– यशस्वी सिंह
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अबहियों खड़ा बा
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ऊ आइल रहल ओह पहाड़ी इलाका से
जहवाँ के हवा गुनगुनाइल करे,
जहवाँ परदा के पार हँसी नाचल करे,
जहवाँ दरवाजा खुलले रहे, आवाज़ में नेह बहल करे,
जहवाँ प्यार मांगे के जरुरत ना रहल,
आ चैन खोजे के जरुरत.
अब ऊ खड़ा बा
एगो सूखल, सुनसान डीह पर,
जइसे अकेला पेड़, विराना में गाड़ल.
जवना जमीन में ओकर सोर गड़ल रहुवे,
उहां ना कबो कवनो बसंत ना आवे,
आवेला त चुप्पी के मौसम आ मर्हुआइल दिन.
कबहुँ जे डार हँसी में आकाश छुअलस,
अब खुदे से सिमट के पूछतिया – “काहे?”
ना कोमलता के बरखा, ना किरिन के किरपा,
बस टेढ़ नजर, आ वीराना.
बोलेले त ऊ जरूर,
बाकिर ओकर शब्द पतई नियर झर जाला – बेअसर.
धरती जोताला, बाकिर शब्दन से ना.
हर मुस्कान के जवाब में पत्थर मिलेला,
आ हर आँसू ऊ खुदही में छुपा लेले.
लोग कहेलें –
“जहवाँ बीया बोवाला, उहवें पेड़ उगेला”
बाकिर ओकर का जेकर केहू देखनहार नइखे?
जेकर जड़ फफोलेले नरम माटी खातिर,
जहवाँ ना कवनो नरम पाँव बा, ना ममता के आवाज़.
तबहियों –
ऊ खड़ा बा.
ना फुलाइल, ना गावत, बाकिर मज़बूती में.
काहे कि सबसे अकेला पेड़ो
हवा के झकोरा मोड़ सकेला.
आ जइसन कि उनकर डाढ़ी थाकल बा दुख में,
त ओह हर झरल पतई में ऊ गँवे से कहेले –
“हम सूरज के किरिन में पलाइल हई.
बसंत हमरा अबहियों याद बा.
सूखलो में – हम अबहियो जीयते बानी!”
यशस्वी सिंह के कविता के भोजपुरी रुपांतरण,
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