– अरविन्द ‘अकेेला’
पिया मोर गइलेें बिदेेस, लवटि घर अबहीं ना अइलेें
बसलेें सवतिया के देस, लवटि घर अबहीं ना अइलेें
चढ़त चइत चित्त चिहुकि के जागेे
बीतत बइसाख मन भटकन लागेे
पवलीं ना एकहू सनेस, लवटि घर अबहीं ना अइलेें.
जेठवा आसाढ़ तपे दिन दुपहरिया
धरती आकास जरे ओरिया बँड़ेरिया
दिन राति बढ़ऽता कलेस, लवटि घर अबहीं ना अइलेें.
चिठियो ना पाती बीतल जाला सवनवाँ
कजरी ना झूमर उचटि रहे मनवाँ
भादो घर लागेे भदेस, लवटि घर अबहीं ना अइलेें.
कातिक, कुआर गइल आइल अगहनवा
पूस माघ बीतल कइसो चढ़ल बा फगुनवा
उठेला हियरा अनेस, लवटि घर अबहीं ना अइलेें.
हे काली माई कइसो छोह बढ़िआइत
दरद अकेला दिल के कोह मेटि जाइत
बिरहिन केे बिरह बिसेस, लवटि घर अबहीं ना अइलेें.
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