भोजपुरी सिनेमा को गलत छवि से बाहर निकालने में जो कुछ लोग लगे हुए हैं, उनमें रंजू सिन्हा भी हैं. बिहार के सीतामढ़ी जिले के परसौनी गांव की रहने वाली रंजू सिन्हा ने लेक्चरर की नौकरी इसलिए छोड़ दी क्योंकि इनकी बेटी मुंबई के मेडिकल कॉलेज में पढ़ाई कर रही थी. बेटी को कोई कठिनाई न आए, इसलिए वह भी मुंबई आ गई और फिर यहीं की होकर रह गई. मुंबई में रहते हुए खुद को भोजपुरी और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री से जोड़ लिया. स्क्रिप्ट और गीत लिखने के साथ-साथ कई फिल्में भी बनाई.
बेटी के लिए आपने अपना गांव-घर छोड़ दिया. इसका कोई अफसोस?
गांव-घर छोड़ना तकलीफदेह था मगर बेटी की खुशी का भी सवाल था. कभी-कभी लगता है कि विधाता ने शायद यही लिखा था. बेटी कॉलेज चली जाती, तब मैं अकेली हो जाती. तब मैंने उस समय को सदुपयोग में लाने की कोशिश में पढ़नािलखना शुरू कर दिया. उस दौरान कई भक्ति गीत लिखे. कई अलबम भी बने. तभी मेरे दिमाग में आया कि भोजपुरी इंडस्ट्री के लिए कुछ करना चाहिए. चूंकि भोजपुरी की छवि बहुत हद तक खराब हो चुकी थी, इसलिए उसमें सुधार की तड़प जग गई. लगा कि हमें अपने कल्चर, रहन-सहन, समाज से दुनिया को परिचित कराना चाहिए.
आप स्क्रिप्ट राइटर, गीतकार और प्रोड्यूसर तो बन ही चुकी हैं, सुना है कि एक्टिंग भी कर रही हैं?
एक्टिंग पर ज्यादा ध्यान नहीं है. हां, अच्छी स्क्रिप्ट पर लगातार काम कर रही हूं. मुझे चालू गानों से परहेज है क्योंकि इन्हीं गानों और द्विअर्थी संवादों ने भोजपुरी को बदनाम कर रखा है. सबसे आश्चर्य तो यह है कि भोजपुरी में वर्षो से एक ही तरह की कहानी चल रही है. ठाकुर, नेता, पुलिस, गुंडा, आइटम डांस के अलावा लगता है, यहां और कुछ है ही नहीं. मैंने उनमें बदलाव लाने की कोशिश की. अपनी बाकी फिल्मों को छोड़ भी दें तो नई फिल्म ‘जय हो जगदंबा माई‘ का उदाहरण जरूर दूंगी. उसमें दुर्गा सप्तशती को आधार बनाकर आज की एक कहानी लिखी. इसमें मैंने संस्कार, संस्कृति, तहजीब और प्रवृत्तियों की बातें की हैं. आस्था को मनोरंजन के साथ जोड़ा ताकि दर्शकों को मैसेज भी मिल सके. वैसे, मेरी ज्यादातर फिल्मों की शूटिंग मलयेशिया में होती है ताकि भोजपुरी दर्शकों को लोकेशन का भी मजा मिल सके. भोजपुरी का मतलब सिर्फ गांव और गरीबी नहीं है. आधुनिक दुनिया से संपर्क होना भी जरूरी है. सिनेमा को समाज के बारे में बताना चाहिए. उसे सिर्फ मनोरंजन कहना ठीक नहीं.
भोजपुरी में देश को इंगित करने वाली या देश भक्ति वाली फिल्में क्यों नहीं बनती?
यह काम पढ़े-लिखे और गंभीर लोग कर सकते हैं. ऐसे सब्जेक्ट का लोगों को ज्ञान भी तो होना चाहिए. उन्हें इतिहास और भूगोल का पता होना चाहिए. लेकिन अफसोस इस बात का है कि कुछ पढ़े-लिखे मेकर्स हैं भी, तो वे भेड़-चाल में शामिल हो गए हैं. वे चालू फार्मूले को ही अपनाते हैं, जोखिम उठाने की हिम्मत नहीं करते हैं. आज की सबसे बड़ी जरूरत है कि भोजपुरी में पढ़े-लिखे लोग आएं, जिन्हें शब्दों की गरिमा, उसके महत्व और शब्द-शक्ति का पता हो. मेरी एक फिल्म ‘कसम तिरंगा की‘ बन रही है. आतंकवाद के खिलाफ है उसकी कहानी. मेरी कोशिश है कि मौजूदा समस्याओं को सिनेमा में कन्वर्ट कर दर्शकों के सामने रखें. इससे भोजपुरी में बदलाव आना सुनिश्चित है.
(अर्चना उर्वशी)
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