लोक कवि अब गाते नहीं – २०

(दयानंद पाण्डेय के लिखल आ प्रकाशित हिन्दी उपन्यास के भोजपुरी अनुवाद)

अनइसवाँ कड़ी में वकील साहब का फेर मे फँसल ठकुराइन आ धारा ६०४ वाला किस्सा पढ़ले रहीं. अब ओकरा आगा पढ़ीं…..



आ अब एही वर्मा वकील के बेटा अनूप लोक कवि के वीडियो अलबम बनावे के झांसा देके उनुका के फँसावत रहुवे. आ फिलहाल मोबाइल फोन ख़रीदे के जुगत उनका के बतावत रहुवे. चेयरमैन साहब लोक कवि के आगाहो कइलन कि, ‘जइसे बाप दफा 302 के डबल क के 604 में तब्दील कर ओह ठकुराइन के पगला दिहलसि वइसहीं ओह चार सौ बीस वकील के ई बेटवो ओकर डबल माने कि आठ सौ चालीस ह आ तोहरा के का जाई.’ लेकिन चेयरमैन साहब के हर नीमन बाउर बात मान लेबे वाला लोक कवि उनुका एह बात पर ना जाने काहे कान ना दिहलन.

अनूप आखिरकार लोक कवि के ऊषा के एगो सेलुलर फोन ख़रीदवा दिहलसि. सिम कार्ड डलवा के लोक कवि सेलुलर फोन अइसे इस्तेमाल करसु गोया हाथ में फोन ना रिवाल्वर होखो. बातो उ बहुते संक्षेप मे करस आ कई बेर बात पूरा होखे स पहिलहीं खट से काट देसु. लेकिन एक बेर बंबई में कवनो प्रोग्राम कइला का बाद लवटति में लोक कवि के ई सेलुलर फोन गायब हो गइल. लोग पूछबो करे कि, ‘कइसे गायब हो गइल?’ त लोक कवि बतावसु, ‘पी के टुन्न हो गइल रहुवीं. ट्रेन में कवनो मार लिहलसि.’

‘कवन मार लिहलसि?’ सवाल के जवाब अमूमन लोक कवि टार जासु. लेकिन ग्रुप के अधिकतर कलाकारन के मानना रहल कि मोबाइल अनूपवे चोरवलसि. दिक्कत ई रहे कि लोक कवि के अबकी खाली मोबाइले ना दस हजार रुपियो साथही गायब भइल. बाकिर रुपिया ला लोग अनूप के ना मीनू के नाम बतावे.

जवन होखे, लोक कवि ना त अनूप से कुछ कहलन ना ही मीनू से. अनूप से त उनुका ओतना तकलीफ ना भइल जतना मीनू से भइल. मीनू जेकरा ला उ का ना कइलन। दू गो कोठरी वाला छोटहने सही बाकिर एल.डी.ए. के एगो मकान ख़रीद कर ना सिर्फ देबे कइलन बलुक ओकर पूरा गिरस्ती बसवले रहन. प्रोग्रामो का फेर में हांलैंड, इंगलैंड, बैंकाक, अमरीका, मारीशस, सूरीनाम जइसन कतने देश घुमवले. मर्द छोड़ दिहलसि त ओकरा के पूरा आसरा दिहलन. अउर ना त एक बेर ना जाने कवना के गर्भ ओकरा पेट में आ गइल त उ ना जाने कहवाँ गुप चुप एबॉर्शन करववलसि जवन ठीक से भइल ना आ भ्रूण पूरा से खतम ना भइल, कवनो कण बच्चेदानीए में रह गइल. ओकर जान सांसत में फंस गइल. लागल कि बच ना पाई. अइसनो में लोक कवि दिल्ली ले जा के ओकर इलाज एगो एक्सपर्ट डाक्टर से करववले तब कहीं जा के उ बाचल. लोक कवि पानी का तरह पइसा बहा के ओकर जान बचवलन, लगभग ओकरा के एगो नया जीवन दिहलन. एह तरह जेकरा के जीवन दिहलन, आसरा दिहलन, अपना ग्रुप में स्टार कलाकार के हैसियत दिहलन, अनेके विदेश यात्रा करवलन उ मीनू धोखा से उनुकर रुपिया चुरा लिहलसि? उ मीनू जेकरा के उ आपन मनो देस, उ मीनू? तकलीफ उनुका बहुते भइल बाकिर मन ही मन पी गइलन उ सगती तकलीफ. केहू से कुछ कहलन ना. कहबो करतन त का कहतन? चुपे रहलन. लेकिन मन ही मन टीसत रहलन.

उ अब नया मोबाइल फोन ख़रीद लिहलन. चोरी ना जाए एह ला चौकन्ना बहुत हो गइल रहले. लेकिन जल्दिए उ नयको मोबाइल उनुका कैंप रेजीडेंसे से एक रात गायब हो गइल. उ तिसरका मोबाइल फोन ख़रीदलन. लेकिन सेकेंड हैंड. अनूपे ख़रीदववलसि. लोक कवि जानत रहले कि इहो चोरी हो जाई तबहियो ख़रीदलन. हालांकि मोबाइल फोन के कवनो खास उपयोगिता उनुका ला ना रहल काहे कि अधिकतर उ कार्यक्रमन में व्यस्त रहसु जहवाँ उ मोबाइल सुन ना पावसु. डिस्टर्ब होखसु उ, फोन से. ध्यान टूट जाव. दोसरे, संगीत के शोर में ठीक से सुनाईबो ना करे आ जब कार्यक्रम ना होखे तब उ अमूमन अपना कैंप रेजीडेंसे पर होखसु आ एहिजा उनका लगे टेलीफोन रहबे कइल तबहियो स्टेटस सिंबल मान के उ मोबाइल फोन राखसु. सोचसु कि अगर लोग उनका हाथ में मोबाइल फोन ना देखी त मान लीहि कि आमदनी कम हो गइल बा, मार्केट ठंडा पड़ गइल बा. एहसे मोबाइल फोन बिका गइल, हैसियत ना रहल. अमूमन जमीनी हकीकत पर रहे वाला आ जिनिगी के हकीकत अपना गवनई में ढाले वाला लोक कवि दिखावा के नाक मेनटेन करे लागल रहले. इ उनका खुदही खराब लागे लेकिन फिलहाल त उ फंस गइल रहले. हालां कि उ इहो ऐलान कर दिहले रहले कि, ‘अबकी जे मोबाइल चोरी भइल त फेर ना खरीदब.’ फेर उ जइसे खुद के तसल्ली देसु, ‘फेर ई सेकेंड हैंड मोबाइल केहू चोराई का?’ लेकिन इहो भरम उनुकर टूटल आ जल्दिए टूटल. ई सेकेंड हैंड मोबाइलो चोरी हो गइल.

लेकिन अपना ऐलान के मुताबिक उ फेरू चउथका मोबाइल ना ख़रीदले.

तबो उ परेशान रहलन चोरियन से. अब उनुका किहां खन-बिखन के चोरी होखे लागल रहुवे. एह कैंप रेजीडेंस में उनुकर जँघिया अंगवछा तक सुरक्षित ना रह गइल रहुवे. कई-कई जोड़ा उ राखसु जँघिया, अंगवछा के. तबहियो कई बेर उनुका ला जँघिया अंगवछा के अकाल पड़ जाव. एक बेर एगो लड़िकी के उ रंगे हाथ पकड़बो कइलन त उ बोलल, ‘महीना आ गइल बा गुरु जी, बांधे के बा.’ त उ डपटबो कइले, ‘त हमरे जँघिया, अंगवछा बन्हबे?’ उ बोलल, ‘आखि़र का बांन्ही गुरु जी, कुर्ता पायजामा त राउर बान्ह ना सकीं.’ ई सुन के लोक कवि बेजवाब हो गइलन. ओकरा के पइसा देत कहले, ‘केयर फ्री टाइप कुछ मंगवा ल. उहे बान्हऽ!’

तबहियो उ आए दिन के चोरियन से परेशान हो गइलन. पइसा, कुरता, पायजामा कुछुओ ना बाचे. बिछवना के चद्दर ले गायब होखे लागल रहुवे. उ कहबो करसु कि, ‘असल में ई लड़िकी सभ गरीब परिवार से आवेली स से अपना बाप भाई खातिर अंगवछा, जँघिया उठा ले जाली सँ, बिछवना के चादरो ले जाली सँ, पइसो कवड़ी ले जाली सँ त चलीं बरदाश्त कर लिहिले. बाकिर एकर का करीं कि सम्मान में मिलल शालो मंचवे पर से गायब हो जाले.’ उ बिफरस, ‘बताईं, सम्मान के शाल भोंसड़ी सभ चोरा लेली सँ! इहे बात खटकेला.’ उ जइसे जोड़सु, ‘गरीबी के मतलब ई थोड़े ह कि जेकरा से रोजी रोटी मिले ओकरे घरे चोरी करऽ?’ उ बोलस, ‘ई त पाप ह पाप. अरे, हमहू गरीबी देखले हईं, भयंकर गरीबी. मूस मार के खात रहीं, बाकिर चोरी ना कइनी कबो.’ उ कहसु, ‘आजुओ जब कबो हवाई जहाज पर चढ़ीले उड़त घरी नीचे देखीले त रोइलें. काहें से कि आपन गरीबी याद आ जाले बाकिर हम कबो चोरी ना कइनी.’

लेकिन लोक कवि चाहे जवन कहसु उनुका किहाँ चोरीचकारी चौतरफा चालू रहल आ अब त उनुकर कुछ चेला कलाकार जे अलग ग्रुप बना लिहले रहले, लोके कवि के गाना गावसु आ गाना का आखि़र में तखल्लुस के तौर पर जहवाँ लोक कवि के नाँव आवे ओहिजा से उनकर नाँव हटा के आपन नाँव जोड़ देसु. पहिलहू कुछ चेला अइसन करस बाकिर कबो कभार आ चोरी छुपे. बाकिर अब त अकसर आ खुल्लमखुल्ला. लोक कवि से एह बात के केहू शिकायत करे त उ दुखी त होखसु बाकिर कहसु, ‘जाए दीँ सब कइसो कमा खात बाड़े सँ, जिए खाए दीं!’ पर जब केहू तबो प्रतिवाद करे त उ कहसु, ‘हमरा गाना में केहू आपन नाँव खोंस लेता त गाना त ओकर नइखे नू हो जात? एह गाना के कैसेट बा बाजार में हमरा नाँव से. लोग जाने सुनेला गानन के हमरा नाँव से.’
‘तबो!’ कहे वाला तबहियो प्रतिवाद करे.
‘त?’ कह के उ बिगड़ जासु, ‘चलीं एह कलाकार के त हम बोला के डांट देब. बाकिर केकरा-केकरा के डांटत फिरब?’
‘का मतलब?’
‘मतलब ई कि बंबई से लिहले पटना ले हमरा गानन के चोरी होखत बा हमरे गाना के धुन, हमरे गाना के भोजपुरी से बदल के हिंदी में केहू से लिखवा-गवा के फिलिमन में गोविंदा हीरो बनल नाचत बाड़े त हम का करीं? कई लोग भोजपुरियै में एने वोने बदल के गावत बा त हम का करीं? केसे-केसे झगड़ा-लड़ाई करीं?’ उनकर तकलीफ जइसे उनका जुबान पर आ जाव, ‘अब जब गाना सुने वालने के फिकिर नइखे त अकेले हम का करब?’ फेर उ अपना गाना के एगो लमहर फेहरिस्त गिना जासु कि कवन-कवन गाना फिलिमन में चोरा लिहल गइल. उहो तब जब एह गानन के कैसेट बाजार में पहिलही से रहल. फेर उ बड़ा तकलीफ से बतावसु, ‘बाकिर का करब? भोजपुरी गरीब गंवार के भाषा हवे केहू एकरा साथे कुछुओ कर लेव भोजपुरिहा लोग चुप लगा जालें. जइसे गरीब के लुगाई होले वइसहीं भोजपुरी सभकर भउजाई हियऽ.’ उ रुकस ना बोलते जासु, ‘लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री भइलन पाकिस्तान के हरा दिहलन, देश के जिता दिहलन लेकिन भोजपुरी के जितावे के फिकिर ना कइलन. चंद्रशेखर जी अपने बलिया वाला, अमरीका के जहाज के तेल दे दिहलन इराक के लड़ाई में बाकिर भोजपुरी के सांस ना दे पवलें. कुछ हजार लोग के बोली डोगरी के, नेपाली के संविधान में बोला लिहलन लेकिन भोजपुरी के भुला गइलन त केहू कुछ बोलल का?’ उनकर इशारा संविधान के आठवीं अनुसूची में भोजपुरी के शामिल ना कइला का ओर होखे. उ कहसु, ‘राष्ट्रपति रहले बाबू राजेंदर प्रसाद. सिवान के रहले, भोजपुरीए में खास-पीयस, बतियावसु, उहो कुछ ना कइलन. एक से एक बड़हन-बड़हन नेता भोजपुरिहा हउवें बाकिर भोजपुरी ख़ातिर सभे मरल जस बा. तब जब कि करोड़ों लोग भोजपुरी बोलेला, गावेला, सुनेला. हालैंड, मारीशस, सूरीनाम में भोजपुरी जिंदा बा, ऊ लोग जियवले रखले बा जे लोग इहां से बंधुआ मजूर बन के गइल रहुवे. बाकिर इहवा लोग भुला गइल बा.’ उ कहसु, ‘आज काल्ह एतना टी.वी. चैनल खुलल बा, पंजाबी, कन्नड़, बंगाली, मद्रासी, इहाँ के कि उर्दूओ में. बाकिर र एक्कौ चैनल भोजपुरी में काहे ना खुलल?’ उ जइसे पूछसु, ‘भोजपुरी में प्रतिभा नइखे? कि गाना नइखे? कि नेता नइखन? कि पइसा वाला लोग नइखे? तबहियो ना खुलल भोजपुरी में चैनल. दूरदर्शन, आकाशवाणीओ वाला जेतना समय अउरी भषन के देबेले भोजपुरी के कहां देले?’ कहत-कहत लोक कवि बिलबिला जासु. अफना जासु. कहे लागस, ‘बताईं अब पंजाबी गाना में दलेर मेंहदी आरा हिले, बलिया हिले, छपरा हिलेला दू लाइन गा देले त लोग के नीक लागेला. मोसल्लम भोजपुरी में फेर काहे ना सुनेला लोग? जानीलाँ काहें ? उ जइसे पूछस आ खुद ही जवाबो देसु, ‘एह नाते कि भोजपुरिहा लोगन में अपना भाषा ला भावना नइखे. एही से भोजपुरी भाषा मरत बिया.’ फेर उ बात ले दे के भोजपुरी एलबम अउर सी.डी. पर ले आ के पटक देसु. कहसु कि, ‘पंजाबी गानन के एतना अलबम टी.वी. पर देखावल जाला लेकिन भोजपुरी के ना. काहे कि भोजपुरी में अलबम बनले नइखे. एकाध छिटपुट बनलो होखी त हमरा मालूम नइखे.’ कह के उ पूरा तरह निराश हो जास आ उनुका एह निराशा के विश्राम देव अनूप कि, ‘घबराईं जन गुरु जी’ हम राउर वीडियो शूटिंग करा के एलबम बनाएब.’’ आ लोक कवि ई जानतो कि ई सार ठगी बतियावत बा, ओकरा ठगी में समा के चहके लागस. उ जइसे ओकरा वशीभूत हो जास.

कई बेर कुछ गंवाइओ के पावे के तरकीब आजमा के सफल हो जाए वाला लोक कवि के बेर-बेर लागे कि अनूप सिवाय उनुका के लूटे के कुछ नइखे करत. बाकिर उ होखेला नू कि कुछ सपना कवनो कीमत पर आदमी जोड़ेला भलही ओह सपना के सांचो में फिट ना बइठत होखे आ लगातार टूटते जाव तबहियो सपना ना तूड़ल चाहे! लोक कवि इहे करत रहले आ टूटल जात रहले. हंसत-हंसत. बाखुशी.

इ टूटलो अजीब रहल उनकर.

जाने ई उनुकर टूटल भोजपुरी भाषा के बढ़त दुर्दशा ले के रहुवे आ कि एलबम, सी.डी. के बाजार में अपना गैरमौजूदगी के लेके रहल ई समुझ पावल खुद लोको कवि के वश के ना रहे. वश में त अब अपना कैंप रेजीडेंस में बढ़त चोरी चकारीओ रोक पावल ना रहल उनुका. बात अब पइसा, कपड़ा-लत्ता आ मोबाइले ले ना रह गइल रहुवे. अब त गैस सिलिंडर ले उनुका किहाँ से चोरी होखे लागल रहुवे. एह चोरी रोके खातिर उ कुछ असरदार ना कर पावत रहले. एहुसे कि लड़िकी उनकर बड़हन कमजोरी बन गइल रहली सँ आ कमजोर छन में कवनो लड़िकी उनुकर कुछुओ ले सकत रहल, मांग सकत रहल. कबो सीधे-सीधे त कबो चोरी छुपे, त कबो-कभार सीनाजोरीओ से. कई बेर त उ पी के टुन्न रहस आ कवनो लड़िकी मौका देख के उनकर कमजोर नस छूवत पूछ लेव,’ गुरु जी, ई चीज हमरा के दे दीं.’ भा ‘गुरु जी दस हजार रुपिया दे दीं हमरा के!’’ भा ‘गुरु जी हम त फला चीज ले जात बानी.’ जइसन जुमला बोल के कबो गँवे से, कबो फुसफुसा के ले ल सँ आ लोक कवि कबहियों ना नुकुर ना करस, फराख़ दिल बन बइठस आ आखिरकार मामिला चोरी खाते दर्ज हो जाव. कई बेर इहो होखे कि लोक कवि टुन्नावस्था में सुतल रहस, भा अधजगले भा अधलेटल होखस त लड़िकी भा चेलवो ‘प्रणाम गुरु जी!’ बोल के कोठरी में घुस जास. एने-वोने ताकत झांकत. गुरु जी से कवनो जवाब ना पा के उनकर गोड़ छूवस. लोक कवि तबहियो टुन्न पड़ल रहसु आ बोलस ना त चेला भा लड़िकी जवने होखे बोले, ‘लागत बा गुरु जी सुत गइल बानी का?’ तबहियो उ ना बोलसु त अपना सुविधा से मनचाहल चीझु उठा लेस आ ले के निकल लेस ई कहत, ‘गुरु जी सुत गइल बानी!’ ई सगरी वाकिया, सगरी सच्चाई, संवाद मय अभिनय के लोक कवि बाकायदा छटक-छटक के चलत सदृश्य बतइबो करसु लेकिन कवना दिन कवन रहे, का ले गइल ई बात अमूमन गोल कर जासु. केहू बहुत कुरेदबो करे त उ बात टार जास. कहसु, ‘जाए दीं! अरे, इहे सब त मेहनत करेले.’ लड़िकियन ला कहसु, ‘अरे इहे सभ त गांड़ हिला-हिला के नाचेली सँ. एकनिए के बूते त हमरा लगे पोरोगरामन के अइसन बाढ़ लागल रहेला.’

‘काहें? रउरा ना गाइलें?’ एक दिन उ ठाकुर पत्रकार सवालिया निगाह दउड़ावत कहलसि, ‘टीमो त रउरे नाँव से बा. रउरे बुक होखीलें. रउरे नाँव से इहो सभ खाली कमाली सँ.’
‘का कहत बानी बाऊ साहब!’
‘काहें?’ बाबू साहब गिलास के शराब देह में ढकेलत बोलले, ‘हम त सच्चाई बतावत बानी.’
‘अइसंहीं अख़बार में रिपोर्टिंग करीलें रउरा?’ लोक कवि तनिका मुसुकात, तनिका तरेरत आ मीठका मार बोलत आपन सवाल दोहरवलन, ‘अइसंहीं अख़बार में रिपोर्टिंग करीलें रउरा?’
‘का मतलब?’ बाबू साहब अचकचइले.
‘मतलब ई कि रउरा कुछ ना जानीलें.’ लोक कवि बोलले तो मिठास घोर के बाकिर अइसे जइसे तमाचा मारत होखसु.
‘का मतलब?’
‘अब जाए दीं.’ लोक कवि कहले, ‘कुछ अउर बात करीं.’
‘अउर का बात करीं?’
‘कुछ विकास के बात करीं, कुछ राजनीति के बात करीं.’
‘काहें?’
‘कुछऊ करीं बाकिर ई गाना आ लड़िकियन के बात छोड़ दीं!’
‘गाना आ लड़िकियन के बात त हम करतो नइखीं. हम त कहत रहीं कि रउरे नाँव से सबकुछ होखेला. रउरे नाँव बिकाला, बस! इहे त हम कहत बानी’ बाबू साहब अपना के जस्टीफाई करत कहलें, ‘आ रउरा हमरा अख़बारी रिपोर्टिंग के बात करे लगनी.’ उ कहले, ‘अख़बार में त हम दोगलईए वाली रिपोर्टिंग करीलें. तनिका साँच में अधिका गप्प आ अधिका गप्प में तनिका साँच आ कई बेर त पूरा झूठे के सगरी साँच बता के. बाकिर इ त अखबारी नौकरी के मजबूरी हवे. कई हाली अनचाहे करीले त एकाध बेर अपनो मन से.’ उ कहलें, ‘बाकिर लोक कवि, राउर नाम बिकाला ई त पूरा साँच बोलत बानी. आ कवनो नौकरी में ना, कवनो दबाव में ना बलुक पूरा मन से बोलत बानी.’
‘बोल चुकनी रउरा?’ लोक कवि संक्षेपे में बोलले.
‘बिलकुल!’ बाबू साहब बोलले, ‘बाकिर आगहू बोलब आ इहे बोलब काहे कि इहे साँच ह. इहे सच्चाई ह!’
‘साँच ई ना ह!’ लोक कवि बुदबुदइले, ‘रउरा आजु तीने पेग में चढ़ गइल बा.’
‘ना, एकदमे नइखे चढ़ल. चढ़ गइल होखे त शराब त हराम होखी हमरा ला.’ उ कहले, ‘लोक कवि! आफ्टर आल रउरा हमरा माईभासा में गाइले आ लखनऊ मे हमरा माईभाषा के परवान चढ़वले बानी.’
‘सब गलत.’
‘त राउरा नाम ना बिकाला?’ बाबू साहब लोक कवि से पीछले, ‘हमरा ना रउरा चढ़ गइल बा.’
‘हम त अबही छूअबो नइखीं कइले.’ लोक कवि कहले, ‘अबहीं नहाएब. नहइला का बाद पीयब.’
‘त फेर काहे बहकल-बहकल बतियावत बानी?’
‘बहकल-बहकल बात हम ना, रउरा करत बानी.’ लोक कवि कहले, ‘राउरा माईभासा भोजपुरी के हम गाई ले जरूर बाकिर हमरा के सुनेला के?’
‘का?’
‘हँ!’ लोक कवि कहले, ‘जानीलें लोग पोरोगराम बुक करावे हमरा लागे आवेला जरूर बाकिर साटा लिखवावे से पहिले पूछेला कि लड़िकी कव गो रहीहें सँ? ई ना पूछे लोग कि रउरा कतना गाना गाएब? फेर लड़िकियन के गिनितिए पर साटा आ रेट तय होखेला.’ लोक कवि कहले, ‘जइसे रैलियन में बड़का नेता लोग लोकल नेतवन से पूछेले कि भीड़ कतना होखी? वइसहीं पोरोगराम बुक करे वाला पूछेलें लड़िकी कव गो रहीहें? पोरोगराम ला चहुँपी त छूटते पूछी लोग कव गो लड़िकी आइल बाड़ी सँ? उ चाहे होली, दीवाली के पोरोगराम होखे, भा नया साल के भा जन्माष्टमी, शादी बियाह के! आ अब त सरकारीऔ पोरोगरामन में दबले जबान, फुसफुसाइए के सही लोग लड़िकियन का बारे में दरियाफ्त कर लेला.’ लोक कवि बोलले, ‘अउरी जानब? पोरोगराम में जनतो लड़िकियने के डांस देखल अधिका चाहेलें उहो धक्का मार सेक्सी डांस. हम त कबो कभार तब गाइले जब लड़िकियां कपड़ा बदलत होख सँ भा सुस्तात होखऽ सँ. त ओही घरी एहर वोहर करके दूइ चार गो गाना हमही ठोंक दीले.’ उ कहले, ‘आ इनाम हमरा गाना गवला पर ना, हमरे गाना के कैसेट पर डांस करत लड़िकियन के डांस पर आवेला. आ कई बेर त साटा के तय रुपिया से अधिका के इनाम आ जाला.’ लोक कवि आंख तरेरत बोलले, ‘त का ई इनाम रउरा समुझीलें कि रउरा माईभासा के गाना के मिलेला? कि लड़िकियन के सेक्सी डांस के?’ उ कहले, ‘रउरे तय कर लीं हम कुछ ना बोलब.’
‘का कहत बानी लोक कवि आप?’
‘इहे कि अब हम गाइले ना.’
‘त का करीले रउरा?’
‘पोरोगराम करीले.’ उ अइसे बोलले जइसे अपने के हरा दिहले होखसु.
‘ई त बहुते दुख के बात बा लोक कवि!’
‘अब बात दुख के रहे चाहे सुख के बाकिर ह इहे!’ लोक कवि अइसे बोलले जइसे उ लूटा गइल होखसु.
‘त रउरा अपना प्रोगामन में से लड़िकियन के हटा काहे नइखीं देत?’
‘हटा दीं?’ लोक कवि मतलबभरल बाकिर मेहराइल मुसकान फेंकत पूछले.
‘बिलकुल.’ बाबू साहब ठनक के कहले.
‘मनो हमरा के बिलवा देब?’
‘का मतलब?’
‘मतलब ई कि अगर लड़िकियन के हम अपना पोरोगरामन में से हटा दीं त हमार काम त ठप समुझी!’
‘काहें?’
‘काहें का?’ लोक कवि बोलले, ‘अरे बाऊ साहब लड़िकिए ना रहीहें स त हमरा के फेर पूछी के? के सुनी राउरा माईभासा? राउर मरल माईभासा?’
‘का बकत बानी रउरा?’ बाबू साहब अब चउथा पेग ख़तम करत रहलें. बोलले, ‘आ बेर-बेर रउरा राउर माईभासा, राउरा माईभासा कह-कह के हमार मज़ाक उड़ावत बानी. बंद करीं ई.’ उ कहले, ‘भोजपुरी हमरे ना राउरो माईभासा ह.’
‘हमार त रोजीओरोटी हवे भोजपुरी!’ लोक कवि बोलले, ‘हमार नाम, सम्मान एही भासा का चलते बा! हम काहे मज़ाक उड़ाएब बाऊ साहब. हम त बस रउरा के जमीनी हकीकत बतावत रहीं कि रउरा समुझ जाईं. बाकिर….’
‘बाकिर का?’
‘बाकिर दोगली रिपोर्टिंग करत-करत राउर आंख अन्हरा गइल बा. साँच नइखे देखत, से उहे बतावत रहीं.’ उ कहले, ‘जानीले जे आजु लड़िकियन के डांस हटा दीं आ ख़ाली बिरहा गाईं त जे आजु महीना में पंद्रह से बीस दिन बुक होखिलें सालो भर में शायद एतना बुकिंग ना मिली. जवन मिलबो करी उहो सिर्फ सरकारीए.’ उ कहले, ‘बाऊ साहब एगो मजेदार बात अउरी बताईं रउरा के?’
‘का?’
‘जानीलें लड़िकी सभ जब डांस करत-करत थक जाली सँ, रात के तीन चार बज जाला, पब्लिक तबहूओं ना छोड़े त का करीलें?’
‘का?’
‘हम मंच प आके कान में अंगुली डाल के बिरहा गाए लागीलें. पब्लिक उकता जाले. धीरे-धीरे खदबदाए लागेले. तबहियों उमीद लगवले रहेले कि अब अगिला आइटम फेर डांस के भा डुएट के होखी. लेकिन हम अगिला आइटम में कवनो लौंडा से भजन गवाए लागीलें. उ दू तीन गो भजन ताबड़ तोड़ ठोंक देला. तब कहीं जा के पब्लिक से छुट्टी मिलेला.’ उ बोलले, ‘भोजपुरी आ भजन के हालत ई बा हमहन के समाज में. रउरो जान लीं, रउरा पहरूआ हईं समाज के, एहसे बता दिहनी.’
‘ई त साँचहू बड़ा मुश्किल हालात बा.’
‘एह मुश्किल हालात से आखि़र कइसे निपटल जाव?’ लोक कवि बोलले, ‘एह तरह मरत भोजपुरी में कइसे जान फूंकल जाव?’ ऊ पूछले, ‘रउरा ज्ञानी हईं, विद्वान हईं, अख़बार में बानी. रउरे लोग कुछ सोचीं.’ कह के लोक कवि अपना छत पर राखल बाथ टब में नहाए चल गइले.

बाबू साहब के दारू थथम गइल. उनका ठकुआ मार दिहलसि. लोक कवि के त्रासदी आ अपना माईभासा के दुर्दशा ले के. उनुका अपना माईभासा पर बहुते गुमान रहल. भोजपुरी के मिठास, एकर लालित्य आ एकरा रेंज के बखान करत उ अघात ना रहलें. दू दिन पहिलहीं त प्रेस क्लब में उ अपना माइभाषा के झंडा ऊंच कइले रहन. पंजाबी साथियन संगे बीयर पीयत उ बघरले रहले कि तोहरा लोग किहाँ का बा सिवाय बल्ले-बल्ले अउर भांगड़ा के? हमरा भोजपुरी में आवऽ, सब कुछ बा एहिजा. जतना संस्कार गीत भोजपुरी में बा ओतना कवनो भाषा में नइखे आ आदमी बनेला संस्कार से. बात अधिका बढ़ल त उ कहले चइता, कजरी, सोहर, लचारी त छोड़ऽ भोजपुरी में मजदूरिए गीत एतना बा कि तू लोग सुनत-सुनत थाक जइभ. कहले रहले कि एगो मुअला के छोड़ द त भोजपुरी में हर समय, हर काम ला कवनो ना कवनो गीत बा. चाहे जांत के गीत होखे, फसल के होखे, मेला बाजार जाए घरी के होखे हरदम गीत गावऽ. शादी के उदाहरण देत हँकले रहलन कि तोहरा लोग किहाँ सिर्फ लेडीज संगीत से छुट्टी पा लिहल जाले लेकिन भोजपुरी में एक-एक कस्टम ला गीत बा जवन भोर में भोरहरी से शुरू होके संझवाती से होत सूते घरी ले चलेला. आ एके दू दिन ना, कई-कई दिन ले. इहाँ ले कि बारातियन के खाना खाए बेरो गारी गीत गावल जाला. शादी ख़तम होखला का बादो पाँच दिन ले गीतन के कार्यक्रम चलेला. उ उदाहरण दे-दे के बतवले रहले. तब उ सभ लोग लाचार हो गइल रहे आ कहे लागल कि, ‘हो सकेला कि पंजाब के गांवन में हमहन के पंजाबीओ में ई सभ चलत होखे बाकिर हमनी के मालूम नइखे.’ त एगो बुंदेलखंडी पत्रकार उछलत बोलल रहे, ‘हमनी के बुंदेलोखंड में बा!’

‘का बा?’ कह के बाबू साहब ओह बुंदेलखंडी के मजाक में दउड़ा लिहलन आ पूछले रहले आ तनी ऊंचे आवाज में पूछले रहले कि, ‘सिवाय आल्हा गायन के अउरी का बा बुंदेलखंड में?’ उहो निरुत्तर हो गइल रहे. बाकिर जवना भोजपुरी के वीरगाथा ओह दिन प्रेस क्लब में उ गवले रहले का उ गाथा गलत रहुवे? आ कि लोक कवि के सवाल गलत बा? उनकर बतावल ब्यौरा गलत बा?
गलत बा कि सही? के सही आ के गलत में अबहीं बाऊ साहब सुलगते रहले कि लोक कवि अंगवछा लपेट आ के कुर्सी में धप्प से बइठ गइले. बोलले, ‘का बाऊ साहब रउरा लेत काहे नइखीं?’ उ ह्विस्की का ओर इशारा करत कहले आ आपन पेग बनावे लगले, ‘रउरो लीं.’
‘का लीं? आ त सगरी नशे उतार दिहलीं!’
‘का?’
‘का-का बताईं?’ उ बोलले, ‘हम अइसना अनेके लोग का बारे में जानीले जे या त अंगरेजी बोलेलें या भोजपुरी. हिंदी ना जानसु बाकिर भोजपुरी जानेलें. आ आजु रउरा भोजपुरी के जवन नक्शा खींचलीं, हम त दहल गइल बानी.’
‘एहमें दहले के कवन बात बा?’ उ बोलले, ‘हालात ख़राब बा त एकरा के सुधारीं. सुधारे के माहौल बनाईं.’ लोक कवि बोलले, ‘बाकिर छोड़ीं इ सब बताईं कि ऊ लोग कवन ह जे अंगरेजी आ भोजपुरी जानेला बाकिर हिंदी ना.’
‘एहिजे लखनऊओ में दू चार लोग बा. दिल्ली में बा, विदेशो में बा.’
‘अच्छा!’ लोक कवि चहक के बोलले, ‘लखनऊ में कवन लोग ह?’
‘साइंटिस्ट लोग ह.’ उ बोलले, ‘हिंदी टूटल फूटल बोलेले बाकिर भोजपुरी सही-सही. अइसही दिल्ली में जे.एन.यू. में बहुते लोग अइसन मिलेला जे या त अंगरेजी बोलेला ना त भोजपुरी. हिंदी ना.’
‘ई दिल्ली में जे.एन.यू. का ह?’
‘यूनिवर्सिटी ह.’
‘अच्छा-अच्छा.’ उ पूछले, ‘हमार पोरोगराम ओहिजा हो सकेला?’
‘डांस वाला?’ बाबू साहब मजकिया लहजा में आंख घुमा के पूछले.
‘ना-ना. ख़ाली बिरहा वाला. शुद्ध भोजपुरी वाला पोरोगराम.’
‘रउरो लोक कवि हर बात में पोरोगराम सूंघे लागीले.’
‘का करीं रोजी रोटी ह.’ उ कहले, ‘फेर विद्वान लोग क बीच गावे के सुखे अउर होला. आ एहले नीमन बात बा कि उ लोग हिंदी ना जाने त फिल्मी गाना के फरमाइशो ना करी. त डांस वइसही कट हो जाई.’ उ कहले, ‘बात चलाईं.’
‘ई त हमरा से संभव नइखे.’
‘तब छोड़ीं जाए दीं.’ उ कहले, ‘कुछ अउर बात करीं.’
‘अउर का बतियाईं?’ उ कहले, ‘बताईं, एगो बहुते बड़हन लेखक हउवें एस.वी. नायपाल. इंगलैंड में रहेलें आ अंगरेजी में लिखेलें.’
‘त का इहो भोजपुरी बोलेलें?’
‘हँ.’
‘अंगरेज होइओ के?’
‘अंगरेज ना हउवें.’
‘त?’
‘इनकर पुरखा गोरखपुर से गइल रहले त्रिनिदाद मजूरी करे. बतावेले कि इनका बाबा गइल रहले.’
‘त गोरखपुर में नायपाल कवन जाति होला?’
‘नायपाल जाति ना ह उनकर बाबा दुबे रहले. त्रिनिदाद से घूमत-घामत इंगलैंड चहुंप गइले. पुरखा मजूरी करे गइल रहलें बाकिर ई लेखक बन गइले आ अइसन लेखक जिनका अंगरेजी से बड़हन-बड़हन अंगरेज घबरासु.’
‘बहुते गलत लिखेलें का?’ लोक कवि मुंह बिगाड़त पूछले.
‘अरे ना, एतना बढ़िया लिखेलें कि ओहसे लोग घबराला.’
‘जइसे हमरा गाना से लोग घबराला?’
‘का?’ बाबू साहब लोक कविए का तरह मुंह बिगाड़ के बोलले, ‘बहुते ख़राब गाइले का?’
‘का बाऊ साहब?’ कह के लोक कवि हो-हो क के हंसे लगले.
‘त एह एस.वी. नायपाल के बहुते किताब मशहूर हो चुकल बाड़ी सँ. अधिकतर में उ भारते का बारे में लिखेलें.. कईएक विदेशी पुरस्कार मिल चुकल बा. नोबल पुरस्कारो अबही हाले में मिलल बा. आ उ नायपाल हिंदी ना जानसु बाकिर भोजपुरी जानेले?’
‘रउरा कइसे पता चलल?’ चकित लोक कवि पूछले.
‘अरे, अख़बार मैंगजीन सभ में पढ़ले बानी. काहें?’
‘ना, हम सोचनी कि कहूं रउरा मिलल होखब?’ उ बोलले, ‘कब्बो भारत आइल बाड़ें?’
‘हँ, दू तीन बेर. बाकिर हम उनका से मिलल नइखीं. बहुत पहिले आइल रहले. त तब जानतो ना रहल होखब उनका बारे में.’
‘लेकिन उ भोजपुरी जानेलें?’
‘हँ, भई हँ!’
‘भोजपुरीओ में एक्को किताब लिखले बाड़न का?’
‘ना, हमरा जानकारी में त नइखन लिखले.’
‘तब का?’
‘का मतलब?’
‘मतलब ई कि ऊ भोजपुरी जानेले ख़ाली फैशन ला. आपन घाव देखावे ला. कि देखीं मजूर के बेटा केतना महान लेखक बन गइल.’ लोक कवि बोलले, ‘मजा त तब रहीत जब उ भोजपुरीओ में लिखतें भोजपुरिहन का बारे में लिखतें, ओह लोगन के कुछ विकास करइतें.’ उ बोलले, ‘अइसे भोजपुरिहन से हमहू बिदेसन में मिलल बानी. अइसने लोग, हाई फाई लोग भोजपुरी के बिनास करत बा. का देस, का बिदेस. भोजपुरी ला कुछ करीहें ना. ख़ाली मूड़ी गिना दीहें कि हमहूं भोजपुरिहा हईं. हईं, सजनी हमहूं राजकुमार! जाए दीं अइसन लोग के बात मत करीं!’
लोक कवि तिसरका पेग ख़तम करत रहले आ साथही टुन्नावस्था का ओर डेग बढ़ल जात रहुवे उनकर. बाबूओ साहब के ज्यादा हो गइल रहुवे से अचके उठत उ कहले, ‘चलत बानी लोक कवि जी!’
‘अच्छा त प्रणाम!’ कह के लोक कविओ जाए के सिगनल दे दिहलें. फेर बोलले, ‘काल्हु दुपहरिया में चेयरमैन साहब के संगे बइठकी बा. रउरो आईं.’
‘ठीक बा.’ कह के बाबू साहब चल गइले. एकरा बाद खा पी के लोको कवि अकेलहीं सूत गइले. हालांकि अकेले उ कमे सूतत रहलें.


लेखक परिचय

अपना कहानी आ उपन्यासन का मार्फत लगातार चरचा में रहे वाला दयानंद पांडेय के जन्म ३० जनवरी १९५८ के गोरखपुर जिला के बेदौली गाँव में भइल रहे. हिन्दी में एम॰ए॰ कइला से पहिलही ऊ पत्रकारिता में आ गइले. साल 1978 से पत्रकारिता में. इनकर उपन्यास आ कहानियन के बाइस गो किताब प्रकाशित हो चुकल बा. एह उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं” खातिर उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान उनका के प्रेमचंद सम्मान से सम्मानित कइले रहे आ “एक जीनियस की विवादास्पद मौत” खातिर यशपाल सम्मान से.

बड़की दी का यक्ष प्रश्न के अनुवाद अंगरेजी में, बर्फ़ में फंसी मछली के पंजाबी में आ मन्ना जल्दी आना के अनुवाद उर्दू प्रकाशित हो चुकल बा.

बांसगांव की मुनमुन, वे जो हारे हुए, हारमोनियम के हज़ार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाज़े, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास), 11 प्रतिनिधि कहानियां, बर्फ़ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), कुछ मुलाकातें, कुछ बातें [सिनेमा, साहित्य, संगीत और कला क्षेत्र के लोगन के इंटरव्यू] यादों का मधुबन (संस्मरण), मीडिया तो अब काले धन की गोद में [लेख के संग्रह], एक जनांदोलन के गर्भपात की त्रासदी [ राजनीतिक लेख के संग्रह], सूरज का शिकारी (बचवन ला लिखल कहानियन के संग्रह), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित) अउर सुनील गावस्कर के प्रसिद्ध किताब ‘माई आइडल्स’ के हिंदी अनुवाद ‘मेरे प्रिय खिलाड़ी’ नाम से आ पॉलिन कोलर के ‘आई वाज़ हिटलर्स मेड’ के हिंदी अनुवाद ‘मैं हिटलर की दासी थी’ के संपादन प्रकाशित बा.

दयानंद पांडेय जी के संपर्क सूत्र :-

5/7, डालीबाग आफ़िसर्स कालोनी, लखनऊ- 226001

मोबाइल नं॰ 0522-2207728, 09335233424, 09415130127

e-mail : dayanand.pandey@yahoo.com
dayanand.pandey.novelist@gmail.com

0 Comments

Submit a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *