अंतहीन सफर

– यशस्वी सिंह

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अंतहीन सफर

Endless Journey !

ऊ उड़े में जीयत जिनिगी,
जइसन प्लेन में रखाइल बक्सा होखेला –
टैग लागल, उठावल गइल,
चहुँपावल गइल,
बाकिर कबहूँ केहू आपन ना मानल.

एगो बादर से दुसरका,
साँझ से भोर, उजास से अन्हार ले
ऊ हर बेरा केबिन में भटकत रहली,
जहवाँ नाँवो उधार के मिलत रहल.

जवना घरे गइल, ऊ घरे ना रहल,
बस एगो इन्तजार-घर रहल –
ना चैन, ना अपनापन.
अइसन जगह, जहाँ
ऊ दूसर के जिनिगी में थोड़ देर टिकल रहली,
साँसे रोकले, आपन मोल सम्हारत.

लोग कहल –
“मेहमान बाड़ी”,
“ए लइकी!”
बाकिर कबहूँ ना कहलस –
“ई त ए घर के आधार बाड़ी”,
“ई त ए माटी के जड़ बाड़ी”।

गेट से गेट, ए दुनिया के भीड़ में,
उड़त रहली – चुप्पी के पैराशूट पहिर के.

कवनो घर के दीवार उनकर छुअन ना जनलसि,
कवनो खिड़की उनुका सपना के आहट पर जागल ना.
ऊ हरदम आवत रहली, बाकिर
कबहूँ पूरा तरह से ना पहुँच पवली –
पाछा रह गइल बस
ओकरा उड़ान के लकीर.

तब, एगो दिन –
जब ऊ थाक गइलि बदरी में भटकला से,
त तूफान के सिला के पत्थर बना लिहली.
दू गो हाथ से अपना नाम पर
चार गो दीवार खड़ा कइली –
आ तब, हँ तब –
ऊ सचहूं अपना घरे उड़ के पहुँच गइली.

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