लोक कवि अब गाते नहीं – ११

(दयानंद पाण्डेय के लिखल आ प्रकाशित हिन्दी उपन्यास के भोजपुरी अनुवाद)

दसवीं कड़ी में रउरा पढ़ले रहीं
सम्मान मिलला बाद अपना गाँवे चहुँपल लोक कवि के एगो पंडित के कहल नचनिया पदनिया के बात कतना खराब लागल रहे. बाकिर चेयरमैन साहब का समुझवला पर ऊ अपना मन के तोष दे दिहले रहले. अब पढ़ीं गाँव से लवटि के आइल लोक कवि के कहानी.


लखनऊ चहुँप के लोक कवि साँस लिहले. चेयरमैन साहब का घरे उतरले. जाके उनुका पत्नी के प्रणाम कइले. चेयरमैन साहब से फेर काल्हु भेंट करे के कहत उनुको गोड़ छू लिहले त चेयरमैन साहब गदगद हो के लोक कवि के गले लगा लिहलन. कहलन, “जीयत रहऽ आ एही तरे यश कमात रहऽ.” आगा जोड़लन, “लागल रहऽ एही तरे त एक दिन तोहरा के पद्मश्री, पद्मभूषणो में से कुछ ना कुछ भेंटा जाई.” उ सुन के लोक कवि के चेहरा पर जइसे चमक आ गइल. लपक के फेर से चेयरमैन साहब के गोड़ छू लिहले. घर से बहरी निकलि के अपना कार में बइठ गइलन. चल दिहलन अपना संघतियन का साथे अपना घर का ओरि.
रात के एगारह बज गइल रहे.
ओने लोक कवि घरे चललन. एने चेयरमैन साहब लोक कवि का घरे फोन कइलन त लोक कवि के बड़का लड़िका फोन उठवलसि. चेयरमैन साहब ओकरा के बतवलन कि “लोक कवि घरे चहुँपते होखी. हमरा किहाँ से चल दिहले बा.”
“एतना देरी कइसे हो गइल ?” बेटा चिंता जतावत पूछलसि, “हमनी का साँझही से इन्तजार करत बानी सँ.”
“चिंता के कवनो बाति नइखे. सम्मान समारोह का बाद तोहरा गाँवे चल गइल रहीं सँ. ओहिजा खूब स्वागत भइल लोक कवि के. मेहरारू सभ लोढ़ा ले ले के परीछत रहली सँ. बिना कवनो तर तइयारी के बड़हन स्वागत हो गइल. पूरा गाँव कइलसि.” चेयरमैन साहब बोलत रहले, “फोन एहसे कइनी हँ कि एहिजा तूहू लोग तनी टीका-मटीका करवा दीहऽ. आरती -वारती उतरवा दीहऽ.”
“जी चेयरमैन साहब. ” लोक कवि के बेटा कहलसि, “हमनी का पूरा तइयारी का साथे पहिलही से बानी सँ. बैंड बाजा तक मँगवा लिहले बानी सँ. ऊ आवें त पहिले !”
“बक अप !” चेयरमैन साहब कहले, “त रूकऽ, हमहू आवतानी.” फेर पूछलन, “केहू अउरी त ना नू आइल रहुवे ?”
“कुछ अफसरान आइल रहले. कुछ प्रेसोवाला लोग आ के चल गइल. बाकिर मोहल्ला के लोग बा. कई जने कलाकारो लोग बा, बैंड बाजा वाले बाड़न सँ, घर के लोग बा.”
“ठीक बा. तू बाजा बजवावल शुरू कर द. हमहू चहुँपते बानी. स्वागत में कवनो कोर कसर ना रहे के चाहीं !” ऊ कहले.
“ठीक बा चेयरमैन साहब.” कहि के बेटा फोन रखलसि. बहरी आइल आ बैंडवालन से कहलसि, “बजावल शुरू कर द लोग, बाबूजी आवत बाड़े.”
बैंड बाजा बाजे लागल.
फेर दउड़ के घर में जा के माई के चेयरमैन साहब के निर्देश बतवलसि आ इहो कि गाँवो में बड़हन धूम-धड़ाका भइल बा से एहिजो कवनो कोर-कसर ना रहि जाव. लोक कवि जब अपना घर का लगे चहुँपलन त तनी चिहुँकलन कि बिना बरात के ई बाजा-गाजा ! लेकिन बैंड वाले, “बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है” के धुन बजावत रहले आ मुहल्ला के चार छह गो लखैरा नाचत रहले.
ठीक अपना घर का सोझा उतरलन त बूझि गइलन कि माजरा का बा !
उनुकर धर्मपत्नी अपना दुनु पतोहियन आ मोहल्ला के कुछ औरतन का साथे सजल-धजल आरती के थरिया लिहले खाड़ रहली लोक कवि के स्वागत खातिर. लोक कवि के चहुँपते ऊ चौखट पर नरियर फोड़ली, बड़ा आत्मीयता से लोक कवि के गोड़ छूवली आ उनुकर आरती उतारे लगली. मुहल्लो का लोगो छिटपुट बिटोराये लागल.
गाँव जइसन भावुक आ भव्य स्वागत र ना भइल बाकिर आत्मीयता जरुर झलकल.
लोक कवि के संगी-साथी कलाकार नाचे लगलन. घर में पहिलही से राखल मिठाई बँटाये लागल. तबले चेयरमैनो साहब आ गइलन. लोक कवि के एगो पड़ोसी भागत-हाँफत अइलन, बधाई दे के बोललन, “बहुते बढ़िया रहल राउर सम्मान समारोह. हमार पूरा घर देखलसि. मुख्यमंत्री आ राज्यपाल का साथे रउरा के.”
“का आपहू सभे आइल रहली ओहिजा ?” लोक कवि अचकचात पूछलन, “लेकिन कइसे ?”
“हमनी का टीवी पर न्यूज में देखनी जा. ओहिजा ना गइल रहीं सँ.” पड़ोसी दाँत निपोरत कहले.
“रेडियो न्यूजो में रहल आपके समाचार.” एगो दोसर पड़ोसी बहुते मसोसत बतवले.
रात बेसी हो गइल रहल से लोग जल्दी-जल्दी अपना घरे जाये लागल.
बैंडो-बाजा बन्द हो गइल.
खा-पी के पोता-पोती के दुलरावत लोको कवि सूते चल गइलन. धीरे से उनकर पत्नियो उनुका बिस्तर पर आ के बगल में लेट गइली. लोक कवि अन्हार में पूछबो कइलन, “के हऽ ?” त ऊ धीरे से फुसफुसइली, “केहू नाईं, हम हईं.” सुन के लोक कवि चुपा गइलन.
बरीसन बाद ऊ लोक कवि का बगल में आजु एह तरह लेटल रहली. लोक कवि गाँवे का बात शुरु कर दिहलन त पत्नी उठ के हाँ हूँ करत उनुकर गोड़ दबावे लगली. गोड़ दबवावत-दबवावत पता ना लोक कवि के का सूझल कि पत्नी के पकड़ के अपना नियरा खींच के सूता लिहलन. बहुते बरीस का बाद आजु ऊ पत्नी का साथ “सूतत” रहले. चुपके-चुपके. अइसे जइसे कि सुहागरात वाली रात होखे. गुरुवाइन के ऊ “सूतल” सुख देके संतुष्टे ना परम संतुष्ट कर दिहले. सगरी सुख, सगरी तनाव, सगरी सम्मान ऊ गुरुवाइन पर उतार दिहले आ गुरुवाइनो आपन सगरी दुलार, मान-प्यार, भूख-प्यास आत्मीयता में सान के उड़ेल दिहली. “सूतला” ला थोड़ देर बाद ऊ लोक कवि का बाँहन में पड़ल कसमसात आपन संकोच घोरत बोलली, “टीवी पर आजु हमहूं आपके देखलीं.” फेर जोड़ली, “बड़का बेटउआ देखवलसि !”
सबेरे गुरुवाइन उठली त उनुका चाल में गमक आ गइल रह. उनुकर दुनु पतोहिया जब उनुका के देखली सँ, उनुकर बदलल चाल देखली सँ स दुनु अपने में आँख मारत एक दोसरा के संदेश “दे” आ “ले” लिहली सँ. एगो पतोहिया मजा लेत बुदबुदइबो कइलसि, “लागत जे पाँच लाख रुपयवा इहे पवलीं हईं.”
“मनो अउर का !” दोसरकी पतोह खुसफुसा के हामी भरलसि. बोलल, “पता ना कतना बरिस बाद जोरन पड़ल बा !”

सबेरे अउरियो कई लोग लोक कवि के घरे बधाई देबे अइले.
हिंदी अखबारो में पहिला पन्ना पर लोक कवि के मुख्यमंत्री आ राज्यपाल का साथे सम्मान लेत फोटो छपल रहे. दू गो अखबार में त रंगीन फोटो ! साथही रिपोर्टो. हँ अंगरेजी अखबारन में फोटो जरुर भीतर का पन्ना पर रहल रिपोर्ट का बिना.
लोक कवि के फोनो दनादन घनघनात रहे.
लोक कवि नहा धोआ के निकललन. मिठाई खरीदलन आ पत्रकार बाबू साहब का घरे चहुँपलन. उनुका के मिठाई दिहलन, गोड़ छूवलन, आ कहलन, “सब आपही के आशीर्वाद से भइल बा.” बाबू साहब घर पर रहले, पत्नी सोझा रहली से कुछ कटु ना बोललन. बस मुसुकात रहले.
लेकिना रास्ता पर ना अइलन, जइसन कि लोक कवि चाहत रहले.
लोक कवि त चाहत रहले कि एह सम्मान का बहाने एगो प्रेस कांफ्रेंस कर के पब्लिसिटी बिटोरल. चाहत रहलन स्पेशल इंटरव्यू छपवावल. सब पर पानी पड़ गइल रहे. चलत-चलत ऊ बाबू साहब से कहबो कइले, ” त साँझी खा आईं ना !”
“समय कहाँ बा ?”कहि के बाबू साहब टार दिहलन लोक कवि के. काहे कि निशा तिवारी के ऊ अपना मन से अबही ले टार ना पवले रहन.
लोक कवि चुपचाप चल अइलन.

बाद में आखिरकार चेयरमैने साहब दुनु जने का बीच पैच अप करवले. बाबू साहब प्रेस कांफ्रेंस के सवाल त रद्द कर दिहलन, कहलन कि “बासी पड़ गइल बा इवेंट.” लेकिन लोक कवि के एगो ठीक-ठाक इंटरव्यू जरुर कइलन.
रियलिस्टिक इंटरव्यू.
बहुते मीठ आ तीत सवाल पूछलन. आ पूरा विस्तार से पूछलन. कुछ सवाल साँचहू बड़ा मौलिक रहली सँ आ जबाब उनुका सवालो से बेसी मौलिक.
लोक कवि जानत रहले कि बाबू साहब उनुकर कुछ नुकसान ना करीहन से बेधड़क हो के जबाब देसु. फेर गोड़ छू के कहियो देसु कि “एकरा के छापब मत !”
जइसे कि बाबू साहब लोक कवि से पूछले कि “जब आप एतना बढ़िया लिखीले आ मौलिक तरीका से लिखीले त कवि सम्मेलनन में काहे ना जाईं ? तब जबकि रउरा के लोक कवि कहल जाला.”
“ई कवि सम्मेलन का होखेला ?” लोक कवि खुल के पूछलन.
“जहवाँ कवि लोग आपन कविता जनता का बीचे सुनावेले, गावेले.” बाबू साहब बतवले.
“अच्छा अच्छा समुझ गइनी.” लोक कवि कहले, “समुझ गइनी. ऊ रेडियो टीवीओ पर आवेला.”
“त फेर काहे ना जाईं आप ओहिजा ?” बाबू साहब के सवाल जारी रहे, “ओहिजा बेसी सम्मान, बेसी स्वीकृति मिलीत. खास कर के रउरा राजनितिक कवितन के.”
“एक त एह चलते कि हम कविता नाहीं गीत लिखीले. एह मारे ना जाइले. दोसरे हमरा के कबो बोलावलो ना गइल ओहिजा.” लोक कवि जोड़ले, “ओहिजा विद्वान लोग जाला, पढ़ल-लिखल लोग जाला. हम विद्वान हईं ना, पढ़लो-लिखल ना हई. एहू नाते जाये के ना सोचीला !”
“लेकिन रउरा लिखला में ताकत बा.बात बोलेला रउरा लिखले में.”
“हमरे लिखले में ना, हमरे गवले में ताकत बा.” लोक कवि साफ-साफ कहले, “हम कविता ना लिखीं, गाना बनाइले.”
“तबो, का अगर रउरा के कवि सम्मेलन में बोलावल जाव त आप जाएब ?”
“नाहीं. कब्बो ना जाएब.” लोक कवि हाथ हिलावत मना करत बोललन.
“काहे ?” पत्रकार पूछले,”काहे ना जाएब आखिर ?”
“ओहिजा पइसा बहुते थोड़ मिलेला.” कहि के लोक कवि सवाल टारल चहले.
“मान लीं कि रउरा कार्यक्रमन से बेसी पइसा मिले तब ?”
“तबो ना जाएब।”
“काहे ?”
“एक त कार्यक्रम से बेसी पइसा मिली ना, दोसरे हम गवईया हईं, कविता वाला विद्वान ना.”
“चलीं मान लीं कि रउरा के विद्वानो मान लिहल जाव आ पइसो बेसी दिहल जाव तब ?
“तबहियो ना.”
“अतना भागत काहे बानी लोक कवि कवि सम्मेलनन से ?”
“एहसे कि हम देखले बानी कि ओहिजा अकेले गावे पड़ेला, त हमरो अकेले गावे के पड़ी. संगी साथी होखिहन ना, बाजा-गाजा होई ना. बिना संगी-साथी, बाजा-गाजा के त हम गाइये ना पाएब. आ जे कहीं गा दिहलीं अकेले बिना गाजा-बाजा त फ्लॉप हो जाएब. मार्केट खराब हो जाई.” लोक कवि बाति अउरी साफ कइलन कि, “हम कविता नाहीं गाना गाइले. धुन में सान के, जइसे आटा सानल जाले पानी डाल के. वइसहीं हम धुन सानीले गाना डाल के. बिना एकरे त हम फ्लॉप हो जाएब.”
“गजब ! का जबाब दिहले बानी लोक कवि रउरा.” बाबू साहब लोक कवि से हाथ मिलावत कहले.
“लेकिन एकरा के छापब मत.” लोक कवि बाबू साहब के गोड़ छुवत कहले.
“काहे ? एहमे का बुराई बा ? एहमें त कवनो विवादो नइखे.”
“ठीक बा, बाकिर विद्वान लोग बिना मतलब नाराज हो जाई.”
“काहे कि उहो लोग इहे करत बा जवन कि आप करत बानी एहसे ? एहसे कि ऊ लोग इहे काम कर के विद्वानन का पाँति में बइठ जात बा, आ इहे काम करि के रउरा गवईयन का पाँति में बइठ जातानी एहसे ?” बाबू साहब कहले, “लोक कवि राउर ई टिप्पणी एह कवियन के एगो कड़ेर झापड़ बा. झापड़ो ना बलुक जूता बा.”
“अरे ना ! ई सब नाहीं.” लोक कवि हाथ जोड़ के कहले, “ई सब छापब मत.”
“अच्छा जे ई ढपोरशंखी विद्वान रउरा एह टिप्पणी से नाराजे हो जइहे त का बिगाड़ लीहें ?”
“ई हमरा नइखे मालूम. बाकिर विद्वान हवे लोग, बुद्धिजीवी हवे, समाज के इज्जतदार लोग हवे. ओह लोग के बेईज्जती ना होखे के चाहीं. ओह लोग के इज्जत कइल हमार धर्म ह.”
“चलीं, छोड़ीं.” कहि के पत्रकार बात आगा बढ़ा दिहले. लेकिन बात चलत चलत फेर कहीं ना कहीं फँस जाव आ लोक कवि हाथ जोड़त कहसु, “बाकिर ई छापब मत.”
एही तरे चलते फँसत बात एक जगहा फेर दिलचस्प हो गइल.
सवाल रहुवे कि, “जब आप अतना स्थापित आ मशहूर गायक हईं त अपना साथे दुगाना गावे खातिर एतना लचर गायिका काहे राखेनी ? सधल गायकी में निपुण कवनो गायिका का साथे जोड़ी काहे ना बनाईं ?”
“अच्छा..!” लोक कवि तरेरत बोललन, “अपना ले नीमन गायिका का साथे दुगाना गाएब त हमरा के के सुनी भला ? फेर त ओह गायिका के बाजार बन जाई, हम त फ्लॉप हो जायब. हमरा के फेर के पूछी ?”
“चलीं नीमन गावे वाली ना सही. पर थोड़ बहुत ठीक ठाक गावे वाली बाकिर खूबसूरत लड़िकी त अपना साथे गावे खातिर रखिये सकीले आप ?”
“फेर उहे बाति !” लोक कवि मुसुकात तिड़कले, “देखत बानी जमाना एतना खराब हो गइल बा. टीम में लड़िकी ना राखीं त केहू हमार परोगराम ना देखी, ना सुनी. आ सोना पर सुहागा ई कर दीं कि अपना साथे गावे वाली कवनो सुन्दर लड़िकी राख लीं !” ऊ बोललन, “हम त फेर फ्लॉप हो जायब. हम बूढ़वा के के सुनी, सब लोग त ओह सुन्दरी के देखही में लाग जाई. बेसी भइल त गोली-बनूक चलावे लगीहें लोग !” ऊ कहले, “त चाहे देखे में सुन्दर भा गावे में बहुते जोग, हमरा साथे ना चल पाई. हमरा त दुनु मामिला में अपना से उनइसे राखे के बा.”
कहे के त लोक कवि साफ-साफ कहि गइलन लेकिन फेरु पत्रकार के गोड़े पड़ गइलन. कहे लगलन, “एकरो के मत छापब.”
“अब एहमें का हो जाई ?”
“का हो जाई ?” लोक कवि कहले, “अरे बड़हन बवाल हो जाई. सगरी लड़िकी नाराज हो जइहे सँ.” ऊ कहले, “अबहीं त सभका के हूर के परी बताइले. बताइले कि हमरा से नीमन गावे लू. बाकिर जब सब असलियत जान जइहें सँ त कपार फोड़ि दीहें स हमार. टूट जाई हमार टीम. कवन लड़िकी भला तब आई हमरा टीम में ?” लोक कवि पत्रकार से कहले, “समुझल करीं. बिजनेस ह ई हमार ! टूट गइल त ?”
त एह तरह कुछ का तमाम कड़ुआ बाकिर दिलचस्प सवालन के जबाबन के काट-पीट के लोक कवि के इंटरव्यू छपल, फोटो का साथ.
एहसे लोक कवि के ग्रेसो बढ़ गइल आ बाजारो !

अब लोक कवि का कार पर उनुका सम्मान के नाम के प्लेट जवन ऊ पीतल के बनववले रहले, लाग गइल रहुवे. बिल्कुल मंत्री, विधायक, सांसद, कमिश्नर, डीएम, भा एसपी के नेमप्लेट का तरह.
लोक कवि के कार्यक्रमो एने बढ़ गइल रहे. अतना कि ऊ सम्हार ना पावत रहले. कलाकारन में से एगो हुसियार लउण्डा के ऊ लगभग मैनेजर बना दिहले. सब इंतजाम, सट्टा-पट्टा, आइल-गइल, रहल-खाइल, कलाकारन के बुकिंग, ओकनी के पेमेंट लगभग सगरी काम ऊ ओहि कलाकार कम मैनेजर के सँउप दिहले रहन.
किस्मत सँवर गइल रहे लोक कवि के. एही बीच उनुका के बिहारो सरकार दू लाख रुपिया के सम्मान से सम्मानित करे के घोषणा कर दिहलसि. बिहारो में एगो यादव मुख्यमंत्री के राज रहल. यादव फैक्टर ओहिजो लोक कवि के कामे आइल. साथही बिहारो में उनुकर कार्यक्रमन के मांग बढ़ गइल.
चेयरमैन साहब अब लोक कवि के रिगइबो करस कि, “साले, अब तू आपन नाम एक बेर फेर बदलि ल. मोहन से लोक कवि भइल रहऽ आ अब लोक कवि से यादव कवि बनि जा.”
जबाब में लोक कवि कुछ कहसु ना बस भेद भरल मुसुकी फेंक के रहि जासय. एक दिन ओही पत्रकार से चेयरमैन साहब कहे लगलन कि़ “मान ल लोककविया के किस्मत अइसहीं चटकत रहल त एक ना एक दिन हो सकेला कि इनका पर रिसर्चो होखे लागो. यूनिवर्सिटी में पीएच॰डी॰ होखे लागे इनका बारे में.”
“हो सकेला, चेयरमैन साहब बिल्कुले हो सकेला.” चेयरमैन साहब के मजाक के वजन बढ़ावत बाबू साहब कहले.
“त एगो विषय त एह लोक कवि पर पीएच॰डी॰ में सबले बेसी पापुलर रही.”
“कवन विषय ?”
“इहे कि लोक कवि का जीवन में यादवन के योगदान !” चेयरमैन साहब तनी तफसील में आवत बोलले, “एकर सबले पहिली ४४० वोल्ट वाली प्रेमिका यादव, एकर सबले पहिला गाना बनल यादव प्रेमिका पर, ई सबसे पहिले “सूतल” यादव लड़िकी का संगे, एकर पहिला लड़िका पैदा भइल यादव मेहरारू से.” चेयरमैन साहब कहत गइले, “पुरस्कार त एकरा बहुते मिलल बाकिर सबले बड़ आ सरकारी पुरस्कार मिलल त यादव मुख्यमंत्री का हाथे, फेर दोसरको सरकारी पुरस्कार यादवे मुख्यमंत्री का हाथे. अतने ना, आजुकाल्हु कार्यक्रमो जवन खूब काट रहल बा उहो यादवे समाज में.” चेयरमैन साहब सिगरेट के लमहर कश खींचल कहले, “निष्कर्ष ई कि यादवन के मारतो ई यादवन के राजा बेटा बनि के बइठल बा.”
“ई त बड़ले बा चेयरमैन साहब !” बाबू साहब मजा लेत कहले.
बाकिर लोक कवि हाथ जोड़ले आँखि मूंदले अइसन बइठल रहले कि मानो प्राणायाम करत होखसु.


फेरु अगिला कड़ी में


लेखक परिचय

अपना कहानी आ उपन्यासन का मार्फत लगातार चरचा में रहे वाला दयानंद पांडेय के जन्म ३० जनवरी १९५८ के गोरखपुर जिला के बेदौली गाँव में भइल रहे. हिन्दी में एम॰ए॰ कइला से पहिलही ऊ पत्रकारिता में आ गइले. ३३ साल हो गइल बा उनका पत्रकारिता करत, उनकर उपन्यास आ कहानियन के करीब पंद्रह गो किताब प्रकाशित हो चुकल बा. एह उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं” खातिर उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान उनका के प्रेमचंद सम्मान से सम्मानित कइले बा आ “एक जीनियस की विवादास्पद मौत” खातिर यशपाल सम्मान से.

वे जो हारे हुये, हारमोनियम के हजार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाजे, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास, बर्फ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह, सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां, प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित, आ सुनील गावस्कर के मशहूर किताब “माई आइडल्स” के हिन्दी अनुवाद “मेरे प्रिय खिलाड़ी” नाम से प्रकाशित. बांसगांव की मुनमुन (उपन्यास) आ हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे (संस्मरण) जल्दिये प्रकाशित होखे वाला बा. बाकिर अबही ले भोजपुरी में कवनो किताब प्रकाशित नइखे. बाकिर उनका लेखन में भोजपुरी जनमानस हमेशा मौजूद रहल बा जवना के बानगी बा ई उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं”.

दयानंद पांडेय जी के संपर्क सूत्र
5/7, डाली बाग, आफिसर्स कॉलोनी, लखनऊ.
मोबाइल नं॰ 09335233424, 09415130127
e-mail : dayanand.pandey@yahoo.com

1 Comment

  1. kiran

    आदरणीय दयानंद पांडेय जी
    प्रणाम !
    “लोक कवि अब गाते नहीं” के हर कड़ी मजेदार आ रोमांचक बा .हम त चस्का ले ले के खूब पढ़त बानी. राउर हर कड़ी के बड़ी बेसब्री से इंतजार करीला .बड़ा रोचक पूर्ण उपन्यास बा राउर .
    धन्यवाद !
    ओ.पी.अमृतांशु

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