– डा. कुमार नवनीत
काठ करेजी भईल समईया
पल पल बदलत दाव,
बिछिलायीं जनि, धरीं थहा के
आपन एकहक पाँव।
सभ धवते बा, आप न धाईं
सगरी सपना बेंचि न आईं
मोल न कवनो मोल बिकाला,
जहवाँ रहीं इहे सरियाईं
आईं आपन छान्हि छवाईं
तेजि महलिया ठाँव।
ऊहवाँ कहाँ चूल्हि-चुहानी
साँझि क गम्मज, मीठी बानी
चह-चह चिरइन के सुर-संगम
जेठ दुपहरी हवा सुहानी
बिसुरि न जाईं, तनि पतियाईं
बाग़ बगइचा छाँव।
सुन्न मड़इया अँहकत रोवै
अँसुवन से अँचरा के धोवै
ठूँठे बीरिछ बिनु पतई के
भलहीं ठाढ़ तबहुँ ना सोवै
राम-रहारी के जन तरसे
उजरल-पुजरल गाँव।
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