लघुकथा संग्रह थाती

एह संग्रह में पचपन गो लघुकथा बाड़ी स. सगरी संग्रह एक एक क के प्रकाशित कइल जाई.

भगवती प्रसाद द्विवेदी

त्रिशंकु

सबेरे जब पता चलल कि मुहल्ला के सुरक्षा बेवस्था खातिर एगो समिति के गठन कइल गइल हा, त हम अपना के रोकि ना पवली आ सचिव पद खातिर मनोनीत अपना मकान मालिक का लगे चहुँपली, 'सिन्हा जी सुने में आइल हा जे रउआँ सभे काल्ह सांझी खा मुहल्ला के लोगन के जान माल के हिफाजत खातिर एगो समिति के गठन कइनीं हां, बाकिर हमरा के रउआं सभ बोलइबो ना कइनी?'

'आरे भाई, रउआँ अस किराएदार लोगन के का ठेकाना!' सिन्हा जी हमरा के समुझावे का गरज से कहलन, 'आजु इहां बानीं. कालह मुहल्ला छोड़ि के दोसरा जगह चलि जाइब. एह मुहल्ला के स्थायी नागरिक रहितीं त एगो बात रहित!' हम भीतरे भीतर कटि के रहि गइलीं.

अबहीं बतकही चलते रहे, तलहीं गांव से पठावल आजी के मुअला के तार मिलल आ हम बोरिया बिस्तर बान्हि के गांवे रवाना हो गइलीं.

आजी के सराध के परोजन से छुटकारा पवला का बाद एक दिन परधान जी के चउतरा का ओरि टहरत गइलीं त देखलीं कि मंगल मिसिर के एह से कुजात छाँटल जात रहे काहे कि ऊ अपना जवान बेवा बेटी के फेरु से हाथ पियर करे जात रहलन.

'पंच लोग! रउआँ सभे ई अनेत काहें करे जा रहल बानीं?' अबहीं हम आगा बोलहीं के चाहत रहलीं कि परधान जी हमरा के डपटि के हमार बोलती बन क दिहलन, 'तूं कवन होखेलऽ एह ममिला में दखल देबे वाला? अपना शहर में ई शेखी बघरिहऽ! ई गांव के ममिला हऽ, बुझलऽ?'

रउएँ बताईं, हम अपना के गँवई सनुझी आ कि शहरी?


भगवती प्रसाद द्विवेदी, टेलीफोन भवन, पो.बाक्स ११५, पटना ८००००१