सईंया हमार मोटर कार ले के आयो रे

– जयंती पांडेय

पुरनका जमाना से हीरोइन सभे इहे गावे. अउर खाली हीरोइने के मन के नाहीं बाकी सब मेहरारू के मन के इहे भावे कि उनके बलम मोटरकार पर चढ़ के आवस.

अब केतना मेहरारून के भाग में भलही इहे लिखल होखे कि बिआहे के बेरा उ मोटरकार पर चढ़ल होखिहन, जइसे अपना ओर के कतना दुलहा अइसन बाड़े कि अपना बिआहे में “टूपीस सूट” पहिरलन. अब साइकिल पर सूट पहिन के उ कहवाँ जइहें? अउर केतना जाना के त सूटवो माँगल रहल, जौन बिआह भइला का बाद लवटा देबे के पड़ल. केतना दुल्हा के त उ सूटवा लौटावे के बेरा अपना यार दोस्त से झगड़ो मोल लेबे के पड़ल. काहें कि सूट में हरदी, दही, सेनूर और ना जाने कौन कौन चीज के दाग लगा के दूल्हा लोग लवटावेला. बाज सूटन के भाग बढ़िया होला. बिना दाग-ओग के कई बिआहन में घूम फिर ले ला. त केतना सूट के भाग बड़ा खराब होला, एक बार बन गइल, देह पर चढ़ गइल अउर ओकरा बाद फेर देह पर चढ़े के ओकरा साईत ना भेंटाइल. अपना ओर के कतना जाना के सूटन के इहे दुर्भाग्य ह. दूल्हा राम बेसाइज के होखस, चाहे टिटिहरी के कद-काठी के होखस त उनकरा सूट का संगे अक्सर अइसने होला. केहू ओकर पूछ्तर ना होखे.

इहे हाल अधिकतर बनारसी साड़िनो के होला. साड़ी त खैर देहे-देह ना घूमे बाकिर एक बेर किनइला का बाद बाकस में जौन कसाइल त फेर कवनो बिआहे में पहिरा के बेरा उ निकालल जाला. लेकिन ओहिमें गजन के बात ई बा कि कई बेर अइसन पर-पट्टीदारी में बिआह ना पड़े कि ओकर इस्तेमाल कइल जा सके. अउर बरिस-बरिस तक एके तहे दबाइल उ चिंगुरी-चिंगुरी फाट जाले. अपना ओर के धोबी लोगन के बातो त का कहल जाव ? दू बेर कपड़ा भेज दीं धोये के त ओकर रंग फेर रउरा ना चीन्ह पाइब. खैर, बिआह त सचहूं में गजन के चीज ह. ई सब छोट-मोट गजन देखल जाई त भला बिआह कहीं हो पाई.

अब जेकर बिआह होला ऊ दूल्हा अउर दुलहिन के गोड़ धरती पर ना पड़े. भले दहेज जुटावत में लइकी के बाप के आँखि का आगे अन्हार हो गइल होखे, चाहे लइका राम अबही अपना गोड़ो पर खड़ा ना होखस, बाकी उ अपना के कवनो हीरो से कम नाहीं मानस. हैसियत वाला बाप होलें त चार चक्का दहेज में माँगल जाला, नाहीं त दू चक्का खातिर केकरा मजाल बा कि मांगे के बेरा उ मुँह पर जॉबी कस दी.

अब अइसना में जे लइकी अपना के हीरोइन बुझे लागेली उनकरा मुँह से भले ना फूटो बाकिर उनकर दिल त चिला-चिला के इहे गावेला “सईंया हमार मोटरकार ले के आयो रे”. अब अलग बात बा कि ए घरी रउरा देहात में घूम आईं, देखब, सबका घरे दहेजुआ मोटरसाइकिल पड़ल बाड़ी सँ. आखिर पेट्रोल भरावे के पइसो त चाहीं. सरकार जब रोज पेट्रोल के दाम बढ़वले जातिया. उ कसाई के का मालूम कि मोटरकार पर चढ़े खातिर केतरे दुलहिन के करेजा कसमसाला. शायद दुलहिन बड़ी समझदार बाड़ी एहिसे उ पहिलहीं कहे लगेली “धक्का दई-दई चलायी रे”.


जयंती पांडेय दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में एम.ए. हईं आ कोलकाता, पटना, रांची, भुवनेश्वर से प्रकाशित सन्मार्ग अखबार में भोजपुरी व्यंग्य स्तंभ “लस्टम पस्टम” के नियमित लेखिका हईं. एकरा अलावे कई गो दोसरो पत्र-पत्रिकायन में हिंदी भा अंग्रेजी में आलेख प्रकाशित होत रहेला. बिहार के सिवान जिला के खुदरा गांव के बहू जयंती आजुकाल्हु कोलकाता में रहीलें.

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