आवऽ लवटि चलीं जा! -6

डा॰ अशोक द्विवेदी के लिखल उपन्यास अँजोरिया में धारावाहिक रुप से प्रकाशित हो रहल बा.

छठवाँ कड़ी

चौधरी के चरवाही बीरा के जिनिगी बदलि दिहलस. ऊ पनवा से लम्मा रहलन त ओकर रूप का खिंचाव में बन्हाइल रहलन. जब निगिचा अइलन त रूप के दवँक उनका दिल-दिमाग दूनों के तपाइ के निखारि दिहलस. अब हाल इ रहे कि टोला-महल्ला, समाज केहू के परवाह ना ना रहि गइल उनुका.

का जाने कइसन आन्ही आइल आ उनके उड़ा ले गइल. बीरा गंगा जी का अरार पर बइठि का इहे सोचत रहलन. रूप आ प्रेम के खिंचाव पर, उनकर दसा का से का हो गइल। कवन-कवन अछरंग ना लागल? सब थुड़ी-थुड़ी करऽता, तेवन एकोर, चउधरी कतना दुखी बाड़न? पनवा के बिदाई खातिर ओकरा ससुरा के लोग अलगे उनकर मूड़ी जँतले बा. आ पनवा बिया कि ओकरा कुछू के परवाहे नइखे. काल्हिए से फेंटले बिया, 'चलऽ इ गाँव छोड़ि के कहीं लम्मा भागि चलीं जा.'

कहाँ भागि चलीं? आजु ले कहीं बहरा गइलीं ना. गाँव के ढेर लोग कलकत्ता बा लोग. आसाम में उनकर एगो संघतिया बा. बाकिर इ सोचला से फायदा का? बीरा का भीतर तनाव अउरी बढ़ि गइल. दिमाग में पनवा के निहोरा गूंजे लागल 'हम तहरा बिना एको छन ना जीयब. ढेर तंग करबऽ त माहुर खा लेब.'

का जाने कवन मोह बा ओकरा से कि छोड़लो नइखे बनत आ छोड़ि दिहला पर जियलो कठिन बूझाता. 'का, का ना भइल बीरा? चउधुर मारे परलन, गांव थुथुकारल, भाई गरियवलस, पंच डंड धइलस ........ पनवां तूँ जीये ना देबे हमरा के!' ऊ तनी जोर से कहलन. गंगा के लहर उछाल मारत आइल आ नीचे अरार से टकराइ के छितरा गइल. सुरूज के किरिन तेज हो गइली सन. घाम तिखवे लागे लागल त बीरा कपारे अंगौछी बान्हि लिहलन. लहरि एक हालि फेरू आइल आ अरार से लड़ि के छिटअ गइल 'बदरकट्टू घाम सचहूं बड़ा तिक्खर होला!' उ बुदबुदइलन.

बीरा के एक लट्ठा पाछा ले दरार परि गइल. बाकिर अपनेमें गुमसुम, कहानी बनत, बीरा के इचिको खबर ना रहे. कहानी बढ़ल जात रहे. लहरि जब चले त बुझाव कि कवनो ओकर कूलहि घाव सहि के ओके छीटि देत रहे.

'लड़ऽसन! खूब लड़ऽसन!!' बीरा जोर से कहलन. फेरु जइसे मन परल 'हमहूँ अइसहीं नू बानीं. एही अरार लेखा. सभ चोट सहि के घठाउर हो गइल बानीं!' बीरा के का पता कि सांचो उ अरार पर बइठि के अरारे हो गइल बाड़न आ उनका के भीतरे-भीतर काटत जाता. कब एगो कड़ेराह धक्का लागी आ ऊ ढहि जइहें? ई खुद उनहीं के नइखे पता. मन में बवंडर चलत रहे आ तनिको थम्हे पटाये के नाँव ना लेत रहे.

पाछा के दरार धीरे-धीरे ढेर फइल गइल. दू चार बार धक्का के अवरू देरी रहे. पनवा फेरु मन परल. बीरा का भीतर जइसे ऊखि के एक मूट्ठी पतई जरि गइल. आंच गर ले चढ़ि आइल. उ अपना हालत पर मुस्किअइलन. सूखल हँसी फेफरिआइल ओठ पर फइल गइल. 'दुर मरदे! तोरा ले बरियार करेजा त पनवा के बा! मेहरारु होइके अडिग. सगरो बवाल, सगरो दुतकार के जवाब दु टूक, 'हँ बीरा हमार कूल्हि ऋउवनि!' 'वाह रे पनवा.' अनासो उनका मुँह से निकलि गइल.

दरार अउर फइल गइल. बीरा के का पता कि सोझा से मार करत लहरन के गिरोह अब अपना सफलता का जोस में आखिरी बेर आव तिया. लहरि आइल आ कगरी के माटी हंढ़ोरि के लवटि गइल. उनुका तब बुझाइल जब पनवा झकझोर के उठवलस 'भँउवाइल बाड़ऽ का? एने दरार फइलल जाता आ तहरा कुछ फिकिरे नइखे?' पाछा देखते उ चिहा गइलन. झट से पनवा के फनवलन आ पाछे अपनहूं पार भइलन. अरार थसकल आ एक बएक भिहिला के लहरनमें समा गइल. हँड़ोरइला से ओतना दूर के पानी कुछ अउरी मटिया गइल.

पनवा दूनूं हाथ छाती पर धइले अब ले हांफत रहे. सांस थमल त बोलल, 'आज त तूं हमार जाने ले लेले रहितऽ! कहऽ कि हम उबिया के कवनो बहाना से, एने चलि अइनीहां. जान तारऽ उ दुआरे आके बइठल बाड़न स. बाबू बिदाई के तइयारी कर तारन. हम उनका के कहि सुनि के थाक गइलीं हां. अइनी हां त आपन जान देबे, बाकिर अचके में तहरा पर नजरि परि गइल हा.' पनवा उनका छाती में समा के सुसुके लागल. बीरा कातर हो के ऊकर पीठ सुहुरावे लगुवन. 'पागल अभिन हम जियते नु बानीं.हमरा रहते तें जान देबे. चलु आज तोरे बात रही. तु कहत न रहले हा कि चलऽ कहीं लम्मा भागि चलीं जा. हम तैयार बानीं. जहाँ कहबे तहाँ चलब.' भाववेग में ऊ कहते चलि गइलन. पनवा के हालत उनके फैसला करे के जइसे शक्ति दे देले रहे.

पनवा आपन भींजल पलक उठवलसि, ओकरा जइसे बीरा पर बिसवास ना भइल. ॡुचलस, 'संचहू?' 'हँ रे, सांच ना त जूठ!' बीरा ओके परतीति दियवलन. पनवा खुशी में मकनाइल, लपटा गइल बीरा से......... . जइसे फेंड़ में बँवर लपटे, ओकर हाथ बीरा के बान्हि लिहलस. नदी जइसे समुद्र में मिलि के अपना के भुला देले, ओघरी ओकरा किछऊ के चेत ना रहे. ना दीन के ना दुनिया के. बीरा टोकलन, ' अड़े तोरा नीक जबून किछऊ बुझाला कि ना? केहु देखी त का कही?' पनवा अलगा हो गइल. ओकरा फीका मुसकान में सगरी समाज के प्रति उपेक्षा के भाव रहे.