डॉ. रामरक्षा मिश्र विमल के डायरी
रसियाव खाईं आ टन-टन काम करत रहीं
आजु स्टाफ रूम में अपना गीत के एगो लाइन गुनगुनात रहीं-
“ननदी का बोलिया में बने रसियाव रे.
सरगो से नीमन बाटे सइँया के गाँव रे.“
साहा सर के जिग्यासा पर चर्चा शुरू हो गइल कि “रसियाव का हटे.” खीर के पुरान रूप कहिके ओकराके गइल-बीतल बतावल जात रहे. हमरा ई जमल ना. पहिले के बात आ परंपरा सभ आउटडेटेड कइसे हो जाई भाई ? चाउर में गुर डालिके सिंझावल जात रहे, ओमें दूध ना डलाइ. एकरे के रसियाव कहल जात रहे. सभसे बड़ आपत्तिजनक बात रहे ओह घरी दूध का अभाव के. अब ई कइसे मानि लिहल जाव ? आजु भलहीं गाँवो में दूध मिलल कठिन हो गइल बा, बाकिर पहिले त स्थिति उल्टा रहे. पहिले दूध-दही के कहाँ कमी रहे ? हम आपन पक्ष रखलीं आ कहलीं कि छठि में त खीर ना रसियावे के महातम हटे. अब त मिसिर जी बमकि गइले. ई कइसे रउँआ कहि सकींले ? गोस्वामीजी ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में रमल रहन. बन्न कइके ऊहो रस लेबे लगलन. हम कहलीं कि भाईजी हमार बचपन गाँवे में गुजरल बा. खरना में हम कबो खीर नइखीं देखले. हमनी किहाँ त रसियावे बनत रहे. जब बाहर–भीतर निकले-पइसे लगलीं त खिरियो (खीर भी) मिले लागल. हमरा त बुझाता कि लोग देखादेखी आ लोकापवाद से बाँचे खातिर खीर चला दिहले नाहीं त परंपरा रसियावे के बा.
हमरा यादि बा, खरना में पहिल बार खीर खइले रहीं बोकारो थर्मल में त्रिपाठी जी किहाँ, बाकिर अलगा से प्लेट में परसाद कहिके जवन दिहल गइल रहे ऊ रसियाव रहे. ऊ परिवार आधुनिक रहे बाकिर परंपरा के भरपूर सम्मानो रहे ओहिजा. आँखि मूदिके कुछऊ सँकारे भा टरकावेवाला काम ओहिजा ना होत रहे. बड़ से बड़ आ छोट से छोटो बात पर जमिके बहस होई, सूक्ष्म बहस होई. हम कहलीं कि अभाव के बात त भुलाइए जाईं सभे. एकरा पीछे बिग्यान बा. दूध खाइ-पीके आराम करेके हटे. एहीसे दूध पीके जतरा ना कइल जाला. चिकित्सा बिग्यान का अनुसार बच्चन खातिर त ई ठीक हटे बाकिर बड़ लोग के सुपाच्य ना होखे. हमनी किहाँ बरती खा-पीके आराम ना करेलिन, आपन मए कामो निपटावत रहेलिन. ओइसहूँ बइठियो के रहेके होखे तबो दूधवाली खीर नुकसाने पहुँचाई, भलहीं बुझाउ भा नाहीं. रसियाव खाईं आ टन-टन काम करत रहीं, देंहि हलुक लागेले. लउकियो-भात का पाछा ईहे बिग्यान बा. गैस आ एसिडिटी खातिर लउकी रामबाण हटे. भात से गैस बनी आ लउकी ओकराके फरकावत रही आउर ऊर्जो बनल रही. धन्य रहन हमार पूर्वज, बात-बात में बिग्यान. हम त आजुओ कहबि कि लजाईं सभे मति कि रसियाव देखिके लोग रउँआ के गरीब आ पुरान बूझे लगिहें. लउकी-भात आ रसियाव के परंपरा के जिंदा रहे दिहल जाव. एही प लउकजाबरि, अलुमकुनी, गादा के दालि, महुआ के लाटा, बजड़ा आ जोन्हरी के चिउरी, साँवा के भाका, टाङुनि के लाई आ दरिया-दही पर बात चले लागल आउर हमार कुछ बंगाली मित्र कबो अचरज से आ कबो भकुआ के हमनीके देखे लगलन.
भोजपुरी के पहिचान
बाते बात में हमरा मुह से ‘फेड़’ निकलि गइल. सेन सर हँसले- ई फेड़ का हटे ? हम कहलीं कि हिंदी में पेड़ आ भोजपुरी में फेड़. भोजपुरी महाप्राण भाषा हटे. फेड़ माने झङाठ पेड़, बाकी सभ गाँछ-बिरिछ. ऊ चकइले आ कहले कि एहीसे नु भोजपुरिया लोग बरियार होलन. जब हम कहलीं कि भोजपुरी में ‘हाथी’ स्त्रीलिंग हटे आ ओकर पुलिंग रूप ‘हाथा’ त खूब जोर के हँसी भइल. हम कहलीं कि अतने ना हथंगो (हथंग भी) बाटे. अब कइसे बताईं कि भलहीं हमनी खातिर हिंदी लिखल-बोलल अब आसान हो गइल बा बाकिर भोजपुरी में सभ कुछ हिंदिए नियन ना होखे. हिंदी में ‘दही’ शब्द भलहीं पुलिंग होखे बाकिर भोजपुरी में स्त्रीलिंग बाटे, ई अलग बात बा कि दही पीयल ना जाय, सरपोटल जाले. एह तरह के अंतरे त भोजपुरी के पहिचान बा. आज-काल्हु लोगन का लागे लागल बा कि पहिले के लोग अनपढ़ रहन एहसे कहत रहन कि “आटा पिसावे जातनी, सातू पिसावे जातनी.” एहीसे अब तथाकथित नया पीढ़ी अब गेहूँ आ बूँट पिसावे लागल बिया.
सूतल सनेह आके के दो जगा गइल
16 दिसंबर, 2016. काल्हुए व्हाट्सप पर एगो दुखद खबर मिलल रहे. आजु खोललीं त मन बइठि गइल. भोरहीं से आँखि पर कंट्रोल नइखे. ड्यूटी पर निकले के बा आ लेट हो रहल बा. कृपाशंकर उपाध्याय जी का चलि गइला से अइसन लागता जइसे भोजपुरी के एगो अध्याय बीत गइल. उहाँका लेखक ना रहीं, गायको ना आ नु रंगकर्मी बाकिर एह तीनों के उहाँसे जबर्दश्त ऑक्सीजन मिलत रहे, उहाँके जीवंत आ समरस क्रियाकलाप से पूरा समाज के ऊर्जा मिलत रहे. बलिया के बसुदेवा गाँव के रहीं आ पटना टेलिफोन भवन में काम करत रहीं. ससम्मान रिटायर हो गइल रहीं बाकिर हमरा से जब्बे मिलीं, कबो लगबे ना कइल कि रिटायर भइल बानी. ऊहे जज्बा, ऊहे जिंदादिली आ ऊहे दरियादिली. बरिसन बाद एह साल जून में कुछ दिन साथ रहेके मोका मिलल. मने ना होखे अलग होखेके. ‘फगुआके पहरा’ के दुसरका संस्करण में ऊहोंका आपन टिप्पणी दिहलीं, बहुत खुश होके. आजु जब उहाँके किताब भेंट कइके हमरा लागित जइसे हम जग जीत गइलीं, “बीत गइलीं” के खबर पर मन घुरियाइल बा. बिशवास नइखे होत आ करेजो डहकऽता. उहाँका गइला से हम अपना ताकत के एगो बड़हन हिस्सा खो देले बानी. ‘संसृति’ के दोसरका अंक के प्रकाशन से लेके लोकसंगीत के हमरा हर कार्यक्रम में उहाँके उपस्थिति कवनो ना कवनो रूप में जरूर रहल बिया. कॉलोनी के केहूके पीएमसीएच ले जा रहल बा लोग त अधरतियो खा काँचे नीनि से जगाके हमरा के उहाँका शामिल जरूर करत रहीं. व्यावहारिकता में अपने त अव्वल रहबे करीं, हमरो में ई गुन भरे से कबो चुकलीं ना. भोजपुर कॉलोनी के उहाँका जान रहीं, शान रहीं. आजु ओह नेह के दरियाव के इयाद से मन-प्राण भींज गइल बा. हमार एगो गजल उहाँके बहुत प्रिय रहे. आजु ओकर एगो शेर मन का जुबान पर त जइसे चिपकिए गइल बा –
“सूतल सनेह आके के दो जगा गइल.
जिनिगी में दरद के बा लहबर लगा गइल.”
उहाँके बार-बार परनाम करत हम सरधांजली दे रहल बानी.
बहुते नीक बा,एके पूरा कइल जाऊ
सप्रणाम धन्यवाद।
मिश्र जी ,
सादर नमस्कार ,
बड़ी निमन लागल राउर रसियाव .
जहाँ तक हमरा याद बा हमार माई रसियाब ईख के पेरल रस और चाउर से बनावत रही. ओकरा में गुड़ ना पडे . शायद ओकरा के रसजाउर भी कहल जाला.
लाउकी , चावल दूध में सींझा के मेथी के छौंका लगा दीं त लउकजाबर बन जाई .
परदेश में घर- गांव याद आ गोइल ;
धन्यवाद
कमल किशोर सिंह , अमेरिका
प्रणाम सिंह साहब,
मन अगरा गइल राउर टिप्पणी पढ़िके। अब हम जहाँ रसियाव के चर्चा करबि, रउरा से प्राप्त जानकारी भी ओमें समाविष्ट रही। रसजाउर शब्द हमरा खातिर नया बा। हम हेठारि के हईं,एह से ऊखि के रस में बनवला के अवधारणा ना रहे।
बहुत-बहुत धन्यवाद।
“सूतल सनेह आके के दो जगा गइल, राउर नीक-जबून नीके-नीके भा गइल। बहुत – बहुत बधाई।