आवऽ लवटि चलीं जा – (1)

Dr.Ashok Dvivedi

– डा॰अशोक द्विवेदी

भाई का डंटला आ झिरिकला से गंगाजी के सिवान छूटल त बीरा बेचैन होके अनासो गांव चौगोठत फिरसु. एने ओने डँउड़िआइ के बगइचा में फेंड़ा तर बइठि जासु आ सोचल करसु. सोचसु का, खाली उड़सु. कल्पना का महाकाश में बिना सोचल-समझल उड़सु. एह उड़ान में कब पाछा से आके पनवा शामिल हो जाव, उनके पता ना चले. आम के मोजरि दनात रहे, ओकर पगली गंध बीरा के न जाने कवन मादक निसा में गोति-गोति देव. पनवा के दमकत गोराई, ललछौंही मोहखरि, लसोरि तिरछी चितवन आ गदराइल देहिं, रहि-रहि के उनके अपना ओर घींचे लागे. रहि-रहि के उनका मन परि जाव ऊ इनार आ पियास लागि जाव. कंठ सूखि के अगियाए लागे त उठि के घरे चलि देसु.

ई ना रहे जे पनवा चैन से होखे. बैखरा लेले रहे ओकरा के. बीरा के पाम्ही आवत गोल चेहरा, गोर गेंठल देंहि, पियासल आंखि, आ लकाधुर बोली रहि-रहि के ओकरा के बहरा दउरा देव, बाकिर बीरा ना लउकसु. रेता में उछरि के गिरल मछरी लेखा तलफत पनवा के सन्तोख होखो त कइसे? बीरा कवनो गांव-घर के त रहलन ना.

बलुआ से थोरिके दूर बीरा के गाँव रहे सिमरनपुर. बाप-मतारी रहे ना. छोट्टे पर से बड़ भाई आ भउजाई के ऊ बाप-मतारी का रूप में देखत आइल रहलन. एगो बहुत छोट गिरहस्त रहे लोग ऊ. दू बिगहा के खेत, खपड़ा के घर, एगो बैल आ एगो भइंसि – इहे उनकर पूंजी रहे. बीरा दुसरा दर्जा का बाद पढ़बे ना कइलन. अइसन ना कि उनकर मन पढ़े में ना लगल. घर के परिस्थितिए अइसन रहे. भउजाई भइंसि चरावे के कह देसु, खेत में भाई के खाना-खेमटाव ले जाए के कहि देसु आ एही तर धीरे धीरे अपनहीं पढ़ाई छुटि गइल.

जवानी के उठान आ चमक अईसन ह कि करियो कलूठ आ लंगड़ो-लूल सुघ्घर आ भरल-पूरल लागे लागेला! फेर त बीरा के पुछहीं के ना रहे – गेहुँवा रंग, छरहर-कसरती देंहि. अपना उमिर का लड़िकन में सबसे पनिगर आ चल्हांक. नवहा लड़िकन का संगे गंगाजी का सरेंही ले भइंसि घुमावत, कबड्डी-चिक्का खेलत बीरा के दिन बड़ा ढंग से बीतत रहे. बलुआ गाँव से होत, गंगाजी का तीर ले के आवाजाही में, पता न कब उनकर आमना-सामना पनवा से भइल आ कब उनका भीतर प्रेम के पातर स्रोत फूटल, केहू ना जानल. सोता से झरना बनल तब्बो यार-दोस्त ना समुझलन स, बाकिर उहे प्रेम जब नदी के लहरन अस लहरे आ उमड़े लागल त सभे जानि गइल.

नदी के बेग आ बहाव के रोके खातिर बीरा के घर-पलिवार आ पनवा के खनदान हुमाच बान्हि के परि गइल. बान्हे-छान्हे के कवन उतजोग ना भइल, बाकि दू पाटन का बीच में बहे वाली नदी भला एक्के जगहा कइसे रुकि जाइत? भाई भउजाई के दिन-रात हूँसल-डाँटल आ धिरावल बीरा के बहुत खराब लागल रहे – अतना खराब कि ओघरी ऊ लोग. उनकर सबसे बड़ दुश्मन बुझाए लागल. चार पांच दिन से बेचैन होके डँउड़ियाइल फिरत बीरा मन के जतने आवेंक में करे के कोसिस करसु, ऊ अमान बछरु लेखा कूल्हि छान्ह पगहा तुरा के भागे लागे. बीरा कतनो महँटियावस, कतनो भुलवावस बाकि मन में रचल-बसल पनवा के खिंचाव उनके कल से ना रहे देव. जहाँ कहीं एकन्ता-अकेल बइठस उनके पनवा के मिलला के एक-ए-गो घटना मन परे लागे.

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बरिस-बरिस के तिहुवार ह फगुवा. बेयार डोलत कहीं कि लइका-छेहर, बूढ़-जवान सभका पर फगुनहट चढ़ि जाला. दस दिन अगहीं से भरबितनो रँगे-रँगाए सुरु क दिहन स. ननद-भउजाई आ देवर तिनहुन के रोआँ-रोआँ रंग बरिसावे लागी. लसोर तिरिछी नजरि डोले लगिहें स आ अब्बर-दुब्बर करेजा में गड़ि के करके लगिहें स. फेरु अस मीठ दरद उठी कि बुढ़वा-मंगर बितलो पर बेचैन करी. ई बेचैनी तब अउरी बढ़ि जाई जब पहिल प्रेम के दरियाव भीतर उमड़त होखे.

तेहू में ओह दिन फगुवा अपना पूरा रंग में बलुआ गाँव पर चढ़ि गइल रहे. घर-आँगन-दुआर, खेती-खरिहान चारु ओर रंग बरिसत रहे. किसिम-किसिम के रंग. ढोलक झाल का संगे होहकार मचावत नवछेड़ियन के गोलि चउधुर का दुआरे पहुँचल त लम्मे भइल चउधर टोकलन, ‘‍बड़-बूढ़ देखि के रे बचवा!’ फेरु लड़िकन के लकुराध से कुछु डेराइले उ ओसारा का ओर जाए लगलन. उनका हाथ में गुड़गुड़ी रहे. करीमन काका चउधुर के पुरान सँघतिया रहलन. चउधुर के घसकल देखि के, एगो लइका का हाथ से रंग के बल्टी झपटलन आ कल्ले-कल्ले धवरि के चउधुर का पीठी भभका दिहलन. हल्ला मचि गइल. चउधुर अनखाइले कुछु कढ़ावहीं के रहलन कि करीमन काका नौछेड़ियन के उसुकावत पिहिकारा छोड़ि दिहलन –

फागुन में,
फागुन में बूढ़ देवर लागे,
फागुन में….

ढोल धिनधिना उठल. झाल झनझनाए लगली स. करीमन के कर्हियांव लचकावल देखि के चउधुरी के खीसि बुता गइल. उ ठहाइ के हँसि दिहलन. ठेका टूटल देखि के करीमन काका नौछेड़ियन के ललकरलन, ‘जवनिए में मुरचा लागि गइल का रे?’ ई बाति बीरा अस नवहा के छाती में समा गइल. उ झपटि के आगा कूदल, ‘अ र् र् र् कबीर ऽऽ….!’ कवाँड़ी के पल्ला तर लुकाइल फँफरा मुहें झाँकत पनवा के हँसी छूटि गइल. अभिन त रेखियाउठान रहे बीरा के. गोर गठल सरीरि. सुन्नर सुरेख चेहरा. गाले ललका रंग. नवहन का गोल में उ लचकि-लचकि के गावे सुरू क देले रहलन …….

केकरा हाथ कनक पिचकारी
केकरा हाथे अबीर?
अरे केकरा हाथे अबीर!
राधा का हाथ कनक पिचकारी
मोहन का हाथे अबीर!

गावत-बजावत हुड़दंग मचावत नवहन के गोलि आगा बढ़ि गइल. बीरा के गवनई आ मस्त थिरकन पनवा का आँखी समा गइल. कल्पना का सनेहि से ओकर मन गुदुराए लागल. बाकि बाप के दुलरुई आ मुहलगुवी पनवा के गोड़ लाजि बान्ह लिहलस. बहुत देरी ले कँवाड़ी के पल्ला धइले ठाढ रहि गइल. बेहोसी में ऊ चलल चाहे बाकि ओकर डेग ना आगा जाव ना पाछा. अजब हालत हो गइल रहे पनवा के.

गाँव घुमरियावत दुपहर भइल. गोल फूटे लागल. बीरा सोचलन कि एही पड़े नहइले चलल जाव. गंगाजी नियरहीं रहली. उ अपना सँघतिया से सनमति कइलन. सहुवा किहाँ से उधारी साबुन किनाइल आ खोरी-खोरी, हँसत बतियावत चल दिहल लोग. बीच-बीच में बोलबजियो होत रहे.

चउधुरी के दुअरा, इनार पर मेहरारू ठकचल रहली स. बेदी के हेठा घोरदवर मचल रहे. निहुरि के कनई उठावत पनवा के नजरि बीरा पर गइल. दूनों जना के नजर मिलली स. पनवा लाजे कठुवा गइल. बीरा के आँखि कनई से होत-हवात पनवा के दहकत गाल पर ठहरि गइल. पनवा के थथमी टूटल. उ लजाते-लजात कनई उठवलसि आ छपाक से एगो मेहरारु पर दे मरलसि. मेहरारु पाँकि में पूरा सउनाइल रहे. उ हँसत झपटल त पनवा फट से फेरू निहुरि गइल. बीरा एह चंचल उफनत रुप के इन्द्रजाल निहारे में भुला गइलन. उनुका आँखि के तार टूटे के नांवें ना लेइत, अगर उनुकर सँघतिया ना टोकित, ‘ का हो, डेगे नइखे परत का?’

बीरा चिहुँकि के चाल त तेज क दिहलन, बाकिर उनका भितरी पनवा का ललछौंही गोराई के चंचल छवि किलोल करत रहे. रहि रहि बेचैन करत रहे पनवा के लसोरि मीठि चितवन.

रंग धोवाइल, रंग चढ़ल आ अइसन चढ़ल कि बीरा डगमगाए लगलन. भाँग के नसा में बारह बजे राति ले गवनई कइला के बाद जब ऊ घरे पहुँचलन त निखहरे खटिया पर फइलि गइलन. आँखि मुनाइल रहे बाकिर कनई उठावत, निहुरल पनवा के समूचा देंहि के उमड़त यौवन उनका सोझा देरी ले थरथरात रहे. बीरा हहाइल-पियासल आँखि का अँजुरी से ओह उमड़त सुघराई के पीए लगलन. पियते पियत कब दूनी भोर हो गइल आ कब उ नीनी गोता गइलन, पते ना चलल.

घाम भइला, जब भउजाई झकझोरलसि त नीनि टूटल. ‘का हो बबुआ राति ढेर चढ़ि गइल रहुवे का? कब आके सूति गउवऽ? कुछु बोलबो ना करुवऽ. हम खाएक ध के राति ले अगोरत रहुवीं.’ बीरा मुस्कियात बोललन, ‘ सांचो रे भउजी? केवाड़ी त बन्न रहुवे?’ आ ठठाई के हँसि देहुवन. भउजाई लजा के भितरी भागि गउवी. बीरा देरी ले मुस्कियात रहुवन.

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फगुवा बीतल त बीरा के गंगा के कछार घोरवठे क सूर चढ़ल. उ रोज खाइ-पी के निकल जासु. हरियरी से जीउ उचटे त बलुआ गाँव के पकवा इनार पर आके खड़ा हो जासु. पूरब का ओसारा में बइठल पनवा के जइसे एकर पूरा पता रहे कि बीरा के पानी पिए के ईहे जून ह. उ आधा घंटा पहिलहीं से ओसारा में आके कुछ न कुछ काम-धंधा सुरु क देव.

अक्सर खँभिया का ओर बीरा के आवत देखि के पनवा के अगोरत मन उछरे लागे, बाकि ऊ जान बूझि के मूड़ी गोतले रहे. बीरा का खँखारते ओकर मूड़ी उठे आ नजर मिलते बीरा सिटपिटा जासु. आखिर लजाते लजात बीरा के कहहीं के परि जाव, ‘तनी पानी पियइबू हो?’ पनवा एक हालि तरेर के देखे फेरु बनावटी खीसि में बोले, ‘तहरा रोज पियासे लागल रहेला?’ फेरू ऊ भितरी से डोर बाल्टी के लेके छने भर में बहरा निकलि आवे.

ओकरा इनार पर पहुँचत-पहुँचत किसिम-किसिम के बिचार बीरा का मन में फफने लागे. कबो पनवा के साँचा में ढारल सुघ्घर देंहि पर, कबो ओकरा बेफिकिर जवानी पर, कबो ओकरा जोमिआइल चाल पर आ कबो ओकरा माँगि में भरल सेनुर पर. बाकिर विचार के बवंडर गुर्चिआए का पहिलहीं छिटा जाव. ‘काहो, पानी पियबऽ कि हम जाईं?’ आ जब चिरुआ में पानी गिरे लागे तब बीरा के आंखि अनासो निहुरल पनवा के गरदन के नीचा टँगा जाव. कनपटी दहके लागऽ सन आ पियास गहिर होत चलि जाव. जब बाल्टी के पानी ओरा जाव त बीरा के करेजा जुड़ाए का बदला अउरु धधके लागे.

बाल्टी लटकावत पनवा अगराइ के पूछे, ‘का हो अभिन तोहार पियास ना गइल?’ बीरा अतिरिपित नियर मूड़ी डोला देसु. का जाने काहें उनुकर ओंतरे ताकि के मूड़ी डोलावते पनवाके देंहि चिउँटि रेंगे शुरु क द सन. ऊ भितरे-भितर कसमसाइ के रहि जाव. ओफ्फ नजरि ह कि बान…….. . थिराइलो पानी हँढोरि देले बीरा के इ नजरि. पनवा कुछ देर त सम्मोहन में बन्हाइल रहे, बाकि टोला-महल्ला के सुधि अवते ओकर सम्मोहन टूटि जाव. ऊ जल्दी जल्दी भरल बाल्टी उठावे, डोर लपेटे आ तिरछे ताकत घूमि के चल देव.

बीरा जगहे प खड़ा हहरत ताकसु – आ तबले ताकति रहि जासु जबले पनवा अपना ओसारा से होत घर में ना हेलि जाव.

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ओह दिन बीरा जब कान्हे गमछा आ लउर लिहले अचके में आके इनार पर खाड़ भइलन, त भईंस के लेहना गोतत पनवा के आंखि में एगो खास किसिम के चमक उठल, मन पोरसन उछरि गइल. अगर लोक-लाज के भय ना रहित त ऊ धवरि के बीरा के अँकवारी में भरि लेइत.

बीरा से आंखिए-आंखी पुछलन, ‘का हो का हाल बा?’ पनवा आंखिए-आंखी कहलस, ‘खूब पूछ तारऽ. कुल्हि करम त क घललऽ.’ फेर बिना कुछ बोलल बतियावल ऊहे बालंटी, ऊहे डोर, ऊहे इनार. पानी पियत खान बीरा के ओहीं तरे निहारल आ पनवा के सकुचाइ के अपना भीतर बटुराइल……फेर थथमि के आंखि तरेरल.

आजु बिना कुछ पुछले बीरा के बोली फूटल – ‘तहार गुलामियो बजइतीं, अगर नोकरी मिलि जाइत?’ पनवा अचकचा के तकलस, झूठही खिसिअइला के भाव देखवलस आ मुस्कियाइ के बल्टी इनार में छोड़ि दिहलस. बल्टी सरसरात नीचे चलि गइल. ओने बाल्टी बुड़बुड़ाइल एने पनवा के बोली सुनाइल, ‘अतना बरियार करेजा बा तोहार? दम बा त बाबू से बतियावऽ!’

बीरा के बुझाइल कि इ चुनौती पनवा उनका पौरुष आ साहस के दे तिया. नेह के निश्चय बड़ा दृढ़ होला. तब अउरू, जब जवानी में जोम होखे. ऊ दृढ़ होके कहलन, ‘अब त समनहीं आई. बाकिर अतने डर बा कि आगि लहकला का पहिलहीं तु पानी जिन छोड़ि दीहऽ.’

पनवा बाल्टी के बान्हन खोलत रहे. ओकर मन कइल जे खोलि के कहि देव. कहि देव कि जरुरत परी त हम तहरा खातिर इ घर दुआर महतारी-बाप कुल्हि छोड़ देब. बाकिर ऊ अतने कहलस, ‘दोसरा के सिच्छा देबे का पहिले अपना के अजमावऽ!’ अतने में रामअंजोर चौधरी दुआरे आ गइलन. बीरा इनारे भइल गोड़ लगलन, ‘पायँ लागी बाबा!’ चउधुर कुछ कहितन एकरा पहिलहीं पनवा बल्टी लेले निहुर गइल, ‘ल पियऽ!’ बीरा फेरु पानी पिए लगलन.

चलत खान चउधुर बोलवलन, ‘सुनि रे बचवा!’ पहिले त बीरा डेराइ गइलन. धीरे धीरे फाल डालत, सोचत-गुनत चल दिहलन. नियराँ गइला पर खुलासा भइल, ‘बड़ा फजीहत हो गइल बा एघरी. अब ई खेती के लउँजार संभरत नइखे. बुढ़ापा का कारन हम सकि नइखीं पावत. कवनो चरवाहा नइखन सँ भेटात. बीरा, तहरा किहाँ कवनो भेटइहन स?’ जवने रोगिया के भावे तवने वैदा फुरमावे! बीरा के मन माँगल इनाम मिल गइल. बाकि बड़ा अस्थिराहे कहलन, ‘बाबा हम परसों ले कुछ जोगाड़ बान्हब! एक दू आदमी बा, सवाच के बताइब!’

गाँव का नियरा पहुँचत-पहुँचत बीरा का दिमाग में पूरा योजना तैयार हो गइल रहे. ‘हमहीं चौधरी किहाँ चरवाही करब!’ बीरा जइसे पूरा तय क के बुदबुदइलन. उनका आँखि मे पनवा समाइल रहे. हर घरी ओकरा के देखला आ नगीच पहुँचला के ललक उनके बेकल कइले रहे. भगवान सहाय बाड़न तब्बे न चउधरी का मुंह से ई बात निकसल हऽ. उनका भीतर हलचलो होत रहे. ऊ डेरासु त इहे सोचि के, कि पनवा बियुहती ह. ओकर खियाल उनके छोड़ देबे के चाहीं. बाकिर ओकरे बोली….. उ चुनौती. उनुका बुझाइल जे पनवा मेहना मार तिया – ‘ईहे मरद बनल रहलऽ हा. प्रेम हँसी ठठ्ठा ना हऽ. करेजा के बड़ा पोढ़ करे के परी. केहू का क ली? मरद बाड़ऽ त आवऽ तलवार का धार प चलि के देखावऽ. प्रेम कइले बाड़ऽ त भागत काहें बाड़ऽ? ताल ठोंकि के मैदान में कूदऽ!’

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दू-चार दिन बीतत-बीतत बीरा चउधुर से बतिया लिहलन. बतिया का लिहलन, पूरा इत्मीनान करा दिहलन. चउधुर सोचलन कि बूझला खेत बारी कम बा आ भाई से कुछ खटपट बा, एही से बीरा खुदे चरवाहि करे खातिर सकार लिहलन. दू दिन बाद चउधुरी किहाँ बीरा काम करे शुरु क दिहलन. उनका भीतर जब बेचैनी होखे त केवनो ना केवनो बहाना से गंगाजी का ओर बाड़ में निकल जासु. कबो गंगा नहाए, कबो खेत घूमे. चौधरी का ना बुझाइल कि बीरा उनुका चरवाही का संगे लेहना-पताई, गोरू-बछरू, खेत-बधार सब कुछ कइसे सँभारि लिहलन? ऊ सोचलन, हम ठहरली बूढ़ आदिमी. अकेल जीउ, एने ओने डँउड़िअइला से फुरसते नइखे. पनवो के भीरि कम होखी. पनवा के त जइसे मन माँगल मुराद मिलि गइल होखे. खुसी के मारे डेग एने से ओने परे लागल. ऊ फुदकत फिरे. जेके देखे खातिर छछाइल रहे, ऊ अब चउबीसो घन्टा के सँघाती बनि गइल रहे.

धीरे-धीरे बीरा चउधुरी का घर के जिम्मेदारी कपारे ओढ़ि लिहलन. पनवा के त सपने फुला गइल रहे. ऊ उतराइल फिरे. ओकरा निगिचा आवत-जात, बोलत-बतियावत बीरा ओकर अतना आपन हो गइलन कि दुइयो घरि अन्हे भइल पहाड़ लागे. टोला-परोसा के आँखि गड़के लागल. मेहरारु जात आगी के लुत्ती होले. हवा लागत कहीं कि लहरि उठल. लोग पनवा का एह बदलाव प गौर करे लागल. बीरा आ पनवा के एक-ए-गो हरकत पर आँखि सिकुरे-फइले लगली स. गाँव टोला कवनो बड़ शहर त होला ना कि कुछ बात होखे आ हवा ओके ना फइलावे.

आखिर चिनिगी से सुनुगत सुनुगत एक दिन धधोक उठिए गइल. कानाफूसी, खुसुर-फुसुर से होत, बात चउधुर के काने लागल. चउधरि लाल भभूक भइलन बाकिर पनवा खुल्लमखुल्ला कूल्हि बेजायँ अपना कपारे ओढ़ि लिहलस. चउधुर के घुड़कला पर कहलसि, ‘ए बाबू! कूल्हिं दोस हमार हऽ! मारऽ काटऽ हमरा के, बीरा के कुछऊ कहबऽ त ठीक ना होई.’ चउधुर के भाला ले ढेर घाव लागल. ऊ खून के घोंट पी के रहि गइलन. मन थिराइल त पनवा के समझवलन, ‘लरिक बुद्धि में जिन परु. हम आजु ले आपन कुल्ही लाड़-प्यार तोरे के दिहलीं. आज हमार माथ कटाता. हमार इज्जत तोरा हाथे बा पनवां. अबहियों कुछ बिगड़ल नइखे.’ बाकिर पनवा त पिरीत का दरियाव में बहत रहे. ऊभ-चुभ करत, खालि अतने कहलसि, ‘तहार कुल्हि बात अपना जगहाँ ठीके बा बाबू. बाकिर बीरा से बिलग होके हम मुवले समान बानी. अगर हमरा के जीयत देखल चाहऽ त ए ममिला में आपन फैसला बदल लऽ.’

चउधुर के बार उजरात रहे. ऊ सोचलन ……. हमरे गलती से ई कूल्हि बखेड़ा खड़ा हो गइल. अबहियो से संभरि सकेला. हमरा जल्दी से जल्दी पनवा के गवना क देबे के चाही. ऊ उठि के नाऊ किहां चलि दिहलन.

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चौधरी के चरवाही बीरा के जिनिगी बदलि दिहलस. ऊ पनवा से लम्मा रहलन त ओकर रूप का खिंचाव में बन्हाइल रहलन. जब निगिचा अइलन त रूप के दवँक उनका दिल-दिमाग दूनों के तपाइ के निखारि दिहलस. अब हाल इ रहे कि टोला-महल्ला, समाज केहू के परवाह ना रहि गइल उनुका.

का जाने कइसन आन्ही आइल आ उनके उड़ा ले गइल. बीरा गंगा जी का अरार पर बइठि के इहे सोचत रहलन. रूप आ प्रेम के खिंचाव पर, उनकर दसा का से का हो गइल। कवन-कवन अछरंग ना लागल? सब थुड़ी-थुड़ी करऽता, तेवन एकोर, चउधरी कतना दुखी बाड़न? पनवा के बिदाई खातिर ओकरा ससुरा के लोग अलगे उनकर मूड़ी जँतले बा. आ पनवा बिया कि ओकरा कुछू के परवाहे नइखे. काल्हिए से फेंटले बिया, ‘चलऽ इ गाँव छोड़ि के कहीं लम्मा भागि चलीं जा.’

कहाँ भागि चलीं? आजु ले कहीं बहरा गइलीं ना. गाँव के ढेर लोग कलकत्ता बा लोग. आसाम में उनकर एगो संघतिया बा. बाकिर इ सोचला से फायदा का? बीरा का भीतर तनाव अउरी बढ़ि गइल. दिमाग में पनवा के निहोरा गूंजे लागल ‘हम तहरा बिना एको छन ना जीयब. ढेर तंग करबऽ त माहुर खा लेब.’

का जाने कवन मोह बा ओकरा से कि छोड़लो नइखे बनत आ छोड़ि दिहला पर जियलो कठिन बूझाता. ‘का, का ना भइल बीरा? चउधुर मारे परलन, गांव थुथुकारल, भाई गरियवलस, पंच डंड धइलस …….. पनवां तूँ जीए ना देबे हमरा के!’ ऊ तनी जोर से कहलन. गंगा के लहर उछाल मारत आइल आ नीचे अरार से टकराइ के छितरा गइल. सुरूज के किरिन तेज हो गइली सन. घाम तिखवे लागे लागल त बीरा कपारे अंगौछी बान्हि लिहलन. लहरि एक हालि फेरू आइल आ अरार से लड़ि के छिटा गइल ‘बदरकट्टू घाम सचहूं बड़ा तिक्खर होला!’ उ बुदबुदइलन.

बीरा के एक लट्ठा पाछा ले दरार परि गइल. बाकिर अपनेमें गुमसुम, कहानी बनत, बीरा के इचिको खबर ना रहे. कहानी बढ़ल जात रहे. लहरि जब चले त बुझाव कि कवनो गिरोह एक-ब-एक हमला बोलता. बाकि अरार के चट्टान नियर जामल माटी ओकर कूल्हि घाव सहि के ओके छीटि देत रहे.

‘लड़ऽसन! खूब लड़ऽसन!!’ बीरा जोर से कहलन. फेरु जइसे मन परल ‘हमहूँ अइसहीं नू बानीं. एही अरार लेखा. सभ चोट सहि के घठाउर हो गइल बानीं!’ बीरा के का पता कि सांचो उ अरार पर बइठि के अरारे हो गइल बाड़न आ उनका भीतर के घाव अवरू गहिराइल जाता. ई गहिराई उनुका के भीतरे-भीतर काटत जाता. कब एगो कड़ेराह धक्का लागी आ ऊ ढहि जइहें? ई खुद उनहीं के नइखे पता. मन में बवंडर चलत रहे आ तनिको थम्हे पटाए के नाँव ना लेत रहे.

पाछा के दरार धीरे-धीरे ढेर फइल गइल. दू चार बार धक्का के अवरू देरी रहे. पनवा फेरु मन परल. बीरा का भीतर जइसे ऊखि के एक मूट्ठी पतई जरि गइल. आंच गर ले चढ़ि आइल. उ अपना हालत पर मुस्किअइलन. सूखल हँसी फेफरिआइल ओठ पर फइल गइल. ‘दुर मरदे! तोरा ले बरियार करेजा त पनवा के बा! मेहरारु होइके अडिग. सगरो बवाल, सगरो दुतकार के जवाब दु टूक, ‘हँ बीरा हमार कूल्हि हउवनि!’ ‘बाह रे पनवा.’ अनासो उनका मुँह से निकलि गइल.

दरार अउर फइल गइल. बीरा के का पता कि सोझा से मार करत लहरन के गिरोह अब अपना सफलता का जोस में आखिरी बेर आव तिया. लहरि आइल आ कगरी के माटी हंढ़ोरि के लवटि गइल. उनुका तब बुझाइल जब पनवा झकझोर के उठवलस ‘भँउवाइल बाड़ऽ का? एने दरार फइलल जाता आ तहरा कुछ फिकिरे नइखे?’ पाछा देखते उ चिहा गइलन. झट से पनवा के फनवलन आ पाछे अपनहूं पार भइलन. अरार थसकल आ एक बएक भिहिला के लहरन में समा गइल. हँड़ोरइला से ओतना दूर के पानी कुछ अउरी मटिया गइल.

पनवा दूनूं हाथ छाती पर धइले अब ले हांफत रहे. सांस थमल त बोलल, ‘आज त तूं हमार जाने ले लेले रहितऽ! कहऽ कि हम उबिया के कवनो बहाना से, एने चलि अइनी हां. जान तारऽ उ दुआरे आके बइठल बाड़न स. बाबू बिदाई के तइयारी कर तारन. हम उनका के कहि सुनि के थाक गइलीं हां. अइनी हां त आपन जान देबे, बाकिर अचके में तहरा पर नजरि परि गइल हा.’ पनवा उनका छाती में समा के सुसुके लागल. बीरा कातर हो के ऊकर पीठ सुहुरावे लगुवन. ‘पागल अभिन हम जियते नु बानीं.हमरा रहते तें जान देबे. चलु आज तोरे बात रही. तुं कहत न रहले हा कि चलऽ कहीं लम्मा भागि चलीं जा. हम तेयार बानीं. जहाँ कहबे तहाँ चलब.’ भाववेग में ऊ कहते चलि गइलन. पनवा के हालत उनके फैसला करे के जइसे शक्ति दे देले रहे.

पनवा आपन भींजल पलक उठवलसि, ओकरा जइसे बीरा पर बिसवास ना भइल. पुछलस, ‘संचहू?’ ‘हँ रे, सांच ना त झूठ!’ बीरा ओके परतीति दियवलन. पनवा खुशी में मकनाइल, लपटा गइल बीरा से……… . जइसे फेंड़ में बँवर लपटे, ओकर हाथ बीरा के बान्हि लिहलस. नदी जइसे समुद्र में मिलि के अपना के भुला देले, ओघरी ओकरा किछऊ के चेत ना रहे. ना दीन के ना दुनिया के. बीरा टोकलन, ‘ अरे तोरा नीक जबून किछऊ बुझाला ना का? केहु देखी त का कही?’ पनवा अलगा हो गइल. ओकरा फीका मुसकान में सगरी समाज के प्रति उपेक्षा के भाव रहे.

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“आवऽ लवटि चलीं जा” लघु उपन्यास के पहिला हिस्सा १९७९ में भोजपुरी पत्रिका “पाती” में “सनेहिया भइल झाँवर” शीर्षक से छपल रहे आ एकर दुसरका हिस्सा “समकालीन भोजपुरी साहित्य” के जून १९९७ के कथा विशेषांक में ” पनवाँ आ गइल” शीर्षक से छपल. हालांकि ई देहात के बे पढ़ल-लिखल पनवाँ आ बीरा के प्रेमकथा ह, बाकिर एम्में गाँव से शहर के पलायन आ फेरु ओसे मोहभंग के साथे-साथ वापसी आ अन्तःसंघर्ष के चित्रण बा.

ई लघु उपन्यास बाद में अँजोरिया में धारावाहिक रुप से प्रकाशित भइल रहे. अब ओही उपन्यास के अँजोरिया के एह नयका संस्करण पर प्रकाशित कइल जात बा. कोशिश बा कि पुरनका संस्करण से सम्हारे जोत रचनन के एह खंड में ले आवल जाव जेहसे कि पाठकन के खोजे पढ़े में सुविधा होखे.

उपन्यासकार डा॰ अशोक द्विवेदी के नाम भोजपुरी साहित्य में जानल मानल आ मशहूर बा. अँजोरिया के सौभाग्य बा कि डा॰ द्विवेदी के रचना नियमित रूप से मिलत रहेला प्रकाशन खातिर आ हर बेर ओकरा के प्रकाशित कर के मन खुश होला. डा॰ अशोक द्विवेदी का बारे में भोजपुरी साहित्य के एगो पुरहर स्तंभ पाण्डेय कपिल के कहना बा कि, “गीत, गजल, नई कविता, निबंध, कहानी, लघुकथा, आलोचना आ संपादन का क्षेत्र में डा॰ अशोक द्विवेदी के जे अनमोल अवदान भोजपुरी के मिलत रहल बा ओकरा से भोजपुरी के ठोस आ वास्तविक समृद्धि सुलभ भइल बा…… उनुकर कहानी परम्परागत भोजपुरी कहानियन के इतिवृत, आदर्श आ औपचारिक विवरण से आमतौर पर मुक्त बा. यथार्थ जिनिगी के नीमन‍-बाउर अनुभवन से उपजल कहानी जहाँ एक ओर भाषा के संपूर्ण संस्कृति संस्कार से लैस बा, उहें एकनी में देश आ काल का मोताबिक उभरल चरित्र तीखा आ क्रिटिकल भइला का साथे बड़ा सहज ढंग से उभरल बाड़ें स.”


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