खड़ा-खड़ा अचके में बेवजह अइसे चिचियासु कि सभकर नजर उनुका ओरि उठ जाव. सभ उनुका के देखे लागे. जाहिर बा कि अइसनका में बहुते मेहरारुवो रहत रहली सँ. अब जब मेहरारू उनुका ओरि देखऽ सँ त फूहड़पन पर उतर जासु. चिल्लाईये के अधबूझ आवाज मे कहसु, “… दे !” मेहरारू सकुचा के किनारे हो के दोसरा तरफ चल दे सँ. कई बेर कवनो सुन्दर मेहरारू भा लड़िकी देखसु त ओकरा अगल-बगल में चक्कर काटत-काटत ओकरा पर भहरा के गिर जासु. एह गिर पड़ला का बहाने ऊ ओह मेहरारू के भर अंकवारी पकड़ि लेसु. एही दौरान ऊ औरत के हिप, कमर, छाती आ गाल छू लेसु पूरा बेहूदगी आ बेहाया तरीका से. मेहरारू अमूमन संकोचवश भा लोक लाज का फेर में चेयरमैन साहब से तुरते छूटकारा पा के ओहिजा से खिसक जा सँ. एकाध गो औरत अगर उनुका एह तरे गिरला पर नाराजगी देखाव सँ त चेयरमैन साहब फट से पैंतरा बदलि लेसु. कहसु, “अरे बच्चा, खिसयाव जनि. बूढ़ हईं नू, तनी चक्कर आ गइल रहुवे से गिर गइल रहीं.” ऊ “सॉरी”ओ कहसु आ फेरु ओह मेहरारू का कान्ह पर झूकल-झूकल ओकरा छातियन के उठत-बइठत देखत रहसु. तबहियो औरत उनुका पर दया खात उनुका के सम्हारे लागऽ सँ त ऊ फेर बहुते लापरवाह अंदाज में हिप पर हाथ फेर देसु. आ जे कहीं दू तीन गो औरत मिल के उनुका के सम्हारे लागऽ सँ त उनुकर त पौ बारह हो जाव. ऊ अकसरहाँ अइसन करसु बाकिर हर जगहा ना. जगह आ मौका देखि के. तवना पर कलफ लागल चमकत खद्दर के कुरता पायजामा, उनुकर उमिर से एह सब अएब पर बिना मेहनते पानी पड़ जाव. तवना पर ऊ हाँफे, चक्कर आवे के दू चार आना एक्टिंगो फेंक देसु. बावजूद एह सब के ऊ कभी कभार फजीहत फेज में घेराइये जासु. तबो ऊ एहसे उबरे के पैंतरा बखूबी जानत रहलें.

एकदिन ऊ लोक कवि का लगे अइले, कहले, “२६ दिसंबर के तू कहाँ रहऽ भाई ?”

“एहीजे त. रिहर्सल करत रहीं.” लोक कवि जवाब दिहले.

“त हजरतगंज ना गइल रहऽ २५ के ?”

“काहे ? का भइल ?”

“त मतलब कि ना गइलऽ ?”

“त अभागा बाड़ऽ”.

“अरे भइल का ?”

“चेयरमैन साहब औरत के एगो खास अंग के उच्चारत बोलले, “अतना बड़हन औरतन के …. क मेला हम ना देखले रहीं. !” ऊ बोलते जात रहले,”हम त भाई पागल हो गइल रहीं. कवनो कहे एने दबाव़ कवनो कहे एने सुघुरावऽ.” ऊ कहले,”हम त भाई दबावत सुघुरावत थाक गइनी.”

“चक्कर वक्कर आइल कि नाहीं ?” लोक कवि पूछले.

“आइल नू.”

“कव हाली ?”

“इहे करीब १५ – २० राउण्ड त अइबे कइल.” कहत चेयरमैन साहब खुदे हँसे लगलन.

लेकिन चेयरमैन साहब का साथे अइसने रहे.

ऊ खुद अंबेसडर में होखसु आ जे अचानके कवनो सुंदर मेहरारू के सड़क पर देखि लेसु, भा दू चार गौ कायदा के औरत देखि लेसु त ड्राइवर के डाँटत तुरते काशन दे, “ऐ देखत का बाड़े ? गाड़ी होने घुमाव.” ड्राइवरो अतना पारंगत रहुवे कि काशन पावते ऊ फौरन गाड़ी मोड़ देव, बिना एकर परवाह कइले कि अइसे में एक्सीडेंटो हो सकेला. चेयरमैन साहब कबो दिल्ली जासु त दू तीन दिन डी॰टी॰सी॰ का बसन खातिर जरुर निकालसु. कवनो बस स्टैंड पर खड़ा होके बस में चढ़े खातिर ओहिजा खड़ा औरतन के मुआयना करसु आ फेरु जवना बस में बेसी औरत चधऽ सँ, जवना बस में बेसी भीड़ होखे, ओहि में चढ़ि जासु. ड्राइवर के कहसु,”तू कार ले के पाछा पाछा आवऽ.” कई बेर ड्राइवर अतना बाति बिना कहले जानत रहे. त चेयरमैन साहब डी॰टी॰सी॰ का बस में जवने तवने मेहरारू के छूवला के सुख लेसु, उनुकर अंबेसडर कार बस का पीछे पीछे उनुका के फालो करत आ चेयरमैन साहब औरतन के फालो करत. ऊँघसु, गिरसु, चक्कर खासु. “फालो आन” के सरहद छूवत.

चेयरमैन साहब के अइसनका तमाम किस्सा लोके कवि का कई लोग जानत रहे. बाकिर चेयरमैन साहब के लोक कवि के झेलते भर ना रहसु बलुका उनुका के पूरा तरह जियत रहसु. जियत एहसे रहसु कि “द्रोपदी” के जीते खातिर चेयरमैन साहब लोक कवि ला एगो काम के पायदान रहलें. एगो जरुरी औजार रहलें. आ एहसान त उनुकर लोक कवि पर रहले रहुवे. हालांकि ओह एहसान के चेयरमैन साहब किहाँ एक बेर ना कई-कई बेर लोक कवि उतार का चढ़ा चुकल रहले तबहियो उनुकर मूल एहसान लोक कवि कबो भुलासु ना आ एहूसे बेसी ऊ जानत रहले कि चेयरमैन साहब द्रोपदी जीते के कामिल पायदान आ औजारो हउवन. से कभी-कभार उनुकर अएब वाली अदा‌-आदतन के ऊ आँख मूँद के टाल जासु. मिसिराइन पर यदा-कदा के टोंटो के ऊ आहत होइयो के कड़ुवा घूँट का तरह पी जासु आ खिसियाइल हँसी हँस के मन हलुक कर लेसु. केहु कुछ टोके, कहे त लोक कवि कहसु,”अरे मीर मालिक हउवन, जमींदार हउवन, बड़का आदमी हउवन. हमनी का छोटका हईं जा, जाए दीं !”

“काहे के जमींदार ? अब त जमींदारी खतम हो चुकल बा. कइसन छोटका बड़का ? प्रजातंत्र हऽ.” टोके वाला कही.

“प्रजातंत्र ह नू !” लोक कवि बोलसु, “त उनुकर बड़का भाई केन्द्र में मंत्री हवे आ मंत्री लोग जमींदार से बढ़के होला. ई जानीलें कि ना ?” ऊ कहसु, “अइसहू आ वइसहू. दूनो तरह से ऊ हमरा खातिर जमींदारे हउवें. तब उनुकर जुलुमो सहही के बा, उनुकर प्यारो दुलार सहे के बा आ उनुकर अएबो आदत.”

अर्जुन के त बस एगो द्रोपदी जीते के रहे बाकिर लोक कवि के हरदम कवनो ना कवनो द्रोपदी जीते के रहत रहे. यश के द्रोपदी, धन के द्रोपदी आ सम्मान के द्रोपदी त उनुका चाहले चाहत रहुवे. एह बीचे ऊ राजनीतिओ के द्रोपदी के बिया मन में बो चुकल रहले. बाकिर ई बिया अबही उनुका मन का धरतिये में दफन रहे. ठीक वइसहीं जइसे उनुकर कला के द्रोपदी उनुका बाजारु दबाव में दफन रहुवे. अतना कि कई बेर उनुकर प्रशंसक आ शुभचिंतको, दबले जुबान से सही, कहत जरुर रहलें कि अगर लोक कवि बाजार का रंग में अतना ना रंगाइल रहतन आ बाजार का दबाव में अपना आर्केस्ट्रा कंपनी वाला शार्टकट का जगहा अपना बिरहे पार्टी के तवज्जो दिहले रहतन त तय तौर पर ऊ राष्ट्रीय कलाकार रहतन. ना त कम से कम तीजन बाई, बिस्मिल्लाह खान, गिरिजा देवी के स्तर के कलाकार त रहबे करतन. एहसे कम पर त उनुका के केहू रोकिये ना पवले रहीत. साँच इहे रहे कि बिरहा में लोक कवि के आजुवो कवनो जवाब ना रहे. उनुकर मिसिरी जइसन आवाज के जादू आजुवो ढेर सगरी असंगति आ विसंगति का बावजूद सिर चढ़ के बोलत रहे. आ एहू ले बड़ बाति ई रहे कि कवनो दोसर लोक गायक बाजार में तब उनुका मुकाबिले दूर दराज तक ना रहे. लेकिन अइसनो ना रहे कि लोक कवि से बढ़िया बिरहा भा लोक गीत वाला दोसर ना रहले. आ लोक कवि से बढ़िया गावे वाला लोग दू चारे गो सही बाकिर रहले जरुर. लेकिन ऊ लोग बाजार त दूर बाजार के बिसातो ना जानत रहले. लोको कवि एह बाति के सकारसु. ऊ कहबो करसु कि “बाकिर ऊ लोग मार्केट से आउट बा.” लोक कवि एकर फायदे का उठावत रहले बलुक भरपूर दुरुपयोगो करत रहले. दूरदर्शन, आकाशवाणी, कैसेट, कार्यक्रम, आर्केस्ट्रा हर जगहा उनुकरे बहार रहे. पइसा जइसे उनुका के अपना पँजरा बोलावत रहे. जाने ई पइसे के प्रताप रहे कि का रहे बाकिर गाना अब उनुका से बिसरत रहे. कार्यक्रमो में उनुकर साथी कलाकार हालांकि उनुके लिखल गाना गावसु बाकिर लोक कवि ना जाने काहे बीच बीच में दू चार गाना अपनहू गावल करसु. अइसे जइसे कवनो रस्म पूरा करत होखसु. गँवे-गँवे लोक कवि के भूमिका बदलल जात रहे. ऊ गायकी के राह छोड़ के आर्केस्ट्रा पार्टी के कैप्टन-कम-मैनेजर के भूमिका ओढ़ले जात रहसु. बहुत पहिले लोक कवि के कार्यक्रमन के उद्घोषक रहल दूबे जी उनुका के आगाहो कइले रहले कि़, “अइसे त एक दिन आप आर्केस्ट्रा पार्टी के मैनेजर बनि के रह जाएब.” बाकिर लोक कवि तब दुबे जी के ई बात मनले ना रहले. दुबे जी जवन खतरा बरीसन पहिले भाँप लिहले रहले ओही खतरा के भँवर अब लोक कवि के लीलत रहुवे. बाकिर बीच-बीच के विदेशी दौरा, कार्यक्रमन के अफरा-तफरी लोक कवि के नजर के अइसे तोपले रहुवे कि ऊ एह खतरनाक भँवर से उबरल त दूर एकरा के देखियो ना सकत रहले. पहिचानो ना पावत रहले. बाकिर ई भँवर लोक कवि के लीलत जात बा, ई उनुकर पुरनका संगी साथी देखत रहले. लेकिन टीम का बहरी हो जाये का डर से ऊ सब लोक कवि से कुछ कहत ना रहले, पीठ पाछा बुदबुदा के रह जासु.


फेरु अगिला कड़ी में



लेखक परिचय

अपना कहानी आ उपन्यासन का मार्फत लगातार चरचा में रहे वाला दयानंद पांडेय के जन्म ३० जनवरी १९५८ के गोरखपुर जिला के बेदौली गाँव में भइल रहे. हिन्दी में एम॰ए॰ कइला से पहिलही ऊ पत्रकारिता में आ गइले. ३३ साल हो गइल बा उनका पत्रकारिता करत, उनकर उपन्यास आ कहानियन के करीब पंद्रह गो किताब प्रकाशित हो चुकल बा. एह उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं” खातिर उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान उनका के प्रेमचंद सम्मान से सम्मानित कइले बा आ “एक जीनियस की विवादास्पद मौत” खातिर यशपाल सम्मान से.

वे जो हारे हुये, हारमोनियम के हजार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाजे, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास), बर्फ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित), आ सुनील गावस्कर के मशहूर किताब “माई आइडल्स” के हिन्दी अनुवाद “मेरे प्रिय खिलाड़ी” नाम से प्रकाशित. बांसगांव की मुनमुन (उपन्यास) आ हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे (संस्मरण) जल्दिये प्रकाशित होखे वाला बा. बाकिर अबही ले भोजपुरी में कवनो किताब प्रकाशित नइखे. बाकिर उनका लेखन में भोजपुरी जनमानस हमेशा मौजूद रहल बा जवना के बानगी बा ई उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं”.

दयानंद पांडेय जी के संपर्क सूत्र
5/7, डाली बाग, आफिसर्स कॉलोनी, लखनऊ.
मोबाइल नं॰ 09335233424, 09415130127
e-mail : dayanand.pandey@yahoo.com

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