– प्रभाकर पाण्डेय ‘गोपालपुरिया’
नून-तेल-भात कबो, कबो दलिपिठवा,
कबो-कबो खाईं हम भुँजा अउरी मिठवा,
कबो लिट्टी-चोखा त कबो रोटी-चटनी,
कई-कई राति हम बिना खइले कटनी.
कबो मिलि जाव एक मुठी सतुआ,
कबो-कबो खिचड़ी खिया दे नथुआ,
केतने संघतिया त खइले बिना मरलें,
उनकर घरवाला त सुधियो ना पवलें.
जीवन का होला ई कबो ना बुझाइल,
पचीसे बरिसवा में बुढ़ापा घिर आइल,
भइल बा बिआह, इहो मन ना परे,
तब्बो मनवा ई चाहे पहुँचि जाईं घरे.
मनवा मसोसि के हम रहि गइनी,
अपना बबुआ के मुहँवा देखिओ ना पवनी,
उहे हमार बाबू, आजु एइसन हो गइने,
हमरिए नाव पर लूट-पाट कइने.
मुअले की बादों हम उनके एतना दे गइनीं,
तबो उनकी मुँहे से मजदूरे हम कहइनी.
लोग कहे, कहे द पर तूँ मति कहS,
ए हमार बाबू तूँ, तूँ भोजपुरिए रहS.
प्रभाकर गोपलापुरिया के पहिले प्रकाशित रचना
प्रभाकर पाण्डेय
हिंदी अधिकारी, सी-डैक पुणे
पुणे विश्वविद्यालय परिसर, गणेशखिंड,
पुणे- 411007, भारत
बहुत सही लिखले बानी लेकिन बीच के लाइनन में थोड़ा प्रवाहत्मकता में कमी महसूस हो रहलऽ बा… अस्तु, भीतरी गड्डम-गड्ड से निकलल राऊर ई पंक्ति विचारणीय बा…
“लोग कहे, कहे द पर तूँ मति कहS,
ए हमार बाबू तूँ, तूँ भोजपुरिए रहS.”